<> आसक्तिका अंत सत्संग से संभव है <>
* भागवत : 1.2 *
# इन्द्रिय -बिषय संयोग से मन में मनन उठता है । मनन से उस बिषय के प्रति आसक्ति बनती है । आसक्ति कामना का बीज है । कामनाके टूटने का भय क्रोध पैदा करता है और क्रोध वह उर्जा रखता है जो सर्वनाश कर सकती है #
~ गीता - 2.62-2.63 ~
<> अब आगे <>
^ आसक्ति का न उठना सत्संग का फल है । सत्संग प्रभु का प्रसाद है , कोई कृत्य नहीं , कृत्यों का फल है जो तब मिलता है जब :---
* भोग बंधनों से मुक्त कर्म हो रहे हो ।
* कर्म के होनें के पीछे नकारात्मक या सकारात्मक अहंकार न छिपे हों ।
> और <
ऐसे भोग कर्म कर्म योग कहलाते हैं ।
^ जब भोग कर्म , कर्म योग बन जाते हैं तब मन मल रहित हो जाता है और एक साफ़ दर्पण सा बन जाता है जिस पर जो कुछ भी होता है वह चेतना का साकार होता है और जिसका द्रष्टा समाधि में प्रवेश कर रहा होता है ।
~~ ॐ ~~
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