Tuesday, May 13, 2014

गीता अमृत ( दो शब्द )

दो शब्द : जब - जब गीताके सम्बन्धमें कुछ कहना चाहता हूँ , ऐसा लगनें लगता है जैसे कोई मुझे रोक रहा हो और यह कह रहा हो कि मुर्ख ! यह क्या करनें जा रहे हो ? * क्या जो कुछ तुम लोगोंको बतानें की तैयारी कर रहे हो , उसे स्वयं ठीक -ठीक समझ पाए हो ? और समझो भी तो कैसे ? तुम्हारे पास समझनेंका कौन सा साधन है ? जिसे तुम साधन समझ बैठे हो ,वह संदेह -अहंकार आश्रित है और इन दो तत्त्वोंके होते समझना संभव नहीं ,फिर ? * क्या तुम्हें यह पक्का यकीन है कि तुम जिस बीज को बोना चाह रहे हो वह पूरी तरह से पक चुका है ? अगर पका नहीं तो उसे जल्दी में क्यों उगाना चाह रहे हो ? * इस प्रकार कुछ और मौलिक प्रश्न मेरे मन -बुद्धि पर दूब घासकी तरह छा जाते है और मैं इस सम्बन्धमें आगे नहीं चल पाता लेकिन आज हिम्मत करके दो -एक कदम चलनें की कोशिश में हूँ और उम्मीद है कि इस मूक गीता -यात्रामें आप मेरे संग प्रभु की उर्जाके रूप में रहेंगे । आइये ! अब हम और आप गीताकी इस परम शून्यताकी यात्रामें पहला कदम उठाते हैं और यदि यह पहला कदम ठीक रहा तो अगले कदम स्वतः उठते चले जायेंगे । <> गीतामें सांख्य योगके माध्यमसे कर्म-योगकी जो बातें प्रभु अर्जुनको बताते हैं , उन्हें जीवनमें अभ्यास करनेंसे सत्यका स्पर्श होता है लेकिन तर्कके आधार पर उन पर सोचना अज्ञानके अन्धकार में पहुँचाता है । <> गीता जैसा कहता है , वैसा बननेंका अभ्यास करो , गीता जिस  भोग - तत्त्वके सम्बन्ध में जो बात कहता है ,उसे अपनें जीवन में देखो और उस मार्ग पर चलो जिस मार्ग पर गीता चलाता है । <> भोगको परम समझता हुआ मनुष्य भोगके रंग में रंगता चला जा रहा है , भोगका नशा उसे किधर जाना था और किधर जा रहा है की सोचको खंडित कर देता है और भोगमें सिमटा मनुष्य आवागमनके चक्रमें उलझ कर रह जाता है । <> वह गीता प्रेमी जिसे गीता पढनेंकी कला आजाती है फिर उसकी पीठ भोग की ओर होनें लगती है , उसकी नज़रों में कृष्ण बसने लगते हैं , धीरे - धीरे वह संन्यासकी ओर सरकनें लगता है और प्रभुसे प्रभुमें अपनेंको देखता हुआ ब्रह्मवित् हो जाता है । <> गीता मनुष्यको वह उर्जा देता है जिसके प्रभावमें मनुष्य परमके रहस्यका द्रष्टा बन कर प्रभुके रहस्य में अपनेंको समेटे हुए आवागमनकी राह से मुक्त हो कर परम पद की ओर चल पड़ता है । ^^ गीता और आप जब दो एक बन जायेगे तब आपकी यह सोच कि आप गीता - यात्रा के दैरान क्या खोये ? और क्या पाए ? स्वतः निर्मूल हो उठेगी और आप बन गए होंगे निर्ग्रन्थ ।निर्ग्रन्थ होना तीर्थंकर बनाता है और तीर्थंकर प्रभुका प्रतिबिम्ब होता है । ~~ ॐ ~~

No comments:

Post a Comment

Followers