Tuesday, November 26, 2013

गीता मोती - 10

● भक्ति ●
1-भक्ति कहीं मिलती नहीं , भक्ति मनुष्यका मूल स्वभाव है जो कालके प्रभावमें स्वतः फूटती है , जल प्रपातकी तरह ।
2- भक्त प्रकृतिमें जो देखता है उसे प्रभुकी रचनारूप में देखता है और रचनामें रचनाकार को समझ लेता है लेकिन भोगी जो भी प्रभुकी रचना देखता है वह उसपर अपनी मोहर लगाकर देखता है । भोगीकी यह बेहोशी भरी सोच उसे प्रभुसे दूर रखती है तथा भक्त प्रभुमें बसेरा पाजाता है ।
3- भक्तकी बुद्धमें सोच नहीं होती ,चाह नहीं होती और भोगी सोच -चाह बिना स्वयंको मुर्दा समझता
है ।
4- भोग दुनियामें सोच और चाह आगे बढनें के मूल तत्त्व हैं और प्रभु मार्गी के लिए ये अवरोध हैं ।
5- भोगी आँखें खोल कर जो नहीं देख पाता ,भक्त उसे आँखें बंद करके देख लेता है ।
6- भोग दुनियामें भोगी का भार इतना अधिक होजाता है की अंत समयमें उसे कहीं जाना नहीं
पड़ता , आस -पासमें ही उसे किसी अन्य जीव की योनि मूल जाती है और भक्त अंत समय तक अपनेंको हवा जैसा हल्का कर लेता है और इशारा मिलते ही प्रभुसे मिल जाता है ।
7- भक्तके लिए द्वैत्यकी भाषा नहीं होती , वह दुःख से सुख ,रातसे दिन,गरीब से अमीर और दानव से देवको नहीं समझता , वह तो सबको उसका ही अंशरूप में देखता है ।
8- भागवत : 7.1.27 : युधिष्ठिर नारदको बता रहे है > मनुष्य वैरभावमें प्रभु से जितना तन्मय हो जाता है भक्ति योग से उतनी तन्मयता नहीं मिल पाती ।
9- गीता -18.54-18.55 > समभाव पराभक्तिकी पहचान है और पराभक्त प्रभु जो तत्त्वसे सामझता है । 10- गीता -9.29> पराभक्त मुझमें और मैं उसमें रहता हूँ ,कृष्ण कह रहे हैं ।
11- गीता -6.30 > समभावसे सबमें प्रभु के होनें की समझ ,निराकार प्रभुको साकार में दिखाती है । 12- गीता -10.7> अभ्यास योग से विभूतियोंका बोध अविकल्प योग है ।
13- साकार उपासना निराकारका द्वार खोलती है । 14- निराकारकी तन्मयता समाधिमें पहुँचाती है । 15- समाधि ब्रह्म और मायाके एकत्व की अनुभूति
है ।
16- समाधिकी अनुभूति अब्यक्तातीत होती है ।
17-गीता - 12.3-12.4 > अब्यक्त -अक्षरको भजनें वाले प्रभुको प्राप्त करते हैं ।
18-परमात्मा मिले तो कैसे मिले ? हम स्व निर्मितमें उसे कैद तो करना चाहते हैं लेकिन बिना कुछ किये ,यह कैसे संभव है ?
19 -उसका निर्माण हम करते हैं ,विभिन्न रूप उसे देते हैं ,विभिन्न तरीकोंसे उसे अपनी ओर खीचना चाहते हैं लेकिन अपनी बुद्धिको अपनें हृदय के साथ नहीं जोड़ पाते , फलस्वरुप सदैव चूकते रहते हैं और मैं और तूँ की दूरी कम नहीं हो पाती ।
20- भक्ति का रस सत है ।
~~ ॐ ~~

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