Sunday, February 16, 2014

गीता मोती - 17 मन ध्यान

गीता मोती - 17
 * गीता श्लोक -6.26 * 
यतः यतः निश्चरति मनः चंचलं अस्थिरम् । 
ततः ततः नियम्य एतत् आत्मनि एव वशं नयेत् ।।
 भावार्थ : " यह चंचल अस्थिर मन जहाँ -जहाँ भ्रमण कर रहा हो उसे वहाँ -वहाँ से उठा कर प्रभु पर केन्द्रित रखनें का अभ्यास करते रहना चाहिए ।" 
<> मन क्या है ? <>
 1- भागवत में मन सात्त्विक अहंकार की उपज है ( कपिल का सृष्टि ज्ञान -भागवत स्कन्ध - 3 ) । 2- मन भोग और वैराज्ञके मध्य एक ऐसा ऐसा माध्यम है जो मनुष्य को एक तरफ भोग से आकर्षित रखता है और दूसरी तरफ रह -रह कर प्रभु की स्मृतिकी भी झलक दिखाता रहता है । 
<> साधनाके सभीं मार्गों का केंद्र मन है ।साधन उसे कहते हैं जो मनको गुणोंके प्रभावसे मुक्त रखे और गुणोंके प्रभावका अर्थ है भोग तत्त्वोंका सम्मोहन । 
# मन ध्यान मात्र एक ऐसा मार्ग है जो :--- 
* काम से राम में * भोग से योग में और * वैराज्ञ में प्रभूसे एकत्व स्थापित करता है । 
~~~ ॐ ~~~

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