गीता अध्याय –06
[ख]योग का फल
गीता सूत्र –6.20
यत्र उपरमते चित्तं निरुद्धं योग सेवया/
यत्र च एव आत्मना आत्मानं पश्यन्//
योग में ज्योंही चित्त भोग – भाव की उर्ज से मुक्त हो जाता है---
उस मन की स्थिति में वह योगी आत्मा की अनुभूति से गुजरता है//
During meditation when mind reaches to the state of pure senenity , the yogin realizes the presence of the Soul within . This state of mind opens the door where one realizes himself to be out of his own boby and this is the experience of Samadhi .
योग , तप एवं ध्यान एक माध्यम हैं जहां मनुष्य स्वयं को देखता है उन आँखों से जिनके पर्दों पर भोग की चादर नहीं पडी होती , जिन आँखों में प्रभु की रोशनी होती है और जिन आँखों से सत्य एवं असत्य स्पष्ट रूप से दिखते हैं और वह भी दिखता है जिससे सत्य एवं असत्य हैं /
ध्यान वह प्रक्रिया है------
जो इन्द्रियों से मन … .
मन से बुद्धि में बहा रही ऊर्जा को निर्विकार करती है …
और
निर्विकार मन – बुद्धि वह दर्पण हैं जिस पर … .
प्रभु प्रतिबिंबित होता है//
====ओम=====
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