Sunday, October 30, 2011

योगारूढ़ योगी एवं हम

गीता सूत्र –6.4

यदा हि न इंद्रिय – अर्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते/

सर्वसंकल्पसंन्यासी योग – आरूढ़:तदा उच्यते//

वह जिसके कर्म होनें में संकल्प का अभाव हो

वह जिसके कर्म भोग – भाव की ऊर्जा से न हो रहे हों

वह योगारूढ़ योगी होता है,उस काल में//

He whose actions are not based on certain determinations ….

He whose actions do not have attachment and passion …......

He is said to be established in Yoga .

प्रभु श्री कृष्ण युद्ध क्षेत्र में , दोनों सेनाओं के मध्य स्थित हैं और अर्जुन को बता रहे हैं -----

हे अर्जुन ! योगारूढ़ की स्थिति परम स्थिति होती है जहां पहुंचा योगी परम सत्य को समझता है और परम सत्य को समझनें के बाद और कुछ समझनें को बचाता ही नहीं और वह परम शांति में संसार का द्रष्टा बन कर प्रभु में डूबा रहता है /

योगारूढ़ की स्थिति में तन में,सभीं कर्म इंद्रियों में,सभीं ज्ञानेन्द्रियों में,मन में एवं बुद्धि में बह रही ऊर्जा पूर्ण रूप से निर्विकार ऊर्जा होती है और निर्विकार ऊर्जा से इंद्रियों की क्षमता इतनी गहरी होती है कि उनके लिए कोई निराकार सूचना नहीं रह जाती/योगारूढ़ योगी पहले तो कुछ बोलता नहीं और जब बोलता भी है तब कोई उनकी भाषा को सही ढंग से समझ नहीं पाता/योगारूढ़ बोलता है कुछ और उसका अर्थ सभीं सुननें वावे अपना-अपना लगाते हैं/योगरुध योगी की आँखें पूर्व की ओर रहती हैं और सुननें वालों की आँखें पश्चिम की ओर रहती हैं//योगी हमें कुछ अपना अनुभव देना चाहता है पर हम उसे अपने रंग में रंगने का पूरा-पूरा आयोजन करते रहते हैं//


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Thursday, October 27, 2011

कर्म एक माध्यम है योग का

[]योग-सन्यास

सूत्र – 6.3

आरूढ़रुक्षो:मुने:योगं कर्म कारणं उच्यते

योग आरू ढ़स्य तस्य एव शम:कारणं उच्यते

कर्म योग में उतरनें का उत्तम माध्यम है और जब योगारूढ़ की स्थिति मिलती है तब सभीं कर्मों का त्याग स्वतः हो जाता है /


Action is the best mode of entering into Yoga and when depth in Yoga is achieved all actions are renunciated and whatever remains there is pure senenity .

प्रभु श्री कृष्ण इस सूत्र के माध्यम से कह रहे हैं -------

जो तुम कर रहे हो उसे तुम योग का माध्यम बना सकते हो , कहीं भागानें की जरुरत नहीं / कर्म के प्रति उठा होश तुमको योगी बना देगा और तुम स्वतः कर्म – त्यागी बन बैठोगे और तुमको पता भी न चल पायेगा / कर्म संन्यासी का यह अर्थ नहीं कि तुम कर्म करना छोड़ दोगे , कर्म तो करते ही रहना है लेकिन कर्म के बंधन स्वतः अनुपस्थित हो जाते हैं / कर्म में कर्म बंधन हैं , गुण तत्त्व जैसे आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार /


========ओम्==========


Saturday, October 22, 2011

संन्यासी एवं योगी कौन

गीता अध्याय –06

[]योग – संन्यास


हमारी गीता अध्याय – 06 की यह यात्रा अब उन सूत्रों से गुजर रही है जिनका सीधा सम्बन्ध योग –संन्यास से है , आईये देखते हैं अगले सूत्र को ------

गीता सूत्र –6.2

यं संन्यासं इति प्राहु : योगं

तं विद्धि पांडव

न हि असंयस्त संकल्प :

योगी भवति //

संन्यास एवं योग दोनों एक हैं

संकल्प धारी कभी योगी नहीं हो सकता//

Yoga and Renunciation both are same ; one with deternmination can not enter into Yoga .

गीता का यह सूत्र अपनें में एक अलग दर्शन है और ऎसी बातें करनें वाला मनुष्य ब्रह्म स्तर का तो होता ही है / गीता के सूत्रों को पिछले पांच हजार सालों से हम लोग बदल रहे हैं ; प्रभु क्या कहे थे इसकी फ़िक्र किसी को नहीं और कोई उसे खोजता भी नहीं लेकिन गीता के नाम पर अपनें विचारों को लोग खूब पीला रहे हैं /

भोग की साधना में जब भोग तत्त्वों की ओर साधक की पीठ हो जाती है तब वह साधक भोग – तत्त्वों का त्यागी हो जाता है जिसको संन्यासी कहते हैं;संन्यासी भोग तत्त्वों की पकड़ का/यही ब्यक्ति जब साधना में आगे चलता है और जिसकी साधना में राजस – तामस गुणों की पकड़ नहीं होती तब वह ब्यक्ति योगी कहलाता है/संन्यास साधना में पहले घटित होता है और योगी वही मनुष्य संन्यास के घटित होनें से साथ बन जाता है पर योगी-संन्यासी एक आयाम है जो किसी भी समय बदल सकता है/जबतक भोग की तरफ साधक की आँखे नहीं होती तबतक वह योगी-संन्यासी बना रहता है//


=====ओम्======


Monday, October 17, 2011

गीता अध्याय छ चरण तीन


गीता अध्याय –06


तीसरा चरण


[]योग – संन्यास


सूत्र – 6.1


अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः /


सः संन्यासी च योगी च न निः अग्नि : न च अक्रिय : //


जिस कर्म में कर्म फल का आश्रय न हो-----


वह कर्म योगी - संन्यासी बनाता है , कर्म को त्यागना संन्यास नहीं //




Action without the expectation of its result makes one Yogin and Sannyasin but renunciation of action is not the identification of a Sanyasin or Yogin .


गीता में यहाँ प्रभु योगी और संन्यासी एक के दो संबोधन के रूप में प्रयोग का रहे हैं और


कह रहे हैं -------




  • कर्म योगी वह जो जीवन निर्वाह के लिए जो कर्म होनें चाहिए इनका त्याग नहीं करता



  • वह कर्म योगी कर्म सन्यासी होता है जिसके कर्म में फल की सोच न हो



  • कर्म – योग की साधना जब कर्म संन्यास घटित होता है तब वह कर्म भोग से योग में बदल जाता है



  • बिना संन्यास घटित हुए कर्म कर्म – योग नहीं बनाता


    और



  • बिना कर्म – योग निर्वाण नहीं मिलता




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Friday, October 14, 2011

गीता अध्याय छ अगला अंक

गीता अध्याय – 06

[ ] योग का फल

पिछले भाग में हमने गीता सूत्र – 6.27 को देखा और अब इस सूत्र के सम्बन्ध में गीता के कुछ और सम्बंधित सूत्रों को यहाँ देख रहे हैं ------

गीता सूत्र –2.52

मोह एवं वैराज्ञ एक साथ एक मं - बुद्धि में नहीं रहते

गीता सूत्र –15.3

यह सूत्र बताता है , वैराज्ञ से भोग संसार का बोध होता है

गीता सूत्र –14.19 , 14.20

प्रकृति के तीन गुणों को कर्ता देखनें वाला पाप रहित संभव में द्रष्टा होता है

गीता सूत्र –14.23

गुणों को जो कर्ता देखता है वह समभाव में होता है

गीता सूत्र –6.29

सभी भूतों को आत्मा से आत्मा में देखनें वाला समभाव योग – युक्त योगी होता है

गीता सूत्र –6.30

सभी भूतों को मुझसे एवं मुझमें जो देखता है उसके लिए मैं अदृश्य रहीं रहता , यह बात श्री कृष्ण कह रहे हैं



गीता और आप का सम्बन्ध बना रहे और मुझे क्या चाहिए?



=====ओम्=======


Monday, October 10, 2011

राजस गुण प्रभु राह का अवरोध है

गीता अध्याय –06

[]योग का फल

गीता सूत्र –6.27

प्रशांत मनसं हि एनं

योगिनं सुखं उत्तमम् /

उपैति शांत – रजसम्

ब्रह्म भूतं अकल्मषम् //

शाब्दिक अर्थ

पूर्ण शांत मन के साथ योगी उत्तम सुख में रहता है

राजस गुण शांत होनें पर मनुष्य ब्रह्म मय हो जाता है//

For supreme happiness comes to the yoginwhose mind is peaceful , whose passions are at rest , who is stainless and has become one with God .

ऊपर के गीता सूत्र को जब आप बार – बार मनन करेंगे तब आप को निम्न समीकरण मिलेगा /

राजस- गुण प्रभु राह का सबसे मजबूत रुकावट है//

गीता गुण – विज्ञान है जिसमें कहीं - कहीं भक्ति की एकाध किरण दिखती है जो सांख्य – योग के सन्दर्भ में होती है लेकिन लोग गीता को भक्ति में खूब ढाला / गीता के प्रारंभ में [ गीता सूत्र – 2.47 से 2.52 तक ] में प्रभु श्री कृष्णसम – भाव के साथ बुद्धि योग शब्द का प्रयोग किया है और समभाव की स्थिति को समत्व – योग का नाम दिया है / गीता गुणों का विज्ञान है और विज्ञान को ऊर्जा बुद्धि से मिलती है जबकी भक्ति की ऊर्जा ह्रदय से आती है / प्रभु श्री कृष्ण गीता के माध्यम से बहुत ही सीधा समीकरण देते हैं कुछ इस प्रकार से ----------

  • तीन गुण मुझसे हैं लेकिन मैं गुणातीत हूँ

  • तीन गुणों का माध्यम माया है

  • माया का गुलाम मुझसे दूर रहता है

  • मैं मायापति हूँ लेकिन माया का मेरे ऊपर प्रभाव नहीं रहता

  • माया से माया में वैज्ञानिक टाइम – स्पेस है

  • वैज्ञानिक तें-स्पेस में सभी जड़ – चेतन हैं


=====ओम्======


Thursday, October 6, 2011

गीता अध्याय छ भाग सात मन

[ ] योग का फल

गीता सूत्र –6.26

अर्जुन अपनें गीता सूत्र 6.33 एवं 6.34 के माध्यम से एक प्रश्न पूछते हैं , कुछ इस प्रकार ----

हे प्रभु , मैं अपनें अस्थिर मन के कारण आप के उपदेश को समझनें में असमर्थ हो रहा हूँ , क्या कोई उपाय है कि मैं अपनें मन को स्थिर कर सकूं ? प्रभु का इस सम्बन्ध में गीता सूत्र – 6. 34 है लेकिन प्रश्न का स्पष्ट उत्तर गीता सूत्र – 6.26 में हैं जहां प्रभु कहते हैं -----

मन जहाँ - जहां रुकता हि उसे वहाँ - वहाँ से उठा कर मुझ पर केंद्रित करो , इस प्रकार का अभ्यास योग से मन शांत हो जाएगा /

Through Gita Verse 6.26 The Supreme Lord Krishna says , whatsoever makes the wavering and unsteady mind wander away let him restrain and bring it back to the control of the Self alone .

अब आगे-----

यहाँ ऐसा नहीं लगता कि अर्जुन का मन अस्थिर है,क्योंकि अस्थिर मन वाला अस्थिर संदेह वाली बुद्धि रखता है और वह यह नहीं समझता कि उसका मन अस्थिर है,वह अज्ञान में है/कौन समझता है कि वह अज्ञानी है?जो यह समझता है कि वह अज्ञानी है उसी समय वह ज्ञानी हो जाता है लेकिन यहाँ अर्जुन का यह कहना कि मैं आप की बात को अपनें मन की अस्थिरता के कारण नहीं समझ पा रहा,कुछ अलग सा दिख रहा है/मैं जो बात गीता में है उसको आप के सामनें रखा है आगे आपका मन भ्रमित हो तब इस बिषय पर सोचना/मन क्यों भ्रमित होता है और क्यों भ्रमित होता है?मन के पास भ्रम का गहरा अनुभव होता है और वह भ्रम को अपना घर समझता है/मन आत्मा की भाँती अमर है जो आत्मा के साथ रहता है और आत्मा को अगला जन्म अपनी कामनाओं को पूरा करनें के लिए,लेने को बाध्य करता है/हमारे पास भ्रम – संदेह,अहंकार,आसक्ति,कामना,क्रोध,लोभ,मोह एवं भय के अलावा और है ही क्या?और इन सबके साथ हमारा मन रहता है/मन को इन तत्त्वों से हटा कर प्रभु पर केंद्रित करना ही साधना का लक्ष्य होता है//


=====ओम्==============


Sunday, October 2, 2011

गीता अध्याय छ भाग छ

गीता अध्याय –06

[ ] योग का फल

सूत्र –6.22 – 6.23

यं लब्ध्वा च अपरं लाभम् मन्यते न अधिकं ततः /

यस्मिन् स्थितः न दुखेन् गुर ुणा अपि विचाल्यते //

तं विध्यात् दुःख – संयोग वियोगम् योग – संज्ञितम् /

सः निश्चयेन योक्तब्य : योगः अनिविर्ण्ण – चेतसा //

मनुष्य को चाहिए कि वह संकल्प – श्रद्धा के साथ योगाभ्यास में लगा रहे , योग से बिचलित न हो , मन को कामना रहित रखे , मन से इन्द्रियों का नियोजन करे / मन कामना एवं भोग – संकल्प रहित हो तथा इन्द्रियों का द्रष्टा बना रहे , यह अभ्यास ही ध्यान है /

मन प्रभु पर ऐसे स्थिर हो जैसे वायु रहित स्थान में रखे दीपक की ज्योति स्थिर रहती है , मन गुण तत्त्वों जैसे आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार का द्रष्टा बना रहे और मन इन्द्रियों का भी द्रष्टा बना रहे तबवह योगी योगारूढ़ स्थिति में होता हैजहां से वह कभीं भीसमाधिमें सरक सकता है //


=====ओम=======



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