<> गीता यात्राका एक अंश <>
* गीता पर जो लोग भाष्य लिखे हैं उनमें अधिकाँशलोग भक्ति मार्गी हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिनका मार्ग भक्तिका तो नहीं है पर उनकी बुद्धि भक्ति मार्गियों से पूर्ण प्रभावित है ।
* गीताको कर्मयोगकी गणित समझा जाता
है ,यह बात तो समझमें आती है , इतनी सी बात को लोग पकड़ कर बैठ जाते हैं , रात-दिन भोग कार्य में ऐसे जुड़ जाते हैं कि उनको सामनें खड़ी मौतका भी आभाष नहीं हो पाता और एक दिन उनकी जीवात्मा उनके शरीरका त्याग कर देती है ।
* गीता -2.49 में प्रभु कह रहे हैं - ---
बुद्धियोगात् कर्मः दूरेण अवरं
बुद्धौ शरणं अन्विच्छ हि फलहेतवः कृपणा:
अर्थात :-
बुद्धि योगसे कर्म अत्यंत निम्न श्रेणी का होता है अतः तुम बुद्धि योगके शरण में जाओ , कर्म फलकी कामना वाले कृपण होते हैं ।
* भागवतमें वैदिक कर्म दो प्रकार के होते हैं ; प्रबृत्ति परक और निबृत परक । प्रबृत्ति परक भोगआश्रित कर्मोंको कहते हैं और निबृत परक वे कर्म हैं जो ब्रहकी अनुभूतिमें पहुँचाते हैं ।
* गीता कहता है बुद्धि योग और कर्म योग की यात्रा अलग -अलग नहीं होती प्रबृत्तिपरक कर्म एक माध्यम हैं जिनमें भोग तत्त्वों की परख संभव है । भोग तत्त्वों की परख हो जानें के बाद उनके सम्मोहन का प्रभाव नही होता और वह प्रवृत्तिपरक कर्म निबृत्तिपरक कर्म हो जाते हैं जहाँ नैष्कर्म्य की सिद्धिके साथ ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानप्राप्ति, ज्ञान योग है जो ब्रह्मऔर जीवात्माके एकत्वकी अनुभूति कराता है ।
* जिसे हम भक्ति कहते हैं वह स्थूल (अपरा ) भक्ति है । अपरा भक्तिसे पराका द्वार खुल सकता है । परा भक्ति में पहुंचा योगी राम कृष्ण परम हंस जैसा हो जाता है और वह पूर्ण होशमय स्थिति में ज्ञान में बसेरा बनाया होता है ।
~~~ ॐ~~~
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