* गीता श्लोक -6.26 *
यतः यतः निश्चरति
मनः चंचलं अस्थिरम् ।
ततः ततः नियम्य एतत्
आत्मनि एव वशं नयेत् ।।
भावार्थ :
" यह चंचल अस्थिर मन जहाँ -जहाँ भ्रमण कर रहा हो उसे वहाँ -वहाँ से उठा कर प्रभु पर केन्द्रित रखनें का अभ्यास करते रहना
चाहिए ।"
<> मन क्या है ? <>
1- भागवत में मन सात्त्विक अहंकार की उपज है ( कपिल का सृष्टि ज्ञान -भागवत स्कन्ध - 3 ) ।
2- मन भोग और वैराज्ञके मध्य एक ऐसा ऐसा माध्यम है जो मनुष्य को एक तरफ भोग से आकर्षित रखता है और दूसरी तरफ रह -रह कर प्रभु की स्मृतिकी भी झलक दिखाता रहता है ।
<> साधनाके सभीं मार्गों का केंद्र मन
है ।साधन उसे कहते हैं जो मनको गुणोंके प्रभावसे मुक्त रखे और गुणोंके प्रभावका अर्थ है भोग तत्त्वोंका सम्मोहन ।
# मन ध्यान मात्र एक ऐसा मार्ग है जो :---
* काम से राम में
* भोग से योग में
और
* वैराज्ञ में प्रभूसे एकत्व स्थापित करता है ।
~~~ ॐ ~~~
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