गीता सूत्र –6.35
असंशयं महाबाहो मनः दुर्निग्रहम् चलं
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्यते
अर्जुन का प्रश्न था ; मैं अपनी मन की चंचलता के करण आप के उपदेश को पकडनें में असमर्थ हो रहा हूँ , आप कृपया मुझे उचित राह दिखाएँ / प्रभु इस प्रश्न का जो उत्तर देते है शायद इतनें बड़े प्रश्न का इतना छोटा उत्तर कोई और अभीं तक नहीं दिया होगा / प्रभु के सूत्र 6.35 का क्या भाव है , आप देखें यहाँ विश्व के दो महान दार्शनिकों की भाषा में ------
स्वामी प्रभु पाद जी महाराज कहते हैं ….....
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं , हे महाबाहु कुंती पुत्र ! निःसंदेह चंचल मन को बश में करना अत्यंत कठिन है , किन्तु उपयुक्त अभ्यास द्वारा तथा विरक्ति द्वारा ऐसा संभव है //
Dr S.Radhakrishanan says ….....
Yoga is hard to attain , I agree, by one who is not self – controlled ; but by the self – controlled it is attainable by striving through proper means .
गीता सूत्र 6.35 का सीधा अर्थ है -----
अभ्यास से एवं वैराज्ञ से मन शांत होता है लेकिन अभ्यास किसका?और वैराज्ञ को कैसे प्राप्त करें?यह दो प्रश्न इस सूत्र की गंभीरता को अपनें में समेटे हुए है/गीता सूत्र6.26में प्रभु कहते हैं,अर्जुन जहां-जहां तेरा मन उलझता है उसे वहाँ – वहाँ से खीच कर आत्मा-परमात्मा पर लानें का निरंतर अभ्यास करते रहो,ऐसा करने से शांत स्थान पर रखे[जहां वायो का प्रभाव न हो]दीपक की ज्योति की तरह तेरा मन स्थिर हो जाएगा;यह है अभ्यास – योग/अब बात रही वैराज्ञ की तो उसे
देखिये;अभ्यास का फल है वैराज्ञ,वैराज्ञ में सीधे कदम रखना असंभव है,वैराज्ञ योग की सिद्धि पर मिलता है जहाँ योगी को ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह आत्मा के माध्यम से प्रभु में स्थिर हो जाता है[देखिये गीता- 4.38सूत्र को यहाँ] /
अभ्यास से वैराज्ञ
वैराज्ञ से ज्ञान
ज्ञान से क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध
और बोध से
आत्मा के माध्यम से परमात्मा में स्थित हो जाना
यह है गीता का परम सन्देश
=====ओम्======