Friday, February 21, 2014
गीता मोती - 18 , भागवत के 50 मूल सूत्र
1-भागवत : 7.15> वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं ; प्रवित्तिपरक और निबृतपरक । निबृतपरक कर्म मनकी बृत्तियों से नियोजित नहीं होते और प्रबृत्तिपरक कर्म मन अधीन होते
हैं ।
2- भागवत : 7.9> मोक्षके 10 साधन हैं - मौन , ब्रह्मचर्य ,शास्त्र श्रवन ,तपस्या , स्वाध्याय , स्वधर्म , सयुक्ति शास्त्र ब्याख्या , एकांत , जप , समाधि ।
3- भागवत : 8.1> कर्म में जब ब्रह्मसे एकत्व स्थापित होना नैष्कर्म की सिद्धि मिलना है ।
4- गीता -18.49 > आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है ।
5- गीता - 18.50> नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है ।
6- गीता -3.4> केवल कर्म त्याग से निष्कर्मता की प्राप्ति संभव नहीं ।
7- गीता - 18.11> शरीरधारी पूर्ण रूपेण कर्म त्याग नहीं कर सकता ।
8- गीता - 18.48> कोई ऐसा कर्म नहीं जो दोष रहित हो पर सहज कर्मों का त्याग उचित नहीं ।
9- गीता - 4.23> आसक्ति - ममता रहित कर्म करता कर्म बंधनों से मुक्त होता है ।
10-गीता -4 .18> कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म की सोच जब उठती है तब भोग कर्म योग बन जाता है ।
11-गीता -8.3>
भूत भावः उद्भवकरःविसर्गः कर्मः ।
12-गीता -3.5> मनुष्य गुणोंके प्रभाव में कर्म करता है ,एक पल भी कोई कर्म रहित नहीं रह सकता ।
13-गीता -3.27> कर्म कर्ता गुण हैं ,करता भाव अहंकार की उपज है ।
14-गीता-14.19>गुणोंको करता समझनें वाला द्रष्टा होता है जो ध्यान की आखिरी स्थिति और समाधि के आगमन की स्थिति होती है।
15-भागवत : 11.13> तीन गुणोंकी पकड़ इन्द्रिय ,मन और बुद्धि पर होती है और आत्मा केन्द्रित गुणातीत होता है ।
16- गीता 14.5> देह में आत्मा तीन गुणों के कारण रुका हुआ होता है ।
17-गीता -3.40> कामका सम्मोहन भी बुद्धि तक सीमित है ।
18-गीता - 3.37> काम का रूपांतरण क्रोध है और काम राजस गुणका मूल तत्त्व है।
19-भागवत : 2.9> मैं और मेंरा का भाव गुणों की उपज है।
20-भागवत : 3.10> ब्रह्मा प्रभुका राजस गुणी अवतार है ।
21-भागवत : 2.2> ज्ञान चित्तको वासना मुक्त रखता है ।
22-भगवत : महतत्त्व सर्वात्मा परमात्माका चित्त है ।
23-भागवत : 5.6 > योगी अपनें मन पर उतना भरोषा रखता है जितना भरोषा एक ब्याध पकडे गए हिरन पर करता है ।
24-भगवत : 5.11> इन्द्रियोंका गुलाम मौत की छाया में जीता है ।
25-भागवत : 2.1> मनको राजस - तामस गुणों की बृत्तियों से दूर रखना अभ्यास योग है।
26-गीता - 6.26> चंचल मन जिन - जिन बिषयों की ओर आकर्षित होता है उसे वहाँ -वहाँ से हटा कर प्रभु पर केन्द्रित रखो ।
27-गीता - 6.19> वायु रहित स्थान में रखे दीपक की ज्योति की स्थिति और योगीके मन की स्थिति एक जैसी होती है ।
28-गीता - 6.20> अभ्यास योग से निर्मल मन - बुद्धि वाला प्रभुमय रहता है ।
29-भगवत : 8.17 > इन्द्रियों को मन के माध्यम से वुद्धि द्वारा नियंत्रित करें ।
30-गीता 2.60> आसक्त इन्द्रियोंका मन गुलाम है ।
31- गीता : 2.67> बिषय से आकर्षित मन इन्द्रियका गुलाम होता है ।
32- गीता - 3.7> इन्द्रियोंका नियोजन मन से होना चाहिए , हठात नियोजन ठीक नहीं।
33- गीता - 3.6> मन द्वारा बिषयों से आसक्त रहना और ऊपर -ऊपर से हठात इन्द्रियों को नियंत्रित रखनें की कोशिश दम्भी बनाता है ।
34- भगवत : 11.22> पूर्व अनुभव से गुजरे बिषयों पर मन भौरों की भाँति मडराता रहता है ।
35- भागवत : 3.25> बंधन और मोक्ष दोनों का कारण मन है ।
36- भागवत : 10.1> मन विकारोंका पुंज है ।
37- भागवत : 11.22> कर्म -संस्कारोंका पुंज ,मन है ।
38-भागवत : 11.13> संसारका बिलास ,मन है ।
39-भागवत : 11.28> जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्ति और तुरीय ,मन की विभिन्न अवस्थाएं हैं ; तुरीय गुणातीत मनकी वह स्थिति है जो परम सत्यको दिखाती है ।
40-गीता 10.22> इन्द्रियाणां मनः अस्मि।
41-भागवत : 11.22>इन्द्रिय -बिषय संयोग मन में विकार पैदा करता है ।
42-गीता -5.22> इन्द्रिय - बिषय संयोग की निष्पत्ति भोग है जिसका सुख दुःख में पहुँचाता है ।
43-गीता - 18.38> इन्डिय सुख प्रारंभ में अमृत सा दिखता है पर उसका परिणाम बिष तुल्य होता है ।
44-भागवत :5.13> मनकी बृत्तियाँ : 10 इन्द्रियाँ , 5 तन्मात्र , 5 प्रकारके कर्म( पांच कर्म इन्द्रियों के अपनें - अपनें कर्म हैं ) ,देह और अहंकार ।
45-भागवत : 3.26> अन्यः करण की
बृत्तियाँ - संकल्प , निश्चय , चिंता, अभिमान।
46-भागवत : 1.3> अन्तः करण : मन , बुद्धि ,अहंकार और चित्त ।
47-भागवत : 11.22> लिंग शरीर : पञ्च कर्म , इन्द्रियाँ , मन और स्थूल देह को लिंग शरीर कहते हैं ।
48-भागवत : 10.84> कर्म वासनाओं से मुक्त कर्म ,कर्म योग है ।
49-भागवत : 4.8> असंतोष मोह की पहचान है ।
50-भागवत : 6.5> बिना भोग - अनुभव वैराग्य में उतरना कठिन है ।
~~ॐ ~~
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