Monday, June 9, 2014

गीता मोती - 21

<> ब्रह्म भाग - 1 <> 
** ब्रह्म एक ऐसा शब्द है जो हिन्दू दर्शनका नाभिक
 ( nucleus ) जैसा है । सारा हिन्दू दर्शन बिषय - इन्द्रिय से प्रारम्भ होता है और ब्रह्म तक पहुँचते - पहुँचते ब्यक्त से अब्यक्त का रूप लेने लगता है और ब्रह्म एवं ब्रह्म से आगे की यात्रा पूर्ण रूप से अब्यक्त ही है जहाँ अनुभव अनुभूति में बदल जाता है और जो साधनाका यात्री है वह अव्यक्त की अनुभूति में धीरे - धीरे घुलनें लगता है ।
 ** बिषय , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , चेतना , आत्मा , ब्रह्म और इसके आगे परम ब्रह्म या परम आत्मा तक की साधना - यात्रा कई एक पड़ाओं से गुजरती तो है लेकिन जबतक इन पड़ाओं तक सोच रहती है , तबतक वह साधक बुद्धि केन्द्रित ही रहता है और गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं :--- 
" अर्जुन ! तुम बुद्धि - योगके माध्यम से जब मन - बुद्धि से परे के आयाम में पहुँचेगा तब तुम कृष्णमय होने के आनंद में होगा ।" ** क्या है , बुद्धि - योग ? " 
** जब संसारका अनुभव इतना गहरा हो जाता है कि बुद्धिका सम्वन्ध तर्क - वितर्क से टूट जाता है और बुद्धि सात्विक रस में स्थिर हो जाती है , जहाँ कृष्णके अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता तब वह ब्यक्ति बुद्धि योग में स्थित कहा जाता है ।"
 °° ब्रह्म के सम्वन्ध में देखें अगला अंक °° 
°°° हरे कृष्ण °°°

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