Monday, October 28, 2024
Wednesday, October 23, 2024
सांख्य कारिका 1 और 2
सांख्य दर्शन की कारिका : 1 - 2
दुःख त्रय अभिघात् जिज्ञासा तद् अपघातक हेतौ
दृष्टे स अपार्था च — एकान्त अत्यंत अभावत्
तीन प्रकारके दुःख हैं , इन दुःखों से अछूता रहने की जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है । उपलब्ध उपायों से इन दुःखों से पूर्ण रूप से मुक्त होना संभव नहीं क्योंकि उपलब्ध साधनों से अस्थाई रूप में दुःखों से मुक्ति मिल पाती है ।
कारिका - 2
द्रष्टवत् अनुश्रविक स ह्य विशुद्धि क्षय अतिशय युक्त
तत् विपरित श्रेयां व्यक्त अव्यक्तज्ञ विज्ञानात्
अनुश्रविक उपाय ( दुःख निवारण हेतु वैदिक उपाय जैसे यज्ञ आदि करना ) भी दृश्य उपायों (अन्य उपलब्ध उपायों ) की ही भाँति हैं । वैदिक उपाय अविशुद्धि क्षय - अतिशय दोष से युक्त हैं अतः तीन प्रकार के दुखों से मुक्त बने रहने का केवल एक उपाय है और वह अव्यक्त ( प्रकृति ) और ज्ञ ( पुरुष ) का बोध होना । तीन गुणों की साम्यावस्था को अव्यक्त या मूल प्रकृति कहते हैं ।
अब ऊपर दी गई कारिका 1 और 2 को विस्तार से समझते हैं 🔽
निम्न 03 प्रकार के दुःख हैं ⤵️
# आध्यात्मिक # आधिभौतिक # आधिदैविक
1 - आध्यात्मिक दुःख (दैहिक ताप )
◆ जिस दुःख का कारण हम स्वयं होते हैं , वह आध्यात्मिक दुःख है ।बकर्म तत्त्वों एवं त्रिदोषों से मिलने वाले दुःख आध्यात्मिक दुःख होते हैं । यह दुःख मानसिक एवं शारीरिक दो प्रकार का है । इस दुःख से मनुष्य एवं देवता सभीं त्रस्त हैं । इस श्रेणी के दुःख के हेतु कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , भ्रम , संदेह , आलस्य एवं अहंकार हैं , जिन्हें कर्म तत्त्व भी कहते हैं । त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ के असंतुलन से उत्पन्न शारीरिक रोगों से जो दुःख मिलता है , वह भी आध्यात्मिक दुःख ही होता है ।
बहुत कठिन है ,स्वयं के दुःख का , स्वयं को कारण समझना क्योंकि स्वयं को कारण समझते ही अहं की मृत्यु हो जाती हैं और मनुष्य या तो मानसिक डिप्रेशन में आ जाता है या फिर इंद्रियातीत आनंद में रहता है । पहली अवस्था अविद्या के कारण उत्पन्न होती है और दूसरी अवस्था तब आती है जब योगी योगाभ्यास में प्रकृतिलय एवं अस्मितालय की सिद्धि प्राप्त कर लिया होता है । प्रकृतिलय और अस्मितालय के किए पतंजलि समाधिपाद सूत्र : 17 - 19 को समझना होगा ।
2 - आधिदैविक दुःख (दैविक ताप )
जिस दुःखका कारण प्रकृति ( दैव )होती है , उस दुःख को आधि दैविक दुःख कहते हैं जैसे भूकंप , अति वृष्टि आदि जैसी घटनाओं से मिलने वाले दुःख , उस श्रेणी के दुःख हैं।
3 - आधिभौतिक दुःख (भौतिक ताप )
◆ वह दुःख जो अन्य जीवोंसे मिलता है , आधिभौतिक कहलाता है ।
श्रीमद्भागवत पुराण 1.5 में कहा गया है …
“ प्रभु समर्पित कर्म संसार में व्याप्त तीन प्रकार के तापों की औषधि होते हैं “
सांख्य दर्शन में ऊपर व्यक्त कारिका 1 और 2 कह रहे हैं , पुरुष - प्रकृति का बोध अर्थात तत्त्व जिन से तीन प्रकार के दुखों के मुक्त रहा जा सकता है ।
पतंजलि योग दर्शन कहता है , जबतक कैवल्य नहीं मिलता , चित्त केंद्रित पुरुष सुख - दुःख को भोगता रहता है और पुरुष को कैवल्य दिलाने हेतु लिंग शरीर आवागमन करता रहता है । मन , बुद्धि , अहंकार , 10 इंद्रियां और 05 तन्मात्रो के समूह को सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर कहते हैं जो त्रिगुणी प्रकृति के त्रिगुणी तत्त्व हैं ।
~~ ॐ ~~
Wednesday, September 25, 2024
श्रीमद्भागवत पुराण में गंगा रहस्य भाग - 01
श्रीमद्भागवत पुराण आधारित गंगा रहस्य भाग - 01
( भागवत स्कंध : 3.11, 8.1,12.4 , 9.9 + गीता 8.16 - 8.20 )
भागवत पुराण के आधार पर गंगा रहस्य में प्रवेश करने से पहले इस विषय से संबंधित कुछ ऐसे तथ्यों को स्पष्ट किया जा रहा हैं जिनको समझ लेने के बाद गंगा जी की अनंत से अनंत की यात्रा को सरलता से समझा जा सकेगा ।
🛕 ब्रह्मा का एक दिन कल्प कहलाता है जो 4.32 billion years का होता है । कल्प के अंत में नैमित्तिक प्रलय होती है जिसे श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक : 8.16 - 8.20 में निम्न प्रकार से स्पष्ट किया गया है ….
सभीं लोक पुनरावर्ती हैं । पृथ्वी सहित पृथ्वी के ऊपर 07 लोक हैं , इनके संबंध में अंक - 3 में बताया जाएगा।
सभीं जीव एवं सूचनाएं ब्रह्मा के दिन के प्रारंभ में ब्रह्म के सूक्ष्म शरीर के उत्पन्न होती हैं और रात्रि आगमन पर ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में इन सबका लय हो जाता है । पुनः जब ब्रह्मा का दिन निकलता है तब सभीं जीव एवं सूचनाएं पुनः पूर्ववत अपनें - अपनें स्वरूपों में प्रकट होते हैं । ब्रह्मा का एक दिन अर्थात एक कल्प 14 मनुओं का समय होता है । एक मनु का समय 0.308 million years का होता है ।
ब्रह्मा पुत्र मरीचि हैं और मरीचि पुत्र कश्यप ऋषि हैं । कश्यप पुत्र विवस्वान (सूर्य ) हैं और सूर्य के पुत्र 7 वे मनु श्राद्ध देव जी है जो वर्तमान के मनु हैं ।श्राद्ध देव जी के बड़े पुत्र इक्ष्वाकु हुए । इक्ष्वाकु पुत्र विकुक्षी बंश में सगर हुए जिनके 60,000 पुत्र गंगा सागर में कपिल मुनि द्वारा भस्म कर दिए गए थे । सगर की दूसरी पत्नी के वंश में अंशुमान के पुत्र दलीप हुए जिनके पुत्र भगीरथ हुए ।
भस्म हुए परिवार जनों की आत्माओं की मुक्ति के लिए गंगा जी को लाने के लिए भगीरथके दादा अंशुमान एवं पिता दलीप दोनों घोर तप किए लेकिन सफल न हो सके ।
भगीरथ की तपस्या जब फलित हुई तब गंगा प्रकट हुई और बोली , भगीरथ ! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ , बर मांग । भगीरथ गंगा से मृत्युलोक ( पृथ्वी लोक ) में उतरने की प्रार्थना की । गंगा कहती हैं , मैं पृथ्वी पर नहीं उतरना चाहती क्योंकि लोग अपनें - अपनें पाप मुझमें धोएंगे फिर मैं उन पापों से कैसे मुक्त हो पाऊंगी ? भगीरथ कहते हैं , माता ! आप के तट पर सिद्धों का निवास होगा , आप उनके दैनिक जीवन के लिए जल श्रोत होंगी और उनके स्पर्श से आपकी निर्मलता बनी रहेगी अतः आप से अनुरोध है कि आप मेरे संग चलें ।
भागवत की उस कथा के अनुसार गंगोत्री से निकलने वाली भागीरथी मूल गंगा होनी चाहिए लेकिन अगले अंक में भागवत - 5.17 के आधार पर दिए गए विवरण में आप देखेंगे कि मूल गंगा अलकनंदा हैं।
~~ ॐ ~~
Monday, June 3, 2024
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 का सार
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 07 सार
इस अध्याय में 30 श्लोक हैं और सभीं श्लोक प्रभु श्री कृष्ण के हैं । यहां प्रभु श्री कृष्ण वक्ता हैं और अर्जुन श्रोता हैं…..
# हजारों मनुष्यों में कोई एक मनुष्य मुझे प्राप्त करने की साधना को सिद्ध कर पाता है और जो सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं उनमें कोई एक मुझे तत्त्व से जान पाता है ( श्लोक - 3 )) ।
# 05 महाभूत , बुद्धि , अहंकार एवं मन इन 08 तत्त्वों वाली अपरा प्रकृति एवं इसके अलावा जीवरूपा जगत को धारण करने वाली परा प्रकृति से सभी भूतों की उत्पत्ति होती है (श्लोक : 4 - 6 ) ।
# यह संसार एक माले जैसा है जिसकी मणियां सभी सूचनाएं हैं और सभी मणियों को जोड़ने वाला सूत्र मैं हूं ( सूत्र - 7 ) ।
# जल में रस , चंद्रमा - सूर्य में प्रकाश , वेदों में प्रणव ( ॐ) , महाभूतों के पांच तन्मात्र , पुरुषों का पुरुषत्व , तप , सभी ब्रह्मांड की सूचनाओं का सनातन बीज , बुद्धि , तेजस्विवों में तेज , शक्तिशालियों में कामना रहित शक्ति और धर्मानुकूल काम , मैं हूं।
# तीन गुणों के भाव मुझसे उत्पान हुआ जानो लेकिन उन भावो में मैं नहीं रहता ( श्लोक - 12 ) । तीन गुणों के भावों से भावित गुणातीत मुझ अव्यय को नहीं समझ पाते ( श्लोक - 13 ) ।
मेरे भक्त मेरी त्रिगुणी माया से मुक्त हो कर मुक्त हो जाए हैं (श्लोक - 14 ) । # प्रभु के भक्त चार प्रकार के हैं - अर्थार्थी , आर्त, जिज्ञासु एवं ज्ञानी अर्थात क्रमशः सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति की चाह वालें, दुखों से मुक्ति चाहने वाले , मुझे यथार्थ रूप में जानने वाले और ज्ञानी लोग
( श्लोक - 16 ) । ज्ञानी मेरे जैसा होता है ( श्लोक - 17 ) ।
# अनेक जन्मों की तपस्यायों का फल ज्ञान प्राप्ति है
( श्लोक - 19) और ज्ञानी दुर्लभ होते हैं ।
# देवताओं की पूजा देवताओं तक पहुंचाती है और मुझ निराकार की पूजा मुझसे मिला देती है ( श्लोक : 23 , 24 ) ।
# अज्ञानी मुझे नहीं देख सकते ( श्लोक : 25)।
गीता को आधार बना कर साधना करने वाले साधकों के लिए ऊपर व्यक्त गीता अध्याय - 07 का सार पर्याप्त है ।
।।। ॐ।।।
Tuesday, May 28, 2024
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 6 का सार
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 6का सार ..
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 6 का केंद्र मन है । मन ही बंधन एवं मोक्ष का माध्यम है । श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 6 में 47 श्लोक हैं, जिनमें अर्जुन के 5 श्लोक तथा प्रभु श्री कृष्ण के 42 श्लोक है । अर्जुन प्रभु की बातों कोसुनने के बाद कहते हैं ,
“ मन की चंचलता के कारण मैं आपकी बातों को समझ नहीं पा रहा अतः आप कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे मेरा मन शांत हो सके । अर्जुन या जानना चाह रहे है कि जब एक असंयमी पर श्रद्धावान योगी की योग साधना खंडित हो जाती है और उसकी मृत्यु हो जाती है तब उसकी गति किस प्रकार की होती है ? “ प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन की बातों को सुनने के बाद कह रहे हैं , “ निरंतर बिना किसी रुकावट योगाभ्यास करते रहने से वैराग्य मिलता है और वैराग्य से मन शांत रहता है , पतंजलि योग दर्शन का प्रारंभिक सूत्र कहता है , चित्त वृत्ति निरोध ही योग है । यहां बुद्धि , अहंकार और मन के समूह को चित्त कहते हैं ।
ऐसा योगी जिसकी मृत्यु वैराग्यवस्था से पहले होती है , वह किसी उत्तम कुल में जन्म ले कर अपनी अधूरी योग यात्रा को आगे बढ़ाता है । वैराग्यावस्था की सिद्धि प्रात योगी , योग खंडित होने पर यदि उसकी मृत्यु हो जाती है तब वह सीधे जन्म न लेकर पहले स्वर्ग में पहुंचता है , वहां स्वर्ग के भोगों को भोगने के बाद पुनः अच्छे कुल में जन्म ले कर नए साधक की भांति योग साधन शुरू करता हैं ।
अब गीता अध्याय - 6 के ध्यानोपयोगी सूत्रों को देखते हैं ..
# संन्यासी,योगी , वैरागी एवं त्यागी एक दूसरे के संबोधन है जो संकल्प रहित , समभाव और कर्म बंधनों से मुक्त रहते हुए निष्काम कर्म करते रहते हैं । जो अपनें मन का गुलाम है , वह स्वयं का दुश्मन है । श्लोक : 11 - 23 में ध्ध्यान का अभ्यास करने वालों के लिए कुछ सावधानियां बताई गई हैं जिससे अवरोध मुक्त ध्यान किया जा सके। ज्ञान - विज्ञान का बोधी ईश्वर दर्शन का अधिकारी होता है। दुःख संयोग वियोगम् योग: । ध्यान अभ्यास में जब भी मन ध्यान के सात्त्विक आलंबन से हट कर किसी अन्य विषय पर केंद्रित होने लगे तब उसे वहां से हटा कर पुनः सात्त्विक आलंबन कर केंद्रित बनाए रखने का अभ्यास ही अभ्यास योग है । अभ्यास योग की सिद्धि से वैराग्य मिलता है । वैरागी ज्ञान एवं विज्ञान का बोधी होता है । बुद्धि स्तर पर वस्तुओं को समझना ज्ञान है और ब्रह्मांड सहित उसकी सभी सूचनाओं को ब्रह्म से उत्पन्न समझना , विज्ञान है ।
।। ॐ।।
Saturday, March 30, 2024
गीता श्लोक : 8.3 में अध्यात्म एवं स्वभाव
श्रीमद्भगवद्गीता में अध्यात्म क्या है ?
यहां श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक : 8.3 को देखना होगा जो निम्न प्रकार है ⬇️
अक्षरम् ब्रह्म परमं स्वभाव: अध्यात्मम् उच्यते।
भूत भावः उद्भव करः विसर्गः कर्म सज्ज्ञित: ।।
गीता श्लोक : 8.3 में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं, “ स्वभाव को अध्यात्म कहते हैं “ । अब स्वभाव को समझने के लिए निम्न संदर्भों को देखते हैं ⤵️
# गीता श्लोक : 3.27 , 3.28 , 3.33
# श्रीमद्भागवत पुराण > 3.26 : कपिल एवं मां देवहूति वार्ता
# श्रीमद्भागवत पुराण > 11.25.1 : श्री कृष्ण - उद्धव वार्ता
ऊपर दिए गए गीता के 03 श्लोकों एवं भागवत पुराण के 02 श्लोकों के आधार पर स्वभाव और अध्यात्म का संबंध कुछ निम्न प्रकार है ⤵️
मनुष्य के अंदर हर पल बदल रहे सात्त्विक , राजस एवं तामस गुण उपस्थित रहते हैं । इन तीन गुणों में से एक गुण शेष दो गुणों को दबा कर प्रभावी होता है । जो गुण जिस काल में प्रभावी होता है वह मनुष्य वैसा उस काल में कर्म करता है और कर्म के फल स्वरूप में उसे सुख / दुख को भोगना पड़ता है ।
सात्त्विक गुण के प्रभाव में सत् कर्म , राजस गुण के प्रभाव में भोग कर्म और तामस गुण के प्रभाव में मोह ,भय एवं आलस्य से संबंधित कर्म होते हैं । इस प्रकार गुण समीकरण के आधार पर मनुष्य का स्वभाव बनता है । जैसे - जैसे गुण बदलते हैं , वैसे - वैसे स्वभाव भी बदलता रहता हैं । स्वभाव से मनुष्य कर्म करता है । वस्तुतः मनुष्य के अंदर तीन गुण कर्म करता हैं और कर्म करता का भाव अहंकार की उपज है ( गीता : 3.27 ) । गुण विभाग और कर्म विभाग का विस्तार से वर्णन वेदों में भी मिलता है जैसा गीता
श्लोक : 3.28 में व्यक्त किया गया है ।
## ॐ ##
Sunday, March 17, 2024
साधना में समाधि एक रहस्य है
समाधि ( Trance ) एक अनुभूति है
(भाग - 01)
नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद जी Jan.1863 - july 1902 ) , सन् 1881 - 82 में कोलकाता स्कॉटिश चर्च कॉलेज में F. A . ( 11 - 12 वीं ) के विद्यार्थी थे । उनके अध्यापक Mr . william Hostie , William Wordsworth की कविता excursion में trance ( समाधि ) शब्द का अर्थ स्पष्ट कर रहे थे । इस संदर्भ में वे समाधि ( trance) शब्द की परिभाषा निम्न प्रकार दिए थे ⤵️
" A half conscious state characterized by an absence of response to external stimuli , typically as induced by hypnosis or entered by a medium . "
“ सम्मोहन जैसी अर्ध चेतन अवस्था जिसमें आने के बाद शरीर शुन्यावस्था में बाहरी क्रियाओं के प्रति संवेदनशून्य हो गया हो ,, उस अवस्था को समाधि कहते हैं “
साधारण भाषा में समाधि में साधक का स्थूल शरीर शुन्यावस्था में होता है जो अपनें ऊपर बाहर से होने वाली क्रियाओं के प्रति संवेदनशील नहीं रहता ।
Mr . समाधि के संबंध में Mr william Hostie आगे कहते हैं , यदि तुम सब trance शब्द को ठीक से समझना चाहते हो तो दक्षिणेश्वर मंदिर जाओ और वहां रामकृष्ण को देखो जिन्हें दिन में कई बार समाधि लगती रहती है । यहां ध्यान में रखना होगा कि परमहंस जी 1886 में देह त्याग दिए थे । नरेंद्र नाथ ( विवेकानंद ) वहां गए लेकिन रामकृष्ण से प्रभावित नहीं हुए और लौट आए ।
स्वामी विवेकानंद से संबंधित इस घटना के संबंध में अभीं इतना ही , लेकिन इस आधार पर समाधि के संबंध में पतंजलि योग सूत्र दर्शन में व्यक्त समाधि को समझने की कोशिश में हम आगे बढ़ते हैं ।
पतंजलि योग दर्शन में निम्न तीन समाधियों के संबंध में प्रकाश डाला गया है ….
1- संप्रज्ञात समाधि ( विभूतिपाद सूत्र - 3 )
2- असंप्रज्ञात समाधि ( समाधिपाद सूत्र : 51 )
3- धर्ममेघ समाधि ( कैवल्यपाद सूत्र - 29 )
अभीं इन समाधियों के संबंध में में विचार नहीं करते लेकिन आगे के अंकों में इन समाधियों को देखा जा सकेगा । अभीं हम स्थूल रूप में समाधि को समझने की कोशिश करते हैं । मंत्र जप , नाम जप , ध्यान , सुमिरन , पूजा , पाठ , हवन , यज्ञ , अष्टांगयोग अभ्यास , हठ योगाभ्यास आदि जैसी साधनाओं स्थूल लक्ष्य समाधि सिद्धि का होता है । जब साधक को एक बार समाधि लग जाय फिर वह इस समाधि के लिए कस्तूरी मृग जैसा हो जाता है और यही चाहता है कि उसे समाधि से बाहर न आना पड़े । आखिर समाधि में उसे ऐसा क्या मिलता होगा कि उसे उसे बार - बार पाने के लिए वह बेचैन रहने लगता है !
अगले अंक में समाधि की इस यात्रा के अगले दृश्य को देखेंगे , अभीं इतना ही ।
~~ ॐ ~~
Thursday, March 14, 2024
वेदांत का ब्रह्म और सांख्य का पुरुष
श्रीमद्भगवद्गीता और सांख्य दर्शन
भाग - 01 > गीता का ब्रह्म और सांख्य का पुरुष
पहले श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न 04 श्लोकों को देखते हैं …
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक : 13.13 - 13.16
सर्वतः पाणि पादम् तत् सर्वतः अक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमत् लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति ।। 13.13 ।।
उसके हाथ , पैर , नेत्र , सिर , मुख और कान सर्वत्र हैं । वह सबको व्याप्त करके स्थित है ।
सर्वेंद्रिय गुणाभासम् सर्व इंद्रिय विवर्जितम् ।
सक्तम् सर्वभृत् च एव निर्गुणमृ गुणभोक्तृ च।। 13.14 ।।
इंद्रिय रहित है लेकिन सभीं इंद्रियों के विषयों को जानने वाला है । वह आसक्ति रहित हो कर भी सबका धारण - पोषण करने वाला है । वह निर्गुण होते हुए भी गुणों को भोगनेवाला है ।
बहि: अंतः च भूतानाम् अचरम् चरम् एव च ।
सूक्ष्मत्वात् तत् अविज्ञेयम् दूरस्थम् च अंतिके च तत्।।13.15।।
वह सभिन चर - अचर के अंदर , बाहर है , वही चर - अचर है और वह सर्वत्र है तथा अति सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय है ।
अविभक्तम् च भूतेषु विभक्तम् इव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तत् ज्ञेयम् ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।। 13.16।।
वह अविभक्त होते हुए भी सभीं भूतों में विभक्त सा स्थित है। वह धारण - पोषण करता है और जानने योग्य है । वह रुद्र रूप में सबका संहार करता है एवं ब्रह्मा रूप में सबको उत्पन्न करता भी है। ऊपर दिए गए भावार्थ के आधार पर ब्रह्म निर्गुण एवं त्रिगुणी पदार्थों का भोक्ता है । वह इंद्रिय रहित है लेकिन इंद्रियों के विषयों को समझता है । उससे संधि चर - अचर हैं और वही सभीं चर - अचर भी है ।
उसके हाथ , पैर , नेत्र , सिर , मुख और कान सर्वत्र हैं । वह सबको व्याप्त करके स्थित है । सबका जन्म , जीवन और मृत्यु का कारण ब्रह्म है । वह अतिसूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय भी है ।
अब सांख्य दर्शन के पुरुष को समझते हैं ।
संबंधित संख्या कारिकाएँ > 3 ,9 ,10 , 11 , 15 - 22 , 32 , 41 , 42 , 52 - 60 , 62 - 68
सांख्य दर्शन द्वैत्यबादी दर्शन है । सांख्य में पुरुष - प्रकृति दो स्वतंत्र सनातन तत्त्व हैं । पुरुष शुद्ध चेतन एवं निर्गुण तत्त्व है जैसे ब्रह्म है और प्रकृति अचेतन , जड़ और त्रिगुणी तत्त्व है । तीन गुणों की साम्यावस्था को मूल प्रकृति कहते है । जब प्रकृति का संयोग पुरुष से होता है तब वह विकृत होती है और विकृत होने के फलस्वरूप बुद्धि की उत्पत्ति होती है । बुद्धि से अहंकार तथा अहँकार से 11 इंद्रियों एवं पांच तन्मात्रों की उत्पत्ति होती है । 05 तन्मात्रों से उनके अपने - अपने महाभूतों की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार प्रकृति के 23 त्रिगुणी तत्त्वों में प्रथम तीन तत्त्वों ( बुद्धि + अहंकार + मन ) को चित्त कहते हैं जो प्रकृति - पुरुष की संयोग भूमि है । प्रकृति के 23 तत्त्व जड़ तत्त्व हैं लेकिन पुरुष ऊर्जा की उपस्थिति में ये चेतन जैसा व्यवहार करते हैं । पुरुष सर्वज्ञ तो है लेकिन उसे अपने ज्ञान का कोई अपना अनुभव नहीं । पुरुष अनुभव हेतु प्रकृति से जुड़ता है और जबतक उसका अनुभव उसे भोग से वैराग्य में नहीं पहुंचा पाता , वह प्रकृति से मुक्त नहीं हो पाता । प्रकृति के 23 तत्त्वों में से 05 महाभूतों को छोड़ शेष 18 तत्त्वों के समूह को सूक्ष्म या लिंग शरीर कहते हैं । लिंग शरीर तबतक आवागमन में रहता है जबतक पुरुष को कैवल्य नहीं मिल जाता , इस प्रकार प्रकृति के 23 तत्त्व पुरुष के लिए कैवल्य हेतु हैं ।
भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि , समाधि में स्व बोध और स्व बोध में कैवल्य जो मोक्ष का द्वार है , की प्राप्ति के साथ चित्ताकार पुरुष अपने मूल स्वरूप में आ जाता है और विकृति प्रकृति के तत्त्वों का अपनें - अपनें कारणों में लय हो जाता है और विकृत प्रकृति तीन गुणों की साम्यावस्था में आ जाती है जो उसका मूल स्वरूप है । प्रकृति , पुरुष को उसके संसार के अनुभव में अपनें 23 तत्त्वों की मदद से सहयोग करती है।
श्रीमद्भगवद्गीता का ब्रह्म और सांख्य दर्शन का पुरुष दोनों एक तत्त्व के संबोधन हैं जो निर्गुण , निराकार और शुद्ध चेतन तत्त्व है । सूक्ष्म और निराकार होने के कारण वह स्वत: कुछ करने में असमर्थ होता है जबकि वह सर्वज्ञ होता है । जैसे सांख्य का निर्गुण एवं चेतन पुरुष अचेतन , जड़ एवं त्रिगुणी प्रकृति से संयोग करता है और संसार का अनुभव प्राप्त करता है वैसे गीता का निर्गुण , निराकार एवम चेतन ब्रह्म अपनी जड़ , अचेतन एवं त्रिगुणी माया माध्यम से देह में जीवात्मा के रूप में त्रिगुणी पदार्थों का भोक्ता होता है । देह में जीवात्मा को छोड़ शेष जो भी है , वह माया है ।
सांख्य और वेदांत दर्शन ( श्रीमद्भगवद्गीता ) एक ही बात को अलग - अलग ढंग से कह रहे हैं
~~ ॐ ~~