●गीता सूत्र - 4.1 ●
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तावान् अहम् अब्ययम् । विवश्वान् मनवे प्राह मनु: इक्ष्वाकवे अब्रवीत् ।।
** प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :---
मैनें इस अविनाशी योगको सूर्यको बताया ,सूर्य अपनें पुत्र वैवश्वत मनुको बताया और वैवश्वत मनु अपनें पुत्र इक्ष्वाकुको बताया ।
** यहाँ दो बातें सोचमें के लिए हैं :---
1- बताया गया बंश क्या है ?
2- प्रभु किस योगकी बात कह रहे हैं ?
1- सूर्य बंश ब्रह्मासे मरीचि ऋषि हुये ,मरीचिसे कश्यप ऋषि हुए ,कश्यप से विवाश्वन् ( सूर्य ) हुए , सूर्यसे सातवें मनु श्राद्धदेव हुए जिनको वैवश्वत मनु भी कहते हैं ।श्राद्ध देव मनुके बड़े पुत्र इक्ष्वाकुसे 100 पुत्र हुए जिनमें विकुक्षि बंश में श्री राम हुये और निमि बंश में सीता हुयी थी ।श्राद्धदेव मनुसे इस कल्पका प्रारंभ हुआ है ।श्राद्ध देव मनु सातवें मनु थे और पिछले कल्प में ये द्रविण देश के राजर्षि सत्यब्रत हैं । एक कल्प में 14 मनु होते हैं । 2- प्रभु जिस योगकी बात कह रहे हैं वह योग कौन सा है ?
गीता अध्याय - 4 अध्याय -3 का क्रमशः है और अध्याय - 3 में श्लोक - 3.36 से अर्जुन का प्रश्न है ,अर्जुन कहा रहे हैं कि मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों कर देता है ? प्रभु उत्तर में श्लोक -3.37 से 4.3 तक ( अर्थात 10 श्लोक ) बोलते हैं जिनमें अध्याय - 3 के अंतिम 07 श्लोक कामसे सम्बंधित हैं जिनमें काम नियंत्रणके बारे में प्रभु बताते हैं । प्रभु जिस योग की बात कह रहे हैं उसका सीधा सम्बन्ध काम उर्जा को नियंत्रित करना है । काम योगके सम्बन्धमें गीताके निम्न श्लोको को देखना चाहिए :---
3.37 से 3.43 तक + 5.23+ 5.26+ 7.11+ 10.28+14.12+ 16.18+16.21
~~ ॐ~~
Tuesday, October 29, 2013
गीता मोती - 06
Wednesday, October 23, 2013
कर्म से कर्म योगमें प्रवेश
● गीता मोती - 6 ●
सन्दर्भ : गीता श्लोक :
* 2.67+2.60+2.62+2.63 *
** गीता - मनोविज्ञान **
पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं और प्रत्येक इन्द्रियका अपना विषय प्रकृति में है । इन्द्रियोंका स्वभाव है
अपनें - अपनें विषयोंको खोजते रहना । जब कोई इन्द्रिय अपना विषय पा लेती है तब अपनी कामयाबी की सूचना मन तक पहुँचती है । उस समय , मन जिस गुणके प्रभाव में होता है , उस गुण के अनुकूल उस विषय के सम्बन्ध में मनके मनन से वैसे भाव उठते है । मननसे आसक्ति बनती है , आसक्ति से कामना उठती है । कामना जब खंडित होनें का भय आनें लगता है तब कामनाकी उर्जा क्रोध में बदल जाती है । क्रोध में स्मृति खंडित हो जाती है फलस्वरुप वह ब्यक्ति गलत काम कर बैठता है और बादमें पछताता रहता है ।
°° गीता -मनोविज्ञानका यह सूत्र कर्मसे
कर्मयोग - सिद्धि तक की यात्रा का प्रमुख अंश है °°
~~~ ॐ ~~~
Wednesday, October 16, 2013
उसे देखना चाह रहे हो ?
Sunday, October 13, 2013
गीता यात्रा का एक अंश
Wednesday, October 2, 2013
गीता मोती -5
● गीतासे गीतामें ●
~ पहले गीतासे गीतामें को समझते हैं ~
गीता पढ़ना , गीतासे है और इस पढ़ाईसे खोजकी जो प्यास उठती है वह यदि गीतामें अपनीं तृप्तिके तत्त्वको खोजती है तो उसे कहेंगे गीतामें ।
* गीता मात्र एक ऐसा माध्यम है जिसमें संदेह और भ्रम उठनें के श्रोत हैं और उनकी औषधि भी गीतामें कहीं न कहीं मिलती है । वह जो गीताका प्रेमी है , बुद्धिसे गीतामें प्रवेश करता तो है लेकिन धीरे -धीरे उसकी बुद्धि शांत होनें लगती है और ह्रदयका कपाट खुलनें लगता है ।
* दर्शनमें दो मार्ग हैं ; एक है मन -बुद्धि और दूसरा है हृदय । निश्चयात्मिका बुद्धि अर्थात ध्यान -बुद्धिसे ह्रदयका द्वार खुलता है और अनिश्चयात्मिका बुद्धि है भोग बुद्धि जो हृदय के द्वारको बंद रखती है और मैं और मेराके भावसे बाहर होनें नहीं देती ।
* गीता से गीता में पहुंचा कभीं गीतासे बाहर निकलता ही नहीं ..
और
* बुद्धि स्तर पर गीताको ऊपर - ऊपरसे देखनें वाला कभीं गीतामें प्रवेश करता ही नहीं ।
~~~ ॐ ~~~