आज विज्ञानं का युग है , सभी साधन उपलब्ध हैं लेकिन क्या ये साधन मनुष्य को सुख दे पा रहे हैं?
आज अनेक टी वी चैनेल हैं सभी रात-दिन लगातार अपनें- अपनें कार्य क्रम दे रहे है , इन कार्य क्रमों को
आपभी देखते ही होंगे--- आप को कैसा लगता है?
जब कोई सरकार बनती है तब सपथ समारोह तक सभी चैनेल्स उस सरकार के गुणों का पूल बाधती हैं लेकिन अगले दिन से उसे समाप्त करनें में जुट जाती हैं।
भारत से दूर यदि कोई भारतीय इन चैनेल्स के कार्य क्रमों को देखे तो वह समझेगा की हमारे देश में जो कुछ भी हो रहा है सब उलटा हो रहा है।
कोई ऐसा कार्य क्रम शायद ही कभी मिले जिस से देश के लोगों में प्यार-मुहब्बत होनें का भाव दिखता हो।
लोगों में भय फैलानें का पूरा विज्ञानं का प्रदर्शन किया जाता है, लोग बिचारे पहले से भयभीत हैं और जब इन कार्य क्रमों को देखते हैं तो उनकी दशा और गंभीर हो जाती है।
भोग का अति आधुनिक विज्ञान आज बच्चों को चैनलों के माध्यम से मिल रहा है।
कभी-कभी योगसे सम्बंधित कार्य क्रम भी मिलते हैं लेकिन उनका भी काम है , भोग में सहयोग देनें का। आज योग को भोग का माध्यम बना दिया गया है जबकि भोग योग का माध्यम है।
कामना पूर्ति के इतनें सरल - आसान तरीके बताये जाते हैं जिनको देख कर रोना आता है।
परीक्षा में पूरक परिणाम से उत्तीर्ण होनें के लिए मन्त्र बताये जाते हैं ,यह नही बताया जाता की मेहनत करो परिणाम स्वतः अच्छा मिलेगा।
आज मूर्तियाँ बनानें की दुकानें हैं , हर गलीमें मन्दिर हैं और मंदिरों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ रही है , क्यों, क्या लोग वास्तव में परमात्मा से जुड़ रहे है? नही, भोग प्राप्ति के लिए लोग मन्दिर बनवा रहे हैं --है न मजे की बात।
त्रेता युग में सोनें की लंका थी रावण के पास , राम के पास नही थी, त्रेता एवं द्वापर में तलवार धारियों के पास शक्ति थी और----------
आज --------?
एक चीर हरण से महा भारतयुद्ध हुआ और आज हजारों चीर हरण रोजाना हो रहे हैं।
त्रेता युग के राक्षसों तथा द्वापर के असुरों को देखिये और फ़िर आज के शक्तिवान लोगों पर एक नजर डालिए,
क्या आप कोकोई फरक नज़र आता है?
कहते हैं की चार युग होते हैं लेकिन मैं कहता हूँ की पाँच युग होते हैं और पांचवा युग है भोग युग जो इस समय चल रहा है ।
आप एक नए युग में हैं इस युग के बाद और कोई युग नही आनें वाला अतः ज़रा होश बना कर जीवन की
नौका को चलायियेगा।
====ॐ=========
Monday, July 27, 2009
Saturday, July 18, 2009
योग समीकरण - 1
ज्ञान इन्द्रिओंकी समझ शरीर एवं मन के प्रति होश बनाना कर्म-योग की पहली सीढी है। शरीर में पाँच कर्म-इन्द्रियाँ एवं पाँच ज्ञान - इन्द्रियाँ मुख्यतत्व हैं। जहाँ दस इन्दियाँ जुड़ती हैं उस स्थान को मन कहते हैं। ज्ञान इन्द्रियाँ संसार से सूचनाएं एकत्रित करती हैं, मन उनपर मनन करता है और मन के आदेश पर कर्म-इन्द्रियाँ कर्म करती हैं।
आँख, कान, नाक, जिह्वा एवं त्वचा से क्रमशः दृश्य[रूप-रंग], ध्वनि, गंध, रस, तथा स्पर्श -संवेदनाओं के माध्यम से मनुष्य अपनें को दूसरों से जोड़ता है। दूसरों का आकर्षण मन में मनन पैदा करता है। मनन से आसक्ति, आसक्ति से कामना, कामना के साथ संकल्प और संकल्प के साथ विकल्पों का जन्म होता है। संकल्प तक तो मन-बुद्धि की ऊर्जा सामान्य रहती है लेकिन विकल्पों के साथ इसकी आवृति बदल जाती है और इसमें भय की ऊर्जा आजाती है। संकल्प तक मन-बुद्धि की ऊर्जा में राजस गुन होता है और जब विकल्प उठानें लगते हैं तब इस ऊर्जा में तामस गुन आनें लगता है , फलस्वरूप यह ऊर्जा दो में बिभक्त हो जानें से कमजोर पड़ जाती है। जैसे- जैसे मन-बुद्धि में भ्रम बढता है राजस गुन कमजोर पड़नें लगता है और तामस गुन उपर उठनें लगता है। भ्रमित मन-बुद्धि में कभीं-कभीं कामना टूट भी जाती है और जब ऐसा होता है तब क्रोध पैदा होता है जो पाप का कारन होता है।
भ्रमित मन-बुद्धि में किया गया कर्म कभीं भी पूर्ण तृप्त नहीं करता और मनुष्य एक ही भोग को बार-बार भोगता रहता है--यह दशा एक पूर्ण भोगी ब्यक्ति की है। एक भोग को भोगी-योगी , दोनों भोगते हैं; योगी के लिए एक बार का भोग उसे तृप्त कर देता है और उस भोग की तरफ़ उसकी पीठ हो जाती है पर भोगी जितना भोगता है उतना ही वह और अतृप्त होता जाता है। भोगी के भोग से उसको भोग के समय सुख मिलता है लेकिन उस सुख में दुःख का बीज होता है जबकि योगी के भोग से उसको सम भाव की स्थिति मिलती है। भोगी का भोग राजस एवं तामस गुणों केप्रभाव में घाटित होता है जिसमे कामना या भय होता है पर योगी के भोग में गुणों का प्रभाव नहीं होता।
योगी को भोग में उतरना पड़ता है क्योंकि प्रकृति उसे उतारती है अपनें संतुलन को बनाए रखनें के लिए लेकिन भोगी गुणों के प्रभाव में भोग में उतरता है ।
योगी चूंकि भावातीत स्थिति में भोग में होता है अतः उसकी पूरी ऊर्जा उस भोग में लगती है और वह
तृप्त हो कर उसके रहस्य को समझ जाता है जब की भोगी भोग में बेसोश होता है उसको कुछ पता नहीं होता की वह क्या कर रहा है?
होश में भोग साधना का एक अंश है और गुणों के प्रभाव का भोग पशुवत - भोग है।
=====ॐ=====
आँख, कान, नाक, जिह्वा एवं त्वचा से क्रमशः दृश्य[रूप-रंग], ध्वनि, गंध, रस, तथा स्पर्श -संवेदनाओं के माध्यम से मनुष्य अपनें को दूसरों से जोड़ता है। दूसरों का आकर्षण मन में मनन पैदा करता है। मनन से आसक्ति, आसक्ति से कामना, कामना के साथ संकल्प और संकल्प के साथ विकल्पों का जन्म होता है। संकल्प तक तो मन-बुद्धि की ऊर्जा सामान्य रहती है लेकिन विकल्पों के साथ इसकी आवृति बदल जाती है और इसमें भय की ऊर्जा आजाती है। संकल्प तक मन-बुद्धि की ऊर्जा में राजस गुन होता है और जब विकल्प उठानें लगते हैं तब इस ऊर्जा में तामस गुन आनें लगता है , फलस्वरूप यह ऊर्जा दो में बिभक्त हो जानें से कमजोर पड़ जाती है। जैसे- जैसे मन-बुद्धि में भ्रम बढता है राजस गुन कमजोर पड़नें लगता है और तामस गुन उपर उठनें लगता है। भ्रमित मन-बुद्धि में कभीं-कभीं कामना टूट भी जाती है और जब ऐसा होता है तब क्रोध पैदा होता है जो पाप का कारन होता है।
भ्रमित मन-बुद्धि में किया गया कर्म कभीं भी पूर्ण तृप्त नहीं करता और मनुष्य एक ही भोग को बार-बार भोगता रहता है--यह दशा एक पूर्ण भोगी ब्यक्ति की है। एक भोग को भोगी-योगी , दोनों भोगते हैं; योगी के लिए एक बार का भोग उसे तृप्त कर देता है और उस भोग की तरफ़ उसकी पीठ हो जाती है पर भोगी जितना भोगता है उतना ही वह और अतृप्त होता जाता है। भोगी के भोग से उसको भोग के समय सुख मिलता है लेकिन उस सुख में दुःख का बीज होता है जबकि योगी के भोग से उसको सम भाव की स्थिति मिलती है। भोगी का भोग राजस एवं तामस गुणों केप्रभाव में घाटित होता है जिसमे कामना या भय होता है पर योगी के भोग में गुणों का प्रभाव नहीं होता।
योगी को भोग में उतरना पड़ता है क्योंकि प्रकृति उसे उतारती है अपनें संतुलन को बनाए रखनें के लिए लेकिन भोगी गुणों के प्रभाव में भोग में उतरता है ।
योगी चूंकि भावातीत स्थिति में भोग में होता है अतः उसकी पूरी ऊर्जा उस भोग में लगती है और वह
तृप्त हो कर उसके रहस्य को समझ जाता है जब की भोगी भोग में बेसोश होता है उसको कुछ पता नहीं होता की वह क्या कर रहा है?
होश में भोग साधना का एक अंश है और गुणों के प्रभाव का भोग पशुवत - भोग है।
=====ॐ=====
Friday, July 17, 2009
श्लोक - 5.26
सूत्र कहता है---
काम-क्रोध विमुक्त स्थिर चितवाला आत्म ग्यानी परमात्मा से परमात्मा में रहता हुआ निर्वाण को प्राप्त होता है ।
यहाँ आप पहले गीता के कुछ सूत्रों को ध्यान से देखें --------
5.23----योगी सुखी होता है जो काम-क्रोध से अप्रभावित होता है ।
16.21---काम-क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं ।
7.11----शास्त्रानुकूल काम परमात्मा है।
3.36-3.43 तक
अर्जुन का गीता में तीसरा प्रश्न इस प्रकार से है............
मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है?
परम श्री कृष्ण कहते हैं-----
काम रजो गुन का तत्व है तथा क्रोध काम का रूपांतरण है[3.37], काम में ज्ञान के ऊपर अज्ञान- की चादर आजाती है [3.38] और मनुष्य पाप कर देता है। काम का सम्मोहन बुद्धि तक होता है[3.40] , ऐसे लोग जो इन्द्रीओं की तथा मन-बुद्धि की साधना करते हैं वे काम के सम्मोहन से बच सकते हैं[3.41,3.42] पर जो लोग अपनी साधना का केन्द्र आत्मा को बनाते हैं उनपर काम का सम्मोहन नहीं होता[3.43] योगी वह है जो काम से अप्रभावित रहे[5.23] और काम-क्रोध विमुक्त योगी निर्वाण को प्राप्त करता है [5।26]
काम-क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं [16.21 ] तथा लोभ भी राजस गुन का तत्व है [ 14.12 ]
गीता-सूत्र 7.11 कहता है की शास्त्रानुकूल काम परमात्मा है ।
शास्त्रानुकूल काम क्या है?
गुणों से अप्रभावित कर्म सहज कर्म हैं जो शास्त्रानुकूल कर्म कहलाते है ऐसे कर्मों से निष्कर्मता की सिद्धि मिलती है और इन कर्मों से भावातीत की स्थिति मिलती है [8।3] , गीता की कर्म की परिभाषा गीता सूत्र 8.3 में दी गयी है।
मनुष्य पाप करता है अपनें अंहकार की तृप्ति केलिए एवं कामना की तृप्ति के लिए। राजस एवं तामस गुन परमात्मा की यात्रा में रुकावट हैं [ 6.27,2.52] और इनसे प्रवाहित ब्यक्ति पाप करता है।
इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा जब निर्विकार हो जाती है तब यदि काम में उतारा जाए तो वह काम परमात्मा होगा जैसा गीता सूत्र 7.11 में श्री कृषन कहते हैं।
काम एक ऊर्जा है जिसमें जब विकार आजाते हैं तब यह काम वासना हो जाता है और जब यह विकार रहित होता है तब यह प्यार होता है ।
=====ॐ=======
काम-क्रोध विमुक्त स्थिर चितवाला आत्म ग्यानी परमात्मा से परमात्मा में रहता हुआ निर्वाण को प्राप्त होता है ।
यहाँ आप पहले गीता के कुछ सूत्रों को ध्यान से देखें --------
5.23----योगी सुखी होता है जो काम-क्रोध से अप्रभावित होता है ।
16.21---काम-क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं ।
7.11----शास्त्रानुकूल काम परमात्मा है।
3.36-3.43 तक
अर्जुन का गीता में तीसरा प्रश्न इस प्रकार से है............
मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है?
परम श्री कृष्ण कहते हैं-----
काम रजो गुन का तत्व है तथा क्रोध काम का रूपांतरण है[3.37], काम में ज्ञान के ऊपर अज्ञान- की चादर आजाती है [3.38] और मनुष्य पाप कर देता है। काम का सम्मोहन बुद्धि तक होता है[3.40] , ऐसे लोग जो इन्द्रीओं की तथा मन-बुद्धि की साधना करते हैं वे काम के सम्मोहन से बच सकते हैं[3.41,3.42] पर जो लोग अपनी साधना का केन्द्र आत्मा को बनाते हैं उनपर काम का सम्मोहन नहीं होता[3.43] योगी वह है जो काम से अप्रभावित रहे[5.23] और काम-क्रोध विमुक्त योगी निर्वाण को प्राप्त करता है [5।26]
काम-क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं [16.21 ] तथा लोभ भी राजस गुन का तत्व है [ 14.12 ]
गीता-सूत्र 7.11 कहता है की शास्त्रानुकूल काम परमात्मा है ।
शास्त्रानुकूल काम क्या है?
गुणों से अप्रभावित कर्म सहज कर्म हैं जो शास्त्रानुकूल कर्म कहलाते है ऐसे कर्मों से निष्कर्मता की सिद्धि मिलती है और इन कर्मों से भावातीत की स्थिति मिलती है [8।3] , गीता की कर्म की परिभाषा गीता सूत्र 8.3 में दी गयी है।
मनुष्य पाप करता है अपनें अंहकार की तृप्ति केलिए एवं कामना की तृप्ति के लिए। राजस एवं तामस गुन परमात्मा की यात्रा में रुकावट हैं [ 6.27,2.52] और इनसे प्रवाहित ब्यक्ति पाप करता है।
इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा जब निर्विकार हो जाती है तब यदि काम में उतारा जाए तो वह काम परमात्मा होगा जैसा गीता सूत्र 7.11 में श्री कृषन कहते हैं।
काम एक ऊर्जा है जिसमें जब विकार आजाते हैं तब यह काम वासना हो जाता है और जब यह विकार रहित होता है तब यह प्यार होता है ।
=====ॐ=======
वैराग मोक्ष का द्वार है
गीता भोग प्राप्ति में मदद नहीं करता वल्कि भोग - तत्वों के प्रति होश बना कर बैरागी बनाता है।
गीता मृत्यु पर्यंत स्वर्ग नहीं देता वल्कि परम-धाम का मार्ग दिखाता है ।
गीता में स्वर्ग भी भोग का स्थान है जो योग खंडित योगी को मिलता है।
आईये चलते हैं गीता में और देखते हैं वैराग,ज्ञान और मोक्ष के सम्बन्ध को----------
श्लोक 2.15 ---- सुख-दुःख से अप्रभावित मोक्ष योग्य है ।
श्लोक 15.3----संसार को समझना वैराग है।
श्लोक 2.52----मोह के साथ बैराग नहीं मिलता।
श्लोक 4.10----राग,भय एवं क्रोध रहित ग्यानी है [अर्थात राजस,तामस गुणों से अप्रभावित ]
श्लोक 4.38----योग सिद्धि पर ज्ञान मिलता है।
श्लोक 13.2----क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को समझना ज्ञान है।
श्लोक 2.45,3.27,3.33
गुन कर्म करता हैं और ऐसे सभी कर्म भोग हैं।
श्लोक 6.27----राजस गुन के साथ परमात्मा की सोच नहीं आती।
श्लोक 5.22,1.38
इन्द्रिय विषय के सहयोग से जो कर्म होता है वह भोग है और ऐसे कर्म के सुख में दुःख का बीज होता है।
श्लोक 18.11----कर्म का त्याग पूर्ण रूप से करना असंभव है।
श्लोक 3.4,18.49,18.50
कर्म त्याग से सिद्धि नहीं मिलती , आसक्ति रहित कर्म करनें से सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है।
श्लोक ----18.54,18.55
समभाव परा भक्त हर पल परमात्मा से परमात्मा में होता है।
श्लोक----9.29,2.69
परा भक्त के लिए परमात्मा निराकार नहीं रह सकता और ऐसा योगी वैरागी होता है।
गीता गणित को समझनें में वक्त लगेगा आप अपनें को इन सूत्रों में डुबाओ जितना डूबोगे उतना आनंद मिलेगा।
गीता तो सब का इन्तजार कर रहा है लेकिन कोई इसको देखे तो सही।
=====ॐ=======
गीता मृत्यु पर्यंत स्वर्ग नहीं देता वल्कि परम-धाम का मार्ग दिखाता है ।
गीता में स्वर्ग भी भोग का स्थान है जो योग खंडित योगी को मिलता है।
आईये चलते हैं गीता में और देखते हैं वैराग,ज्ञान और मोक्ष के सम्बन्ध को----------
श्लोक 2.15 ---- सुख-दुःख से अप्रभावित मोक्ष योग्य है ।
श्लोक 15.3----संसार को समझना वैराग है।
श्लोक 2.52----मोह के साथ बैराग नहीं मिलता।
श्लोक 4.10----राग,भय एवं क्रोध रहित ग्यानी है [अर्थात राजस,तामस गुणों से अप्रभावित ]
श्लोक 4.38----योग सिद्धि पर ज्ञान मिलता है।
श्लोक 13.2----क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को समझना ज्ञान है।
श्लोक 2.45,3.27,3.33
गुन कर्म करता हैं और ऐसे सभी कर्म भोग हैं।
श्लोक 6.27----राजस गुन के साथ परमात्मा की सोच नहीं आती।
श्लोक 5.22,1.38
इन्द्रिय विषय के सहयोग से जो कर्म होता है वह भोग है और ऐसे कर्म के सुख में दुःख का बीज होता है।
श्लोक 18.11----कर्म का त्याग पूर्ण रूप से करना असंभव है।
श्लोक 3.4,18.49,18.50
कर्म त्याग से सिद्धि नहीं मिलती , आसक्ति रहित कर्म करनें से सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है।
श्लोक ----18.54,18.55
समभाव परा भक्त हर पल परमात्मा से परमात्मा में होता है।
श्लोक----9.29,2.69
परा भक्त के लिए परमात्मा निराकार नहीं रह सकता और ऐसा योगी वैरागी होता है।
गीता गणित को समझनें में वक्त लगेगा आप अपनें को इन सूत्रों में डुबाओ जितना डूबोगे उतना आनंद मिलेगा।
गीता तो सब का इन्तजार कर रहा है लेकिन कोई इसको देखे तो सही।
=====ॐ=======
गीता सार
गीता में कुल 700 श्लोक हैं , 556 श्लोक श्रीकृष्ण के हैं जिनमें से 101 श्लोक परमात्मा को ब्यक्त करते हैं और 23 श्लोक आत्मा से सम्बंधित हैं। अर्जुन अपनें 101 श्लोको के माध्यम से 16 प्रश्न करते हैं और अपनी सोच स्पष्ट करते हैं। संजय जिनके कारण गीता आज हमलोगों को उपलब्ध है, अपनें विचार 40 श्लोकों के माध्यम से ब्यक्त किया हैतथा धृत राष्ट्र जी का मात्र एक श्लोक है।
साधना की दृष्टि से श्री कृष्ण सांख्य-योगी हैं, अर्जुन हमलोगों की तरह एक भोगी ब्यक्ति की भूमिका निभा रहे हैं,धृत राष्ट्र जी एक परम श्रोता हैं और संजयजी परा भक्त हैं जिनको साकार कृष्ण में निराकार कृष्ण दिखते रहते हैं।
यदि आप गीता के आधार पर सांख्य योग की साधना में उतरना चाहते हैं तो आप को गीता के कृष्ण पर अपनी पूरी ऊर्जा केंद्रित करनी पड़ेगी, यदि आप भोग से समाधि तक की यात्रा पर चलना चाहते हैं तो आप को गीता के अर्जुन पर ध्यान करना पडेगा, यदि आप को श्रोतापन की हवा खानी हैं तो आप अपनें ध्यान का केन्द्र धृत राष्ट्र को बनाएं और यदि परा-भक्ति का आनंद उठाना चाहते हैं तो आप को संजय को अपनाना पडेगा।
बुद्ध एवं महाबीर के समय अबसे 2500 वर्ष पूर्व श्रोता अधिक थे लेकिन वर्तमान में न के बराबर हैं क्योंकि यह युग उन लोगों का है जिनकी बुद्धि संदेह से भरी है। आज का युग विज्ञानं का
युग है और संदेह विज्ञानं की बुनियाद है। जितना गहरा संदेह होगा उतना गहरा विज्ञान निकलेगा। संदेह से विज्ञान निकलता है और श्रद्घा से परमात्मा की खुशबू मिलती है।
गीता सांख्य योग की गणित है , परा-भक्ति का द्वार है और भोग से भगवान तक का मार्ग है अतः आप गीता के श्लोकों को याद करके अपनें अंहकार को और पैना न करें , गीता के श्लोकों को एकत्रित करके ध्यान बिधि बनाएं और उस मार्ग पर चलें तब गीता आपकी उंगली पकड़ कर उस पार तक की यात्रा करा सकता है।
गीता कहता है मैं घर नहीं हूँ जिमें तुम बसना चाहते हो , मैं तो नाव हूँ जो हर पल तुमको उस पार ले जानें को तैयार है , तुम आवो तो सही।
गीता का मूल मन्त्र है समत्व-योग अर्थात आसक्ति रहित कर्म का होना। आसक्ति रहित कर्म बैराग्य में पहुंचाता है तथा वह भाव पैदा करता है जिसमें कर्म अकर्म दिखता है और अकर्म कर्म दिखता है । गीता राग से वैराग ,बैराग में ज्ञान तथा ज्ञान के माध्यम से आत्मा-परमात्मा का बोध कराता है ।
========ॐ========
साधना की दृष्टि से श्री कृष्ण सांख्य-योगी हैं, अर्जुन हमलोगों की तरह एक भोगी ब्यक्ति की भूमिका निभा रहे हैं,धृत राष्ट्र जी एक परम श्रोता हैं और संजयजी परा भक्त हैं जिनको साकार कृष्ण में निराकार कृष्ण दिखते रहते हैं।
यदि आप गीता के आधार पर सांख्य योग की साधना में उतरना चाहते हैं तो आप को गीता के कृष्ण पर अपनी पूरी ऊर्जा केंद्रित करनी पड़ेगी, यदि आप भोग से समाधि तक की यात्रा पर चलना चाहते हैं तो आप को गीता के अर्जुन पर ध्यान करना पडेगा, यदि आप को श्रोतापन की हवा खानी हैं तो आप अपनें ध्यान का केन्द्र धृत राष्ट्र को बनाएं और यदि परा-भक्ति का आनंद उठाना चाहते हैं तो आप को संजय को अपनाना पडेगा।
बुद्ध एवं महाबीर के समय अबसे 2500 वर्ष पूर्व श्रोता अधिक थे लेकिन वर्तमान में न के बराबर हैं क्योंकि यह युग उन लोगों का है जिनकी बुद्धि संदेह से भरी है। आज का युग विज्ञानं का
युग है और संदेह विज्ञानं की बुनियाद है। जितना गहरा संदेह होगा उतना गहरा विज्ञान निकलेगा। संदेह से विज्ञान निकलता है और श्रद्घा से परमात्मा की खुशबू मिलती है।
गीता सांख्य योग की गणित है , परा-भक्ति का द्वार है और भोग से भगवान तक का मार्ग है अतः आप गीता के श्लोकों को याद करके अपनें अंहकार को और पैना न करें , गीता के श्लोकों को एकत्रित करके ध्यान बिधि बनाएं और उस मार्ग पर चलें तब गीता आपकी उंगली पकड़ कर उस पार तक की यात्रा करा सकता है।
गीता कहता है मैं घर नहीं हूँ जिमें तुम बसना चाहते हो , मैं तो नाव हूँ जो हर पल तुमको उस पार ले जानें को तैयार है , तुम आवो तो सही।
गीता का मूल मन्त्र है समत्व-योग अर्थात आसक्ति रहित कर्म का होना। आसक्ति रहित कर्म बैराग्य में पहुंचाता है तथा वह भाव पैदा करता है जिसमें कर्म अकर्म दिखता है और अकर्म कर्म दिखता है । गीता राग से वैराग ,बैराग में ज्ञान तथा ज्ञान के माध्यम से आत्मा-परमात्मा का बोध कराता है ।
========ॐ========
Sunday, July 5, 2009
कृष्ण की बासुरी तो बज रही है-----
कृष्ण की बासुरी तो आज भी बज रही है लेकिन सुननेंवाला कौन है?
जो कोशिश किया वह सूना ही नही उस धुन से निकल न पाया।
कृष्ण की बासुरी सुनी राधा और पंद्रहवी शताब्दी में मीरा और दोनों उसके बाहर निकल न पायी।
जैसे बासुरी बजाना सिखाना पड़ता है वैसे बासुरी सुननें की भी कला सीखनीपड़ती है।
साकार कृष्ण अपने बासुरीके माध्यम से असीमित ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं की संबेदनाओं से संपर्क स्थापित करते थे , बासुरी की धुन पूरे ब्रह्माण्ड में संचार - माध्यम का काम करती थी।
कृष्ण की बासुरी को आप सुन सकते हैं , उसे सुननें की लिए कुछ माध्यम उपलब्ध हैं जैसे-----
१- कोई संगीत के माध्यम से पकडनें की कोशीश करता है।
२- कोई-कोई नृत्य को अपना कर इस धुन को पकड़ना चाहता है ।
३- कोई-कोई गायत्री जाप के माध्यम से पकडनें की कोशिश करता है।
४- कुछ लोग वेद मंत्रो में छिपे ॐ का सहारा लेते हैं ।
५- और ध्यान जिनका माध्यम है उनको ध्यान की शून्यता में यह धुन सुनाई पड़ती है।
बीसवी शताब्दी के मध्य में Arrr-eee-oomm मन्त्र के माध्यम से एडगर कायसी हजारो ला इलाज लोगों को इस मन्त्र के माध्यम से ठीक किया था क्या यह मन्त्र हरी ॐ नही है? कायसी को अनजानें में कृष्ण के बासुरी की धुन हरी ॐ के रूप में मिली।
569-475 BCE - Pythagorus का कहना था की सभी ग्रहों की अपनी - अपनी धुनें होती हैं जबकि उस समय तक ब्रह्माण्ड के बारे में कुछ भी पता न था , आज 21 वीं शताब्दी में आकर वैज्ञानिक पृथ्वी की धुन को मापनें में कामयाब हो पायें हैं --क्या पैथागोरस को ग्रहों में गूंजती कृष्ण के बासुरी की धुन नही सुनाई पडी ?
संत जोसफ जब यह बोले की सृष्टि की रचना का आधार शब्द है तो क्या उनको अनजानें में कृष्ण के बासुरी की धुन नही सुनाई पडी?
दिन में विचार जगनें नही देते और रात में इन विचारों के स्वप्न सोने नही देते फ़िर ऐसे में कृष्ण के बासुरी की धुन कैसे सुनाई पड़ सकती है?
कृष्ण के बासुरी की गूंजती धुन तब सुनी जा सकती है जब इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा विकार रहित हो जाती है , मन शांत होजाता है और बुद्धि धुन को पकडनें पर स्थिर हो जाती है --------
क्या आप इसके लिए तैयार होना चाहते हैं ? यदि हाँ तो उठाइये गीता , इससे प्यारा और कोई माध्यम नही है।
सोच आप को आगे बढ़नें नही देगी , इस काम के लियेआप को गीता मय होना पडेगा ।
======ॐ=======
जो कोशिश किया वह सूना ही नही उस धुन से निकल न पाया।
कृष्ण की बासुरी सुनी राधा और पंद्रहवी शताब्दी में मीरा और दोनों उसके बाहर निकल न पायी।
जैसे बासुरी बजाना सिखाना पड़ता है वैसे बासुरी सुननें की भी कला सीखनीपड़ती है।
साकार कृष्ण अपने बासुरीके माध्यम से असीमित ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं की संबेदनाओं से संपर्क स्थापित करते थे , बासुरी की धुन पूरे ब्रह्माण्ड में संचार - माध्यम का काम करती थी।
कृष्ण की बासुरी को आप सुन सकते हैं , उसे सुननें की लिए कुछ माध्यम उपलब्ध हैं जैसे-----
१- कोई संगीत के माध्यम से पकडनें की कोशीश करता है।
२- कोई-कोई नृत्य को अपना कर इस धुन को पकड़ना चाहता है ।
३- कोई-कोई गायत्री जाप के माध्यम से पकडनें की कोशिश करता है।
४- कुछ लोग वेद मंत्रो में छिपे ॐ का सहारा लेते हैं ।
५- और ध्यान जिनका माध्यम है उनको ध्यान की शून्यता में यह धुन सुनाई पड़ती है।
बीसवी शताब्दी के मध्य में Arrr-eee-oomm मन्त्र के माध्यम से एडगर कायसी हजारो ला इलाज लोगों को इस मन्त्र के माध्यम से ठीक किया था क्या यह मन्त्र हरी ॐ नही है? कायसी को अनजानें में कृष्ण के बासुरी की धुन हरी ॐ के रूप में मिली।
569-475 BCE - Pythagorus का कहना था की सभी ग्रहों की अपनी - अपनी धुनें होती हैं जबकि उस समय तक ब्रह्माण्ड के बारे में कुछ भी पता न था , आज 21 वीं शताब्दी में आकर वैज्ञानिक पृथ्वी की धुन को मापनें में कामयाब हो पायें हैं --क्या पैथागोरस को ग्रहों में गूंजती कृष्ण के बासुरी की धुन नही सुनाई पडी ?
संत जोसफ जब यह बोले की सृष्टि की रचना का आधार शब्द है तो क्या उनको अनजानें में कृष्ण के बासुरी की धुन नही सुनाई पडी?
दिन में विचार जगनें नही देते और रात में इन विचारों के स्वप्न सोने नही देते फ़िर ऐसे में कृष्ण के बासुरी की धुन कैसे सुनाई पड़ सकती है?
कृष्ण के बासुरी की गूंजती धुन तब सुनी जा सकती है जब इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा विकार रहित हो जाती है , मन शांत होजाता है और बुद्धि धुन को पकडनें पर स्थिर हो जाती है --------
क्या आप इसके लिए तैयार होना चाहते हैं ? यदि हाँ तो उठाइये गीता , इससे प्यारा और कोई माध्यम नही है।
सोच आप को आगे बढ़नें नही देगी , इस काम के लियेआप को गीता मय होना पडेगा ।
======ॐ=======
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