गीता अध्याय –06
तीसरा चरण
[ग]योग – संन्यास
सूत्र – 6.1
अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः /
सः संन्यासी च योगी च न निः अग्नि : न च अक्रिय : //
जिस कर्म में कर्म फल का आश्रय न हो-----
वह कर्म योगी - संन्यासी बनाता है , कर्म को त्यागना संन्यास नहीं //
Action without the expectation of its result makes one Yogin and Sannyasin but renunciation of action is not the identification of a Sanyasin or Yogin .
गीता में यहाँ प्रभु योगी और संन्यासी एक के दो संबोधन के रूप में प्रयोग का रहे हैं और
कह रहे हैं -------
कर्म योगी वह जो जीवन निर्वाह के लिए जो कर्म होनें चाहिए इनका त्याग नहीं करता
वह कर्म योगी कर्म सन्यासी होता है जिसके कर्म में फल की सोच न हो
कर्म – योग की साधना जब कर्म संन्यास घटित होता है तब वह कर्म भोग से योग में बदल जाता है
बिना संन्यास घटित हुए कर्म कर्म – योग नहीं बनाता
और
बिना कर्म – योग निर्वाण नहीं मिलता
==============ओम्==============
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