Saturday, June 28, 2014

गीता मोती - 23

<> गीता - 13.30 <> 
" यदा भूत पृथग्भावम् एक स्थम् अनुपश्यति
 ततः एव च विस्तारम् ब्रह्म संपद्यते तदा " 
प्रभु कह रहे हैं :---
 " जब सब प्रभु में स्थित दिखनें लगे और सब प्रभु के विस्तार रूप में दिखनें लगे तब वह ब्यक्ति ब्रह्ममें होता है " 
 अर्थात 
 "जब कोई साधक उस स्थिति में पहुँचता है जब सम्पूर्ण प्रकृति प्रभु से प्रभु में दिखनें लगती है तब वह साधक ब्रह्मवित् हो गया होता है "
 यहाँ साधनाका एक मार्ग दिखाया गया है :--- 
" माया से मायापति की अनुभूति , मनुष्य जीवनका लक्ष्य है " । गीताके इस सूत्रको अपनें ध्यानका माध्यम बनायें ।
 ~~ हरे कृष्ण ~~

Wednesday, June 18, 2014

गीता मोती - 22

<> आसक्ति ( Attachment ) भाग - 3 <> 
^^ आसक्तिके प्रति उठा होश मनुष्यके रुखको प्रभुकी ओर मोड़ देता है । 
** आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्यता की सिद्धि मिलती है । 
** नैष्कर्म्यताकी सिद्धि ज्ञान योगकी परानिष्ठा है । 
** आसक्तिरहित कर्म समत्व योग है। 
** समत्व योग वह दर्पण है जिस पर प्रभु दिखता है ।
 ** समत्व योग अभ्यास योगका फल है ।
 ** समत्व योग में कर्म अकर्म और अकर्म कर्म की तरह दिखते हैं ।यहाँ कर्म का अर्थ है भोग कर्म और अकर्म का अर्थ है वह कर्म जिसके करनें से अन्तः करण में परम प्रकाश के होनें का भाव भरता है । 
** अन्तः करण अर्थात मन ,बुद्धि और अहंकार ।
 ** अहंकार तीन प्रकारके हैं ; सात्त्विक ,राजस और तामस । 
** तामस अहंकार से महाभूतों और बिषयों का होना है , राजस अहंकार से इन्द्रियाँ हैं और सात्विक अहंकार से मन की रचना है । ** मनुष्य के अन्दर गुण अप्रभावित मन ,चेतना और जीवात्मा - तीन ऐसे तत्त्व हैं जिनका सीधा सम्बन्ध हैं सात्विक गुण से ।
 --- हरे कृष्ण ---

Monday, June 9, 2014

गीता मोती - 21

<> ब्रह्म भाग - 1 <> 
** ब्रह्म एक ऐसा शब्द है जो हिन्दू दर्शनका नाभिक
 ( nucleus ) जैसा है । सारा हिन्दू दर्शन बिषय - इन्द्रिय से प्रारम्भ होता है और ब्रह्म तक पहुँचते - पहुँचते ब्यक्त से अब्यक्त का रूप लेने लगता है और ब्रह्म एवं ब्रह्म से आगे की यात्रा पूर्ण रूप से अब्यक्त ही है जहाँ अनुभव अनुभूति में बदल जाता है और जो साधनाका यात्री है वह अव्यक्त की अनुभूति में धीरे - धीरे घुलनें लगता है ।
 ** बिषय , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , चेतना , आत्मा , ब्रह्म और इसके आगे परम ब्रह्म या परम आत्मा तक की साधना - यात्रा कई एक पड़ाओं से गुजरती तो है लेकिन जबतक इन पड़ाओं तक सोच रहती है , तबतक वह साधक बुद्धि केन्द्रित ही रहता है और गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं :--- 
" अर्जुन ! तुम बुद्धि - योगके माध्यम से जब मन - बुद्धि से परे के आयाम में पहुँचेगा तब तुम कृष्णमय होने के आनंद में होगा ।" ** क्या है , बुद्धि - योग ? " 
** जब संसारका अनुभव इतना गहरा हो जाता है कि बुद्धिका सम्वन्ध तर्क - वितर्क से टूट जाता है और बुद्धि सात्विक रस में स्थिर हो जाती है , जहाँ कृष्णके अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता तब वह ब्यक्ति बुद्धि योग में स्थित कहा जाता है ।"
 °° ब्रह्म के सम्वन्ध में देखें अगला अंक °° 
°°° हरे कृष्ण °°°

Sunday, June 8, 2014

गीता मोती - 20

● गीता अमृत ( आसक्ति - 3 )●
** पिछले अंक में गीताके माध्यमसे बिषय - इन्द्रिय संयोगके फलस्वरुप मनमें उस बिषय के प्रति मनन उत्पन्न होता है , इस बात को देखा गया था , अब इसके आगे की स्थितिको
देखते हैं ।
** मनुष्य में एक उर्जा है जो जीवात्माके विकिरण उर्जाके रूपमें संपूर्ण लिंग शरीरके प्रत्येक कोशिका में बहती रहती है । आत्माके विकिरणका केंद्र है ,
हृदय । हृदयसे जब यह उर्जा शरीरमें प्रवाहित होती है तब इसका जगह- जगह पर रूपांतरण होनें लगता है और यह निर्विकार उर्जा धीरे - धीरे बाहर - बाहरसे सविकार हो जाती है और इसके रूपांतरणके साथ मनुष्य योगी से भोगी में बदलता चला जाता है
** ध्यान से समझने की बात है कि जीवों में मात्र मनुष्य मूलतः योगी है लेकिन मायाके आयाम और काल के प्रभाव में यह योगी से भोगी में अर्थात मनुष्य से पशुवत  ब्याहार में बदलता रहता है ।
** हृदयसे उठी जीवात्माकी विकिरण उर्जा जब इन्द्रियों से गुजरती है तब यह गुण समीकरणके प्रभाव में निर्विकारसे सविकार हो जाती है और मनुष्य अज्ञानका गुलाम होकर पशु जैसा जीवन जीनें
लगता है ।
** शेष अगले अंक में **
~~ हरे कृष्ण ~~

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