श्रीमद्भगवद्गीता और सांख्य दर्शन
भाग - 01 > गीता का ब्रह्म और सांख्य का पुरुष
पहले श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न 04 श्लोकों को देखते हैं …
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक : 13.13 - 13.16
सर्वतः पाणि पादम् तत् सर्वतः अक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमत् लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति ।। 13.13 ।।
उसके हाथ , पैर , नेत्र , सिर , मुख और कान सर्वत्र हैं । वह सबको व्याप्त करके स्थित है ।
सर्वेंद्रिय गुणाभासम् सर्व इंद्रिय विवर्जितम् ।
सक्तम् सर्वभृत् च एव निर्गुणमृ गुणभोक्तृ च।। 13.14 ।।
इंद्रिय रहित है लेकिन सभीं इंद्रियों के विषयों को जानने वाला है । वह आसक्ति रहित हो कर भी सबका धारण - पोषण करने वाला है । वह निर्गुण होते हुए भी गुणों को भोगनेवाला है ।
बहि: अंतः च भूतानाम् अचरम् चरम् एव च ।
सूक्ष्मत्वात् तत् अविज्ञेयम् दूरस्थम् च अंतिके च तत्।।13.15।।
वह सभिन चर - अचर के अंदर , बाहर है , वही चर - अचर है और वह सर्वत्र है तथा अति सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय है ।
अविभक्तम् च भूतेषु विभक्तम् इव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तत् ज्ञेयम् ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।। 13.16।।
वह अविभक्त होते हुए भी सभीं भूतों में विभक्त सा स्थित है। वह धारण - पोषण करता है और जानने योग्य है । वह रुद्र रूप में सबका संहार करता है एवं ब्रह्मा रूप में सबको उत्पन्न करता भी है। ऊपर दिए गए भावार्थ के आधार पर ब्रह्म निर्गुण एवं त्रिगुणी पदार्थों का भोक्ता है । वह इंद्रिय रहित है लेकिन इंद्रियों के विषयों को समझता है । उससे संधि चर - अचर हैं और वही सभीं चर - अचर भी है ।
उसके हाथ , पैर , नेत्र , सिर , मुख और कान सर्वत्र हैं । वह सबको व्याप्त करके स्थित है । सबका जन्म , जीवन और मृत्यु का कारण ब्रह्म है । वह अतिसूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय भी है ।
अब सांख्य दर्शन के पुरुष को समझते हैं ।
संबंधित संख्या कारिकाएँ > 3 ,9 ,10 , 11 , 15 - 22 , 32 , 41 , 42 , 52 - 60 , 62 - 68
सांख्य दर्शन द्वैत्यबादी दर्शन है । सांख्य में पुरुष - प्रकृति दो स्वतंत्र सनातन तत्त्व हैं । पुरुष शुद्ध चेतन एवं निर्गुण तत्त्व है जैसे ब्रह्म है और प्रकृति अचेतन , जड़ और त्रिगुणी तत्त्व है । तीन गुणों की साम्यावस्था को मूल प्रकृति कहते है । जब प्रकृति का संयोग पुरुष से होता है तब वह विकृत होती है और विकृत होने के फलस्वरूप बुद्धि की उत्पत्ति होती है । बुद्धि से अहंकार तथा अहँकार से 11 इंद्रियों एवं पांच तन्मात्रों की उत्पत्ति होती है । 05 तन्मात्रों से उनके अपने - अपने महाभूतों की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार प्रकृति के 23 त्रिगुणी तत्त्वों में प्रथम तीन तत्त्वों ( बुद्धि + अहंकार + मन ) को चित्त कहते हैं जो प्रकृति - पुरुष की संयोग भूमि है । प्रकृति के 23 तत्त्व जड़ तत्त्व हैं लेकिन पुरुष ऊर्जा की उपस्थिति में ये चेतन जैसा व्यवहार करते हैं । पुरुष सर्वज्ञ तो है लेकिन उसे अपने ज्ञान का कोई अपना अनुभव नहीं । पुरुष अनुभव हेतु प्रकृति से जुड़ता है और जबतक उसका अनुभव उसे भोग से वैराग्य में नहीं पहुंचा पाता , वह प्रकृति से मुक्त नहीं हो पाता । प्रकृति के 23 तत्त्वों में से 05 महाभूतों को छोड़ शेष 18 तत्त्वों के समूह को सूक्ष्म या लिंग शरीर कहते हैं । लिंग शरीर तबतक आवागमन में रहता है जबतक पुरुष को कैवल्य नहीं मिल जाता , इस प्रकार प्रकृति के 23 तत्त्व पुरुष के लिए कैवल्य हेतु हैं ।
भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि , समाधि में स्व बोध और स्व बोध में कैवल्य जो मोक्ष का द्वार है , की प्राप्ति के साथ चित्ताकार पुरुष अपने मूल स्वरूप में आ जाता है और विकृति प्रकृति के तत्त्वों का अपनें - अपनें कारणों में लय हो जाता है और विकृत प्रकृति तीन गुणों की साम्यावस्था में आ जाती है जो उसका मूल स्वरूप है । प्रकृति , पुरुष को उसके संसार के अनुभव में अपनें 23 तत्त्वों की मदद से सहयोग करती है।
श्रीमद्भगवद्गीता का ब्रह्म और सांख्य दर्शन का पुरुष दोनों एक तत्त्व के संबोधन हैं जो निर्गुण , निराकार और शुद्ध चेतन तत्त्व है । सूक्ष्म और निराकार होने के कारण वह स्वत: कुछ करने में असमर्थ होता है जबकि वह सर्वज्ञ होता है । जैसे सांख्य का निर्गुण एवं चेतन पुरुष अचेतन , जड़ एवं त्रिगुणी प्रकृति से संयोग करता है और संसार का अनुभव प्राप्त करता है वैसे गीता का निर्गुण , निराकार एवम चेतन ब्रह्म अपनी जड़ , अचेतन एवं त्रिगुणी माया माध्यम से देह में जीवात्मा के रूप में त्रिगुणी पदार्थों का भोक्ता होता है । देह में जीवात्मा को छोड़ शेष जो भी है , वह माया है ।
सांख्य और वेदांत दर्शन ( श्रीमद्भगवद्गीता ) एक ही बात को अलग - अलग ढंग से कह रहे हैं
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