गीता अध्याय –06
[ग]योग – संन्यास
हमारी गीता अध्याय – 06 की यह यात्रा अब उन सूत्रों से गुजर रही है जिनका सीधा सम्बन्ध योग –संन्यास से है , आईये देखते हैं अगले सूत्र को ------
गीता सूत्र –6.2
यं संन्यासं इति प्राहु : योगं
तं विद्धि पांडव
न हि असंयस्त संकल्प :
योगी भवति //
संन्यास एवं योग दोनों एक हैं
संकल्प धारी कभी योगी नहीं हो सकता//
Yoga and Renunciation both are same ; one with deternmination can not enter into Yoga .
गीता का यह सूत्र अपनें में एक अलग दर्शन है और ऎसी बातें करनें वाला मनुष्य ब्रह्म स्तर का तो होता ही है / गीता के सूत्रों को पिछले पांच हजार सालों से हम लोग बदल रहे हैं ; प्रभु क्या कहे थे इसकी फ़िक्र किसी को नहीं और कोई उसे खोजता भी नहीं लेकिन गीता के नाम पर अपनें विचारों को लोग खूब पीला रहे हैं /
भोग की साधना में जब भोग तत्त्वों की ओर साधक की पीठ हो जाती है तब वह साधक भोग – तत्त्वों का त्यागी हो जाता है जिसको संन्यासी कहते हैं;संन्यासी भोग तत्त्वों की पकड़ का/यही ब्यक्ति जब साधना में आगे चलता है और जिसकी साधना में राजस – तामस गुणों की पकड़ नहीं होती तब वह ब्यक्ति योगी कहलाता है/संन्यास साधना में पहले घटित होता है और योगी वही मनुष्य संन्यास के घटित होनें से साथ बन जाता है पर योगी-संन्यासी एक आयाम है जो किसी भी समय बदल सकता है/जबतक भोग की तरफ साधक की आँखे नहीं होती तबतक वह योगी-संन्यासी बना रहता है//
=====ओम्======
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