गीता सूत्र –6.4
यदा हि न इंद्रिय – अर्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते/
सर्वसंकल्पसंन्यासी योग – आरूढ़:तदा उच्यते//
वह जिसके कर्म होनें में संकल्प का अभाव हो
वह जिसके कर्म भोग – भाव की ऊर्जा से न हो रहे हों
वह योगारूढ़ योगी होता है,उस काल में//
He whose actions are not based on certain determinations ….
He whose actions do not have attachment and passion …......
He is said to be established in Yoga .
प्रभु श्री कृष्ण युद्ध क्षेत्र में , दोनों सेनाओं के मध्य स्थित हैं और अर्जुन को बता रहे हैं -----
हे अर्जुन ! योगारूढ़ की स्थिति परम स्थिति होती है जहां पहुंचा योगी परम सत्य को समझता है और परम सत्य को समझनें के बाद और कुछ समझनें को बचाता ही नहीं और वह परम शांति में संसार का द्रष्टा बन कर प्रभु में डूबा रहता है /
योगारूढ़ की स्थिति में तन में,सभीं कर्म इंद्रियों में,सभीं ज्ञानेन्द्रियों में,मन में एवं बुद्धि में बह रही ऊर्जा पूर्ण रूप से निर्विकार ऊर्जा होती है और निर्विकार ऊर्जा से इंद्रियों की क्षमता इतनी गहरी होती है कि उनके लिए कोई निराकार सूचना नहीं रह जाती/योगारूढ़ योगी पहले तो कुछ बोलता नहीं और जब बोलता भी है तब कोई उनकी भाषा को सही ढंग से समझ नहीं पाता/योगारूढ़ बोलता है कुछ और उसका अर्थ सभीं सुननें वावे अपना-अपना लगाते हैं/योगरुध योगी की आँखें पूर्व की ओर रहती हैं और सुननें वालों की आँखें पश्चिम की ओर रहती हैं//योगी हमें कुछ अपना अनुभव देना चाहता है पर हम उसे अपने रंग में रंगने का पूरा-पूरा आयोजन करते रहते हैं//
=========ओम्==========