Thursday, October 6, 2011

गीता अध्याय छ भाग सात मन

[ ] योग का फल

गीता सूत्र –6.26

अर्जुन अपनें गीता सूत्र 6.33 एवं 6.34 के माध्यम से एक प्रश्न पूछते हैं , कुछ इस प्रकार ----

हे प्रभु , मैं अपनें अस्थिर मन के कारण आप के उपदेश को समझनें में असमर्थ हो रहा हूँ , क्या कोई उपाय है कि मैं अपनें मन को स्थिर कर सकूं ? प्रभु का इस सम्बन्ध में गीता सूत्र – 6. 34 है लेकिन प्रश्न का स्पष्ट उत्तर गीता सूत्र – 6.26 में हैं जहां प्रभु कहते हैं -----

मन जहाँ - जहां रुकता हि उसे वहाँ - वहाँ से उठा कर मुझ पर केंद्रित करो , इस प्रकार का अभ्यास योग से मन शांत हो जाएगा /

Through Gita Verse 6.26 The Supreme Lord Krishna says , whatsoever makes the wavering and unsteady mind wander away let him restrain and bring it back to the control of the Self alone .

अब आगे-----

यहाँ ऐसा नहीं लगता कि अर्जुन का मन अस्थिर है,क्योंकि अस्थिर मन वाला अस्थिर संदेह वाली बुद्धि रखता है और वह यह नहीं समझता कि उसका मन अस्थिर है,वह अज्ञान में है/कौन समझता है कि वह अज्ञानी है?जो यह समझता है कि वह अज्ञानी है उसी समय वह ज्ञानी हो जाता है लेकिन यहाँ अर्जुन का यह कहना कि मैं आप की बात को अपनें मन की अस्थिरता के कारण नहीं समझ पा रहा,कुछ अलग सा दिख रहा है/मैं जो बात गीता में है उसको आप के सामनें रखा है आगे आपका मन भ्रमित हो तब इस बिषय पर सोचना/मन क्यों भ्रमित होता है और क्यों भ्रमित होता है?मन के पास भ्रम का गहरा अनुभव होता है और वह भ्रम को अपना घर समझता है/मन आत्मा की भाँती अमर है जो आत्मा के साथ रहता है और आत्मा को अगला जन्म अपनी कामनाओं को पूरा करनें के लिए,लेने को बाध्य करता है/हमारे पास भ्रम – संदेह,अहंकार,आसक्ति,कामना,क्रोध,लोभ,मोह एवं भय के अलावा और है ही क्या?और इन सबके साथ हमारा मन रहता है/मन को इन तत्त्वों से हटा कर प्रभु पर केंद्रित करना ही साधना का लक्ष्य होता है//


=====ओम्==============


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