Sunday, June 8, 2014

गीता मोती - 20

● गीता अमृत ( आसक्ति - 3 )●
** पिछले अंक में गीताके माध्यमसे बिषय - इन्द्रिय संयोगके फलस्वरुप मनमें उस बिषय के प्रति मनन उत्पन्न होता है , इस बात को देखा गया था , अब इसके आगे की स्थितिको
देखते हैं ।
** मनुष्य में एक उर्जा है जो जीवात्माके विकिरण उर्जाके रूपमें संपूर्ण लिंग शरीरके प्रत्येक कोशिका में बहती रहती है । आत्माके विकिरणका केंद्र है ,
हृदय । हृदयसे जब यह उर्जा शरीरमें प्रवाहित होती है तब इसका जगह- जगह पर रूपांतरण होनें लगता है और यह निर्विकार उर्जा धीरे - धीरे बाहर - बाहरसे सविकार हो जाती है और इसके रूपांतरणके साथ मनुष्य योगी से भोगी में बदलता चला जाता है
** ध्यान से समझने की बात है कि जीवों में मात्र मनुष्य मूलतः योगी है लेकिन मायाके आयाम और काल के प्रभाव में यह योगी से भोगी में अर्थात मनुष्य से पशुवत  ब्याहार में बदलता रहता है ।
** हृदयसे उठी जीवात्माकी विकिरण उर्जा जब इन्द्रियों से गुजरती है तब यह गुण समीकरणके प्रभाव में निर्विकारसे सविकार हो जाती है और मनुष्य अज्ञानका गुलाम होकर पशु जैसा जीवन जीनें
लगता है ।
** शेष अगले अंक में **
~~ हरे कृष्ण ~~

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