गीता अध्याय –06
[ ख ] योग का फल
सूत्र –6.22 – 6.23
यं लब्ध्वा च अपरं लाभम् मन्यते न अधिकं ततः /
यस्मिन् स्थितः न दुखेन् गुर ुणा अपि विचाल्यते //
तं विध्यात् दुःख – संयोग वियोगम् योग – संज्ञितम् /
सः निश्चयेन योक्तब्य : योगः अनिविर्ण्ण – चेतसा //
मनुष्य को चाहिए कि वह संकल्प – श्रद्धा के साथ योगाभ्यास में लगा रहे , योग से बिचलित न हो , मन को कामना रहित रखे , मन से इन्द्रियों का नियोजन करे / मन कामना एवं भोग – संकल्प रहित हो तथा इन्द्रियों का द्रष्टा बना रहे , यह अभ्यास ही ध्यान है /
मन प्रभु पर ऐसे स्थिर हो जैसे वायु रहित स्थान में रखे दीपक की ज्योति स्थिर रहती है , मन गुण तत्त्वों जैसे आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार का द्रष्टा बना रहे और मन इन्द्रियों का भी द्रष्टा बना रहे तबवह योगी योगारूढ़ स्थिति में होता हैजहां से वह कभीं भीसमाधिमें सरक सकता है //
=====ओम=======
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