गीता श्लोक 18.2 कहता है -----
" काम्यानां कर्मणाम् न्यासं इति संन्यासं "
अर्थात
काम्य कर्मों का त्याग ही कर्म संन्यास है
क्या हैं काम्य कर्म ?
काम्य शब्द काम से बनता है और काम से कामना शब्द का जन्म होता है / ऐसे कर्म जिन केहोनें के पीछे किसी न किसी तरह भोग - भाव छिपा हो उनको काम्य कर्म कहते हैं , यह बात गीता में तब दिखती है जब गीता में बसेरा बना लिया गया हो /
आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहँकार - ये हैं गुण तत्त्व जिनको कर्म बंधन भी कहते हैं ; जब इन में से किसी एक के सहारे कोई कर्म होता है तब उस कर्म को काम्य कर्म कहते हैं चाहे वह कर्म पूजा सम्बंधित ही क्यों न हो /
वहाँ जहाँ चाह है
वहाँ प्रभु की राह बंद रहती है
और
मनुष्य जब चाह रहित होता है तब सामनें प्रभु का द्वार खुला हुआ दिखता है /
==== ओम् ======
" काम्यानां कर्मणाम् न्यासं इति संन्यासं "
अर्थात
काम्य कर्मों का त्याग ही कर्म संन्यास है
क्या हैं काम्य कर्म ?
काम्य शब्द काम से बनता है और काम से कामना शब्द का जन्म होता है / ऐसे कर्म जिन केहोनें के पीछे किसी न किसी तरह भोग - भाव छिपा हो उनको काम्य कर्म कहते हैं , यह बात गीता में तब दिखती है जब गीता में बसेरा बना लिया गया हो /
आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहँकार - ये हैं गुण तत्त्व जिनको कर्म बंधन भी कहते हैं ; जब इन में से किसी एक के सहारे कोई कर्म होता है तब उस कर्म को काम्य कर्म कहते हैं चाहे वह कर्म पूजा सम्बंधित ही क्यों न हो /
वहाँ जहाँ चाह है
वहाँ प्रभु की राह बंद रहती है
और
मनुष्य जब चाह रहित होता है तब सामनें प्रभु का द्वार खुला हुआ दिखता है /
==== ओम् ======
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