Thursday, January 31, 2013

गीता ज्ञान - 09

कर्म और ज्ञान 

गीता श्लोक - 3.1 - 3.3 

श्लोक - 3.1 
ज्यायसी चेत् कर्मणः ते मता बुद्धिः जनार्दन 
तत् किम् कर्मणि घोरे माम् नियोजयसि केशव 

" यदि कर्म की अपेक्षा ज्ञान [ बुद्धि ] उत्तम है तो फिर आप मुझे इस घोर कर्म में क्यों उतारना चाह रहे हैं ?"
यह बात अर्जुन प्रभु श्री कृष्ण से कह रहे हैं
श्लोक - 3.2
आप के मिले  हुए वचन मेरी बुद्धि को सम्मोहित कर रहे है , मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए , अतः आप मुझे स्पष्ट रूप से उसे बताएं जो मेरे हित में हो , यह बात अर्जुन कह रहे हैं 
श्लोक - 3 
लोके अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया अनघ 
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् कर्मयोगेन योगिनाम् 
प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ......
 दो रास्ते हैं जिनसे सत्य की खोज संभव है ; एक रास्ता उनका है जो बुद्धि केंद्रित हैं , जो तर्क - वितर्क के आधार पर सत्य को समझना चाहते हैं और अन्य जिनका  केंद्र बुद्धि नहीं है उनके लिए क र्म-  योग मार्ग है / 

यहाँ तीन  बातें हैं ------

  • सत्य की खोज 
  • ज्ञान मार्ग 
  • कर्म योग 

सत्य की खोज क्या है ? 
सत्य की खोज वह है जिसको समझनें के बाद मनुष्य परमानंद की स्थिति में आ जाता है और वह प्रकृति एवं प्रकृति के मूल पुरुष का द्रष्टा बन जाता है और वह स्वयं का भी द्रष्टा होता है /

कर्म एवं कर्म - योग 
तन , मन एवं बुद्धि के माध्यम से मनुष्य की ऊर्जा का खर्च होनें का जो हेतु है उसे कर्म कहते हैं /कर्म के बिना कोई भी जीवधारी एक पल भी नहीं राह सकता / ऐसे कृत्य जिनके होने के पीछे भोग - भाग हो , उसे भोग कर्म कहते हैं और ऐसे कृत्य जीके होनें के पीछे परमात्मा को समझनें की जिज्ञासा हो उनको कर्म - योग कहते हैं / ब
भोग कर्मों में जब भोग तत्त्वों की अनुपस्थिति होती है तब वे कर्म योग हो जाते हैं और इस यात्रा की सफलता का फल है ज्ञान / भोग से योग , योग में ज्ञान की प्राप्ति , यह है साधना का सूत्र / गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , वह जिससे क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध हो , उसे ज्ञान कहते हैं [ गीता - 13.2 ] / 
मनुष्य मात्र एक ऐसा प्राणी है जो भोग से योग में उतर कर ज्ञान प्राप्ति से  प्रभु की अनुभूति से गुजर कर आवागमन से मुक्त हो सकता है /  मनुष्य की योनि प्राप्त करना उस स्थिति को प्राप्त करना है जहाँ से प्रभु में उड़ान भरना  संभव है / 
आइये ! 
आज  आप आमंत्रित हैं गीता के माध्यम से परम में उड़ान भरनें को , आप इस उड़ान के लिए अपनें तन .मन एवं बुद्धि से वायुयान का निर्माण कर सकते हैं / जब ध्यान से तन , मन एवं बुद्धि निर्मल हो जाते हैं तब मनुष्य का क्षेत्र वह वायुयान बन जाता है जिससे वह निर्वाण प्राप्त करता है // 

==== ओम् ======

Thursday, January 24, 2013

गीता ज्ञान - 08

जीव रचना 

[ अगला चरण ]

गीता श्लोक - 14.3 , 14.4 

मम योनिः महत् ब्रह्म तस्मिन् गर्भम् दधामि अहम्  / 
संभवः सर्वभूतानां ततः भवति भारत                    //

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः           / 
तासां ब्रह्म महत् योनिः अहम् बीजप्रदः पिता        // 

भावार्थ :-----

सभी योनियों से जो जीव उत्पन्न हो रहे हैं उनके पिता स्वरुप बीज प्रदाता मैं हूँ और महत् ब्रह्म उनके गर्भ धारण करनें की योनियाँ हैं /

भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं : -----

जीवों के बीजों का प्रदाता मैं हूँ .....
जीवों को जो धारण करता है , वह ब्रह्म है ....

अभीं तक जीव के होनें के सिद्धांत के सम्बन्ध में गीता के निम्न सूत्रों को हम देख चुके हैं -----
7.4 - 7.6 
9.20 - 9.22
13.4 - 13.5 , 13.20 
14.3 - 14.4 
और इन श्लोकों में हमें निम्न शब्द मिले :-----

  • पञ्च महाभूत [ पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश ]  
  • पञ्च बिषय
  • दश कार्य + तेरह करण 
  • प्रकृति - पुरुष [ दो प्रकृतियाँ ; अपरा + परा ] 
  • ब्रह्म 
  • आत्मा [ जीवात्मा ] 
  • श्री कृष्ण 

और ....

गीता में हमनें यह भी देखा , प्रकृति - उरुष दोनों अज हैं
अब आप के सामनें जीवों की रचना का तत्त्व - विज्ञान है , आप इसके सम्बन्ध में स्वयं कुछ सोचें
==== ओम् =======

Monday, January 14, 2013

गीता ज्ञान - 07

क्षेत्र की रचना 

[ जीव के देह की रचना ] 

गीता श्लोक - 13.5 - 13.6

महाभूतानि अहंकार : बुद्धिः अब्यक्तम् एव च /
इन्द्रियाणि दश एकं च पंच च इंद्रियगोचरा : //

इच्छा द्वेष : सुखं दुःखम् संघात चेतना धृतिः /
एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारम् उदाहृतम्     //

" पांच महाभूत [ पृथ्वी ,जल , वायु ,अग्नि , आकाश ] , मन , बुद्धि , अहँकार , दश इन्द्रियाँ , पांच इंद्रिय बिषय , इच्छा , द्वेष , सख - दुःख , धृति , स्थूल देह का पिण्ड के अन्य तत्त्व , सभीं विकार एवं ----
चेतना - अब्यय से इस क्षेत्र की रचना की बात कही गयी है "

यह बात अर्जुन को प्रभु श्री कृष्ण उस बात को बता  रहे हैं जिसकी चर्चा ब्रह्म सूत्र एवं वेदों में की गयी है / 
इस सम्बन्ध में आप पहले गीता श्लोक - 9.10 , 13.20 , 7.4 - 7.6 तक को देख चुके हैं / 

इस सम्बन्ध में गीता की कुछ और बातों को हम अगले अंक में देखेंगें //

==== ओम् =====


Wednesday, January 9, 2013

गीता ज्ञान - 06

जीवों की रचना 

गीता श्लोक - 7.4 - 7.6 
यहाँ प्रभु अपनें तीन सूत्रों के माध्यम से कह रहे हैं : ----
दो प्रकृतियों से सभीं जीब हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव - प्रलय हूँ [ सूत्र - 7.6 ] 
और
सूत्र - 7.4 एवं सूत्र - 7.5 में कहते हैं .....
भूमि 
जल 
अग्नि 
वायु 
आकाश 
मन , बुद्धि एवं अहँकार ...
ये आठ अपरा अपरा प्रकृति के तत्त्व हैं
और 
इनके परे एक परा प्रकृति है जिसे चेतना  कहते हैं और जिससे मैं जगत को धारण किये हुए हूँ / चेतना वह तत्त्व है जो जीव को धारण करता है /

यहाँ गीता का श्लोक - 13.19 को भी देखते हैं जो कहता है -----

प्रकृति एवं पुरुष दोनों अनादि हैं , सभीं तीन गुणों के तत्त्व एवं विकार प्रकृति जन्य हैं / 

गीता श्लोक - 9.10 में हमनें पिछले अंक में देखा था जहाँ प्रभु कहते हैं , प्रकृति  रचनाकार है अर्थात संसार के सभीं चर - अचर  प्रकृति से रचित हैं अर्थात ऐसा कोई चर - अचर  नहीं जिस पर गुणों का प्रभाव न हो अर्थात जो निर्विकार हो /
गीता श्लोक - 18.40 में भी प्रभु कहते हैं , हे अर्जुन पृथ्वी , आकाश एवं अन्यत्र ऎसी कोई भी सूचना नहीं जिस पर गुणों की छाया न पड़ती हो /

गीता ऊपर दिए गए सूत्रों के माध्यम से बता रहा है ------


  • जो हैं सब प्रकृति से हैं 
  • प्रकृति प्रभु से है 
  • सभीं विकार प्रकृति से हैं 
  • प्रकृति विकार मुक्त हो नहीं सकती 
  • प्रभु से सभीं विकार हैं , लेकिन प्रभु निर्विकार हैं 

साधना , ध्यान , तप , सुमिरन , योग एवं अन्य सभीं ऐसे माध्यम  हैं जिनसे प्रकृति निर्मित विकारयुक्त मनुष्य अपनें को निर्मल करता रहता रहता है और जब उसकी निर्मलता पूर्ण होती है तब वह स्वयं प्रभु जैसा बन जाता है और निर्वाण प्राप्त करता है / गीता श्लोक - 5.11 में प्रभु कहते हैं , हे अर्जुन ! कर्म योगी अपनें
 तन , मन एवं बुद्धि से जो भी करता है वह उसे निर्मल बनाता रहता है /

==== ओम् =====

Thursday, January 3, 2013

गीता ज्ञान - 05

चर - अचर की रचना 

गीता श्लोक - 9.10 एवं 13.20 

मया अध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्
हेतुना अनेन कौन्तेय जगत विपरिवर्तते

" मेरी अध्यक्षता में प्रकृति सभी चर - अचर की रचना करती है 
और ...
इस प्रकार जगत एक परिवर्तननीय सा दिखता है "

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु : प्रकृतिः उच्यते 
पुरुषः सुखदु:खानाम् भोक्तृत्वे हेतु : उच्यते 

" कार्य और करण प्रकृति से उत्पन्न हैं 
और ....
प्रकृति में स्थित पुरुष सुख - दुःख भोग का कारण है 

गीता सूत्र - 9.10 में विचारणीय बात :

मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चर - अचर की रचना करती है ------
और

 गीता सूत्र - 13.20 में विचारणीय बात :

कार्य और करण क्या हैं ?
पुरुष - प्रकृति का क्या सम्बन्ध है ?

गीता सूत्र - 9.10 प्रभु स्वयं को अपनें निराकार स्वरुप की ओर इशारा  कर रहे हैं  अर्थात निराकार प्रभु चर - अचर की रचना का द्रष्टा है , कर्ता तो प्रकृति है और प्रकृति प्रभु के द्वारा बनाए गए नियमों का पूर्ण रूप से पालन करती है / प्रकृति दो प्रकार की हैं - अपरा [ पांच महाभूत , मन , बुद्धि एवं अहँकार ] और परा [ चेतना ] / अपरा और परा प्रकृतियों के माध्यम को माया कहते हैं /

गीता श्लोक - 13.20 में 10 कार्य हैं [ 05 महाभूत + 05 बिषय ] और 13 करण हैं [ 10 इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि एवं अहंकार ] /

पुरुष - प्रकृति सम्बन्ध 
पुरुष परमात्मा का वह नाम है जिसे सांख्य - योग में प्रयोग किया जाता है और जिसका अंश आत्मा है / पुरुष से पुरुष में अर्थात परमात्मा से परमात्मा में दो प्रकृतियों का प्रभु निर्मित एक माध्यम है जिसे माया कहते हैं /माया में प्रभु रहते हैं अर्थात पुरुष रहता है और माया की दो प्रकृतियाँ रचनाकार हैं जो किसी परम निर्मित नियम के अनुकूल रचना करती रहती हैं / सुख - दुःख का अनुभव जीव के मध्यम से है और जीव स्वयं परमात्मा आत्मा रूप में देह में है /
=== ओम् ======

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