Wednesday, January 9, 2013

गीता ज्ञान - 06

जीवों की रचना 

गीता श्लोक - 7.4 - 7.6 
यहाँ प्रभु अपनें तीन सूत्रों के माध्यम से कह रहे हैं : ----
दो प्रकृतियों से सभीं जीब हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव - प्रलय हूँ [ सूत्र - 7.6 ] 
और
सूत्र - 7.4 एवं सूत्र - 7.5 में कहते हैं .....
भूमि 
जल 
अग्नि 
वायु 
आकाश 
मन , बुद्धि एवं अहँकार ...
ये आठ अपरा अपरा प्रकृति के तत्त्व हैं
और 
इनके परे एक परा प्रकृति है जिसे चेतना  कहते हैं और जिससे मैं जगत को धारण किये हुए हूँ / चेतना वह तत्त्व है जो जीव को धारण करता है /

यहाँ गीता का श्लोक - 13.19 को भी देखते हैं जो कहता है -----

प्रकृति एवं पुरुष दोनों अनादि हैं , सभीं तीन गुणों के तत्त्व एवं विकार प्रकृति जन्य हैं / 

गीता श्लोक - 9.10 में हमनें पिछले अंक में देखा था जहाँ प्रभु कहते हैं , प्रकृति  रचनाकार है अर्थात संसार के सभीं चर - अचर  प्रकृति से रचित हैं अर्थात ऐसा कोई चर - अचर  नहीं जिस पर गुणों का प्रभाव न हो अर्थात जो निर्विकार हो /
गीता श्लोक - 18.40 में भी प्रभु कहते हैं , हे अर्जुन पृथ्वी , आकाश एवं अन्यत्र ऎसी कोई भी सूचना नहीं जिस पर गुणों की छाया न पड़ती हो /

गीता ऊपर दिए गए सूत्रों के माध्यम से बता रहा है ------


  • जो हैं सब प्रकृति से हैं 
  • प्रकृति प्रभु से है 
  • सभीं विकार प्रकृति से हैं 
  • प्रकृति विकार मुक्त हो नहीं सकती 
  • प्रभु से सभीं विकार हैं , लेकिन प्रभु निर्विकार हैं 

साधना , ध्यान , तप , सुमिरन , योग एवं अन्य सभीं ऐसे माध्यम  हैं जिनसे प्रकृति निर्मित विकारयुक्त मनुष्य अपनें को निर्मल करता रहता रहता है और जब उसकी निर्मलता पूर्ण होती है तब वह स्वयं प्रभु जैसा बन जाता है और निर्वाण प्राप्त करता है / गीता श्लोक - 5.11 में प्रभु कहते हैं , हे अर्जुन ! कर्म योगी अपनें
 तन , मन एवं बुद्धि से जो भी करता है वह उसे निर्मल बनाता रहता है /

==== ओम् =====

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