ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेश अर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्रारूढ़ानि मायया।। गीता - 18.61
भावार्थ > ” हे अर्जुन! ईश्वर सभीं प्राणियों के हृदय में स्थित है और जैसे एक यंत्र को उसका चालक चलाता है वैसे ईश्वर सभीं प्राणियों को अपनी माया माध्यम से भ्रमण करा रहा है “।
यहां श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय : 7 श्लोक : 14 +15 के आधार पर श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक जी 18.61 में दिए गए माया को समझते हैं ।
यहां प्रभु श्री कृष्ण का रहे हैं , “ माया मोहित मनुष्य आसुर स्वभाव वाला होता है और माया मुक्त मनुष्य संसार बंधनों से मुक्त हो जाता है ।
कुछ इसी तरह सांख्य दर्शन में भी कहा गया है जो निम्न प्रकार है …
“ प्रकृति - पुरुष संयोग से सभीं भूत हैं । प्रकृति त्रिगुणी , प्रसवधर्मी , अचेतन एवं जड़ है । पुरुष निर्गुण एवं शुद्ध चेतन है । प्रकृति और पुरुष दोनों स्वतंत्र एवं सनातन हैं । पुरुष की ऊर्जा से प्रकृति की तीन गुणों की साम्यावस्था विकृत होती है जिसके फलस्वरूप बुद्धि , अहंकार , मन , 10 इंद्रियां , 05 तन्मात्र और 05 महाभूत उत्पन्न होते हैं जिनके दृष्टि की निष्पत्ति हुई है । इन 23 तत्त्वों में से बुद्धि , अहंकार और मन के समूह को चित्त कहते हैं । पुरुष है तो सर्वज्ञ लेकिन उसे अपनें ज्ञान के आधार पर अनुभव नहीं अतः वह अनुभव प्राप्त करने के लिए प्रकृति निर्मित 23 तत्त्वों में से चित्त केंद्रित हो कर जीव के शरीर माध्यम से संसार का अनुभव करता है । प्रकृति के 23 तत्त्व पुरुष की मदद करते हैं । पुरुष के इस अनुभव से जब उसे वैराग्य हो जाता है तब वह अंततः कैवल्य प्राप्ति से मोक्ष प्राप्त करता है । पुरुष के कैवल्य प्राप्ति के साथ प्रकृति भी अपनें मूल स्वरूप में आ जाती है अर्थात उसके सभीं तत्त्व उसमें लय हो जाते हैं और वह तीन गुणों की साम्यावस्था में आ कर निष्क्रिय हो जाती है ।
श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक : 18.61 के संदर्भ में सांख्य दर्शन का सिद्धांत आपको कैसा लगा ?
~~ ॐ ~~
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