Friday, July 17, 2009

श्लोक - 5.26

सूत्र कहता है---
काम-क्रोध विमुक्त स्थिर चितवाला आत्म ग्यानी परमात्मा से परमात्मा में रहता हुआ निर्वाण को प्राप्त होता है ।
यहाँ आप पहले गीता के कुछ सूत्रों को ध्यान से देखें --------
5.23----योगी सुखी होता है जो काम-क्रोध से अप्रभावित होता है ।
16.21---काम-क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं ।
7.11----शास्त्रानुकूल काम परमात्मा है।
3.36-3.43 तक
अर्जुन का गीता में तीसरा प्रश्न इस प्रकार से है............
मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है?
परम श्री कृष्ण कहते हैं-----
काम रजो गुन का तत्व है तथा क्रोध काम का रूपांतरण है[3.37], काम में ज्ञान के ऊपर अज्ञान- की चादर आजाती है [3.38] और मनुष्य पाप कर देता है। काम का सम्मोहन बुद्धि तक होता है[3.40] , ऐसे लोग जो इन्द्रीओं की तथा मन-बुद्धि की साधना करते हैं वे काम के सम्मोहन से बच सकते हैं[3.41,3.42] पर जो लोग अपनी साधना का केन्द्र आत्मा को बनाते हैं उनपर काम का सम्मोहन नहीं होता[3.43] योगी वह है जो काम से अप्रभावित रहे[5.23] और काम-क्रोध विमुक्त योगी निर्वाण को प्राप्त करता है [5।26]
काम-क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं [16.21 ] तथा लोभ भी राजस गुन का तत्व है [ 14.12 ]
गीता-सूत्र 7.11 कहता है की शास्त्रानुकूल काम परमात्मा है ।
शास्त्रानुकूल काम क्या है?
गुणों से अप्रभावित कर्म सहज कर्म हैं जो शास्त्रानुकूल कर्म कहलाते है ऐसे कर्मों से निष्कर्मता की सिद्धि मिलती है और इन कर्मों से भावातीत की स्थिति मिलती है [8।3] , गीता की कर्म की परिभाषा गीता सूत्र 8.3 में दी गयी है।
मनुष्य पाप करता है अपनें अंहकार की तृप्ति केलिए एवं कामना की तृप्ति के लिए। राजस एवं तामस गुन परमात्मा की यात्रा में रुकावट हैं [ 6.27,2.52] और इनसे प्रवाहित ब्यक्ति पाप करता है।
इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा जब निर्विकार हो जाती है तब यदि काम में उतारा जाए तो वह काम परमात्मा होगा जैसा गीता सूत्र 7.11 में श्री कृषन कहते हैं।
काम एक ऊर्जा है जिसमें जब विकार आजाते हैं तब यह काम वासना हो जाता है और जब यह विकार रहित होता है तब यह प्यार होता है ।
=====ॐ=======

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