" यदा भूत पृथग्भावम्
एक स्थम् अनुपश्यति
ततः एव च विस्तारम्
ब्रह्म संपद्यते तदा "
प्रभु कह रहे हैं :---
" जब सब प्रभु में स्थित दिखनें लगे और सब प्रभु के विस्तार रूप में दिखनें लगे तब वह ब्यक्ति ब्रह्ममें होता है "
अर्थात
"जब कोई साधक उस स्थिति में पहुँचता है जब सम्पूर्ण प्रकृति प्रभु से प्रभु में दिखनें लगती है तब वह साधक ब्रह्मवित् हो गया होता है "
यहाँ साधनाका एक मार्ग दिखाया गया है :---
" माया से मायापति की अनुभूति ,
मनुष्य जीवनका लक्ष्य है " ।
गीताके इस सूत्रको अपनें ध्यानका माध्यम बनायें ।
~~ हरे कृष्ण ~~
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