Saturday, November 19, 2011

मन की चंचलता को देखें

गीता सूत्र –6.35

असंशयं महाबाहो मनः दुर्निग्रहम् चलं

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्यते

अर्जुन का प्रश्न था ; मैं अपनी मन की चंचलता के करण आप के उपदेश को पकडनें में असमर्थ हो रहा हूँ , आप कृपया मुझे उचित राह दिखाएँ / प्रभु इस प्रश्न का जो उत्तर देते है शायद इतनें बड़े प्रश्न का इतना छोटा उत्तर कोई और अभीं तक नहीं दिया होगा / प्रभु के सूत्र 6.35 का क्या भाव है , आप देखें यहाँ विश्व के दो महान दार्शनिकों की भाषा में ------

स्वामी प्रभु पाद जी महाराज कहते हैं ….....

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं , हे महाबाहु कुंती पुत्र ! निःसंदेह चंचल मन को बश में करना अत्यंत कठिन है , किन्तु उपयुक्त अभ्यास द्वारा तथा विरक्ति द्वारा ऐसा संभव है //

Dr S.Radhakrishanan says ….....

Yoga is hard to attain , I agree, by one who is not self – controlled ; but by the self – controlled it is attainable by striving through proper means .

गीता सूत्र 6.35 का सीधा अर्थ है -----

अभ्यास से एवं वैराज्ञ से मन शांत होता है लेकिन अभ्यास किसका?और वैराज्ञ को कैसे प्राप्त करें?यह दो प्रश्न इस सूत्र की गंभीरता को अपनें में समेटे हुए है/गीता सूत्र6.26में प्रभु कहते हैं,अर्जुन जहां-जहां तेरा मन उलझता है उसे वहाँ – वहाँ से खीच कर आत्मा-परमात्मा पर लानें का निरंतर अभ्यास करते रहो,ऐसा करने से शांत स्थान पर रखे[जहां वायो का प्रभाव न हो]दीपक की ज्योति की तरह तेरा मन स्थिर हो जाएगा;यह है अभ्यास – योग/अब बात रही वैराज्ञ की तो उसे

देखिये;अभ्यास का फल है वैराज्ञ,वैराज्ञ में सीधे कदम रखना असंभव है,वैराज्ञ योग की सिद्धि पर मिलता है जहाँ योगी को ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह आत्मा के माध्यम से प्रभु में स्थिर हो जाता है[देखिये गीता- 4.38सूत्र को यहाँ] /


अभ्यास से वैराज्ञ

वैराज्ञ से ज्ञान

ज्ञान से क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध

और बोध से

आत्मा के माध्यम से परमात्मा में स्थित हो जाना

यह है गीता का परम सन्देश


=====ओम्======


Thursday, November 17, 2011

मन को कैसे पकडें

गीता सूत्र – 6.33 , 6.34

:अयम् योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन

एतस्य अहम् पश्यामि चंचलत्वात् स्थितिम् स्थिराम्

चंचलम् हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवत् दृढम्

तस्य अहम् निग्रहम् मन्ये वायो:इव सु-दुष्करम्


इन दो सूत्रों को स्वामी प्रभुपाद जी इस तरह से देख रहे हैं -----

अर्जुन कह रहे हैं , हे मधुसूदन ! आपने जिस योग पद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है , वह मेरे लिए अब्यवहारिक तथा असहनीय है , क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है //

हे कृष्ण ! क्योंकि मन चंचल [ अस्थिर ] , उच्छृंखल , हठीला तथा अत्यंत बलवान है , अतः मुझे इसे बश में करना वायु को वश में करनें से भी अधिक कठिन लगता है //


Dr S. Radhakrishanan ऊपर से सूत्रों को कुछ इस प्रकार से देखते हैं --------

Arjuna said : This Yoga declared by you to be of the nature of equality [ evenness of mind ] , O Madhusudana [ Krishna ] , I see no stable foundation for , on account of reslessness .

For the mind is verily fickle , O Krishna , it is impetuous , strong and obstinate . I think that it is as difficult to control as the wind .

दो विश्व स्तर के दार्शनिकों की बात आप देखे अब और क्या कहा जा सकता है इन दो सूत्रों के सम्बन्ध में ? मैं तो इन दो महान आत्माओं के सामनें एक कण के समान भी नहीं हूँ लेकिन एक अनपढ़ की तरह इन दो सूत्रों के माध्यम से अर्जुन जो कहना चाह रहे वह कुछ इस प्रकार से समझ रहा हूँ : ------

अर्जुन को अब इतना तो पता चल रहा है कि प्रभु की बातें उनके सर के ऊपर – ऊपर से निकल जा रही हैं और वे प्रभु की बातों को पकड़ना भी चाह रहे है/अर्जुन कह रहे हैं,हे कृष्ण!मेरा मन बहुत चंचल हो रहा है और उसकी चंचलता को मैं नियंत्रित करने में अपनें को असमर्थ देख रहा हूँ आप कृपया मुझे यथा उचित राह दिखाएँ जिससे मैं अपनें मन को स्थिर कर सकूं और आप की बातों को समझ सकूं/अर्जुन यहाँ आ कर कुछ ऎसी बात कर रहे हैं जिनसे यह समझा जा सकता है कि अब उनके मार्ग की दिशा सही हो सकती है/यहाँ एक बात बहुत गहरी दिख दिख हैऔर वह है कि मन जबतक स्थिर नहीं,मन जबतक शांत नहीं,मन जबतक प्रश्न रहित नहीं तहतक कोई कुछ समझ नहीं सकता;वह कभी दो कदम आगे चलेगा तो कभीं दो कदम पीछे और परिणाम रहित उसकी यात्रा

होगी/

मन की स्थिरता बुद्धि को निर्विकार बनाती है

निर्विकार बुद्धि चेतना के फैलाव में मदद करती है

और चेतना के फैलाव से सत्य का बोध होता है


====ओम्======


Tuesday, November 15, 2011

मन से ब्रह्म की यात्रा

गीता सूत्र – 6.7

जीत – आत्मन:प्रशान्तस्य परम – आत्मा समाहितः

शीत – उष्ण सुख दुखेषु तथा मान अपमानयो:

स्वामी भक्ति वेदान्त जी इस सूत्र के माध्यम से प्रभु श्री कृष्ण की बात को कुछ इस प्रकार से समझा रहे हैं - जिसनें मन को जीत लिया है , उसनें पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है , क्योंकि उसनें शांति प्राप्त कर ली है / ऐसे पुरुष के लिए सुख – दुःख एवं मान - अपमान , सर्दी - गर्मी एक से होते हैं /

Dr S.Radhakrishnan explains this sutra in this way – When one has conquered his [ lower ] and has attained to the calm of self – mastery , his Supreme Self abides ever concentrate , he is at peace in cold and heat , in pleasure and pain , in honour and dishonour .

इस सुत्र के साथ गीता सूत्र – 5.19 को भी देखें जो इस प्रकार है ------

गीता सूत्र – 5. 19

इह एव तै:जितः सर्गः येषां साम्ये स्थितं मनः

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः

स्वामी भक्ति वेदान्त जी इस सूत्र के सम्बन्ध में कह रहे हैं - जिसके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बंधनों को पहले ही जीत लिया है / वे ब्रह्म के सामान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं / Dr. S.Radhakrishanan about this sutra says , Even here [ on earth ] the created [ world ] is overcome by those whose mind is established in equality . God is flawless and the same in all . Therefore are these [ persons ] established in God .

गीता के दो सूत्रों को आप देखेऔर इन सूत्रों के बाते में विश्वस्तर के दो महान ब्यक्तियों की सोच को भी देखा अब आप अपनी सोच को देखें कि आप इनके सम्बन्ध में क्या सोचते हैं ? मेरी सोच कुछ इस प्रकार है - वह जिसकी सत्य मित्रता अपनें मन के साथ है वह समभाव – योगी सभी द्वैत्यों के परे परम शांति में स्थित ब्रह्म – आयाम में स्थित परमानंद का मजा लेता रहता है - He who has established true friendship with his mind he remains in evenness – yoga and fully merged in the Supreme formless One enjoys the supreme bliss .


====ओम्=====



Sunday, November 13, 2011

मन एक राह है


गीता अध्याय –06


[ योग संन्यास ]


गीता सूत्र –6.7


जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः /


शीतोष्णसुखदुखेषु तथा मान अपमानयो : //


स्वामी प्रभुपाद इस सूत्र के सम्बन्ध में कह रहे हैं ------


जिसनें मन को जीत लिया है , उसनें पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है , क्योंकि उसनें शांति प्राप्त कर ली है / ऐसे पुरुष के लिए सुख – दुःख , सर्दी - गरमी एवं मान - अपमान एक से हैं //


Dr. Radhakrishanan views are as under -----


When one has conquered one,s self [ lower ] and has attained to the calm of self – mastery , his Supreme Self abides ever concentrate , he is at peace in cold and heat , in pleasure and pain , in honour and dishonour .


जीतनें के दो तरीके हैं ; एक है लड़ाई के माध्यम से और दूसरा है मित्रवत स्थिति में उसे रूपांतरित करके उसका नियंता बन जाना / पहला रास्ता हठ योगियों का है और दूसरा है ध्यानियों का / मन से लड़ना अहंकार को सघन कर्ता है , यह बात हमेशा अपनें अंदर रखनी चाहिए उनको जो हठ योग में उतर रहे हैं और ध्यानी को धीरे - धीरे अपनें ह्रदय की ऊर्जा को बदलना होता है जो स्वतः होता रहता है जहां मात्र द्रष्ट भाव की साधना होती है , जो बिषय से प्रारम्भ हो कर मन पर विसर्जित हो जाती है और आगे की यात्रा निर्वाण की यात्रा होती है जो ब्यक्त नहीं की जा सकती //


Lord Krishna says ----


Do continuous practice to make your mind your best friend and when friendship is established you will be in evenness – yoga which leads to NIRVANA .




=====ओम्======


Friday, November 11, 2011

टाइम स्पेस रहस्य

गीता ब्रह्माण्ड रहस्य एवं जीव उत्पत्ति

यहाँ देखते हैं गीता के निम्न सूत्रों को

3.5

3.27

3.33

5.13

7.4

7.5

7.6

7.8

7.9

7.12

7.13

7.14, 7.15

8.16

8.17

8.18

8.19

820

8.21

8.22

9.8

10.21

13.6

13.7

13.13

1320

13.21

13.34

14.3

14.4

14.5

14.11

14.19

14.21

14.27

15.6

15.7

15.12

15.16

15.17

15.18



गीता के 10 अध्यायों से 41 सूत्रों को चुनकर यहाँ दे रहा हूँ . आप लोग इनको खूब पी सकते हैं /

Prof. Albert Einsteinकहते हैं …....

जब मैं गीता में ब्रह्माण्ड रहस्य को पढता हूँ कि परमात्मा ब्रह्माण्ड एवं जीवों का निर्माण कैसे किया ? तब मुझे संदेह रहित ऐसा ज्ञान मिलता है जैसा कहीं और नहीं देखता /

अब आप को गीता के 41 सूत्रों का भाव मैं देने की कोशीश कर रहा हूँ और आप सबसे प्रार्थना है कि आप लोग इन सूत्रों को जरुर पढ़ें -------

परमात्मा सम्पूर्ण टाइम – स्पेस का नाभि केंद्र है ; परमात्मा से परमात्मा में तीन गुण माया का निर्माण करते और ये गुण परमात्मा से हैं लेकिन परमात्मा गुणातीत है / माया दो प्रकृतियों को बनाती है जिसमें पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि , अहंकार , चेतना हैं / माया में जब ऐसी परिस्थिति आती है कि ये दोनों प्रकृतियाँ आपस में मिलती हैं तब प्रभु से प्रभु का क्वांटा स्वरुप आत्मा इनमें मिल जाती है और जीव का निर्माण हो जाता है / सम्पूर्ण Time – Space Pulsating mode में है और इस pulsation से प्रकृति - पुरुष का योग होता रहता है / प्रकृति एवं पुरुष का योग जीव निर्माण का कारण है /

एक परमात्मा समयातीत है बाक़ी सभी समयाधीन हैं अर्थात आज हैं , कल नहीं रहेंगे और परसों कहीं और प्रकट हो जायेंगे / गीता कहता है , यह पृथ्वी एक दिन समाप्त हो जायेगी लेकिन दूसरी ऎसी ही पृथ्वी बन भी रही है काहीं और अतःयहाँ मात्र सब का रूपान्तरण एवं नवीनीकरण होता रहता है और कोई समाप्त नहीं होता पर समाप्त हुआ सा दिखत भर है / गीता कहता है , ब्रह्म - लोग सहित सभीं लोक पुनरावर्ती हैं / आज पृथी पर जो जीव हैं उनके यहाँ रहने की अवधि है -1000 [ चरों युगों की अवधि ] और फिर इतने समय तक यहाँ अन्धेरा ही अन्धेरा होगा और कोई सूचना न होगी जो बता सके की यहाँ क्या था / इस समय के गुजरने के बाद पुनः जहां नयी पृथ्वी बनी होती है वह अबतक इस स्थिति में आ गयी होती है कि वहाँ जीव उत्पन हो सकते हैं और वहाँ जीव उत्पन्न होते हैं / ज जैसा यहाँ है कल यहाँ वैसा नहीं रहेगा लेकिन परसों कहीं और ऐसा ही होगा / गीता में वही बात है जो आज पार्टिकल विज्ञान एवं क्वांटम विज्ञान में है लेकिन गीता की बातों में स्पष्ट की कमी जरूर है क्यों की आज जो गीता है उसे हम जैसे लोग पीछले पांच हजार सालों से बदल रहे हैं लेकिन यदि अप गहराई में गीता देखेंगे तो आप को जरुर आनंद मिलेगा /

====ओम्---- -



गीता आपकी आँखों को खोलता है

गीता अध्याय –06

[ ] योग – संन्यास

गीता में आप सूत्र 6.1 – 6.6 तक को देखा अब इनसे साथ गीता के निम्न सूत्रों को भि देखा लें जिनका सम्बन्ध गीता के सूत्र 6.1 – 6.6 से है ------

गीता सूत्र – 4.41

योग सन्यस्त कर्माणम् ज्ञान सज्छिन्न संशयम्/

आत्मवन्तं न कर्माणि निबधंति धनञ्जय/

Those who are keeping expectation in his action and having doubt , he is always slave of his action .

वह जो कर्म फल की कामना से कर्म करता है और संदेह युक्त जिसकी बुद्धि है वह अपनें कर्मों का गुलाम होता है//

गीता सूत्र – 5.2

संन्यासः कर्म योगः च निः श्रेयस करौ उभौ तयो: /

तयो:तु कर्म संन्यस्यात् कर्म योग:विशिष्यते//

action renunciation and Action – Yoga both lead to salvation .

कर्म संन्यास एवं कर्म योग दोनों मुक्ति पथ हैं//

ऊपर दिए गए गीता के दो सूत्र कह रहे हैं--------

कामना एवं संदेह रखनें वाली बुद्धि वाले मनुष्य से जी कर्म होते हैं वह उनका गुलाम बन कर रहता है और कर्म संन्यास एवं कर्म योग दोनों मुक्ति पथ हैं//

Gita – sutra as given above say …....

A man who does work with desire and doubtful state of mind and intelligence he remains slave of his works and action renunciation and action – yoga both lead to salvation .

गीता के इन दो सूत्रों से आप समझ रहे होंगे कि कर्म योग एवं कर्म संन्यास दो अलग – अलग मार्ग हैं लेकिन इसी बात नहीं हैं ; बिना कर्म में उतरे कर्म संन्यास का ख्वाब देखनें वाला कभी कर्म संन्यासी नहीं बन सकता और बिना कर्म संन्यासी बनें निष्कर्म – सिद्धि नहीं मिलती जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है / कर्म योग की सिद्धि में कर्म अकर्म दिखनें लगते हैं और अकर्म में कर्म दिखनें लगता है अर्थातमनुष्य कि दिशा बदल जाती है //

सभीं बातों की एक बात

जो आप से हो रहा हो उसका द्रष्टा बनें रहिये

जो आप से हो रहा हो उसके पीछे किसी कारण की ऊर्जा नहीं होनी चाहिये

जो आप कर रहे हैं उनके पीछेचाह , क्रोध , अहंकार , मोह , लोभ , भयमें से किसी एक की ऊर्जा नहीं होनी चाहिए //


=====ओम्=====



Sunday, November 6, 2011

मन से उसे देखो

गीता अध्याय –06

[ ] योग – सन्यास

गीता सूत्र –6.6

बंधु:आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जित: /

अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रु-वत्//

गीता के इस सूत्र का अर्थ स्वामी प्रभुपाद जी कुछ इस प्रकार से ब्यक्त करते है ------

जिसनें मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया है उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा //

Dr S. Radhakrishnan explaines this verse of Gita as under -------

For him who has conquered his [ lower ] self by the [ higher ] Self his Self is a friend but for him who has not possessed his [ higher ] Self , his very Self will act in enemity like an enemy .

दो विश्व प्रशिद्ध दार्शनिकों की बात को आप यहाँ देख रहे हैं और इनके बातों में अपनी सोच को कही ठहराना आप का काम है / आप क्या समझते हैं किसी को जीत कर मित्र बनाना सुलभ है ? वह जो हारता है हमेशा इस ताक में रहता है कि कब मौका मिले और मैं अपना बदला लूं , उसे जो अपना मित्र समझता है वह अपनें ही आंगन में आतें बिछाता है / बुद्ध कहते हैं , मन को अपना मित्र बनाओ , मन से मैत्री साधो और जब मन मित्र बन जाएगा फिर आप से परम सत्य दूर नहीं रहेगा / गीता में प्रभु श्री कृष्ण [ सूत्र – 10.22 ] में कहते हैं , मन मैं हूँ / कौन सा मन वह मन है जिसके लिए प्रभु कह रहे हैं कि इंद्रियों में मन मैं हूँ ? प्रकृति में हम हैं , प्रकृति से हमारा गहरा सम्बन्ध है , हम प्रकृति के अलग स्वयं को नहीं कर सकते / प्रकृति में दो प्रकार की ऊर्जा बह रही हैं ; एक निर्विकार ऊर्जा है और दूसरी ऊर्जा तीन गुणों की उर्जा है / वह ऊर्जा जो तीन गुणों की है वह भोग की ऊर्जा है और वह ऊर्जा जो निर्विकार ऊर्जा है , परम से जोड़ती है / वह मन जिसमें निर्विकार ऊर्जा बह रही होती है वह मन मित्र होता है और वह मन जिसमें गुणों की ऊर्जा बह रही होती है वह शत्रु होता है / गीता में प्रभू उस मन के सम्बन्ध में कह रहे हैं कि इन्द्रियों में मन मैं हूँ जिसमें निर्विकार उर्जा बह रही होती है //

भाषा एक माध्यम है

भाषा एक साधन है

और

साधन कभीं साध्य नहीं बन सकता

गीता की भाषा के रस को पहचानों उसके रंग को देख कर क्या करोगे ?


========ओम्=============



Wednesday, November 2, 2011

उसे कैसे पहचानें


गीता अध्याय –06भाग –11


[ ] योग – संन्यास


सूत्र – 6.5


उद्धरेत् आत्मनाआत्मानंआत्मानं अवसादयेत् /


आत्मा एव हि आत्मनः बंधु : आत्मा एव रिपु : आत्मन : //


इस सूत्र में 15 शब्द हैं और उनमें से 07 शब्दों में आत्मा , आत्मन एवं आत्मानं शब्द हैं ; इस सूत्र को गंभीरता से देखें ------


इस सूत्र का अर्थ भक्ति वेदान्त प्रभुपाद जी कुछ इस प्रकार से करते हैं -------


मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपनें को नीचे न गिरनें दे यह मन बद्धजीव का मित्र है और शत्रु भी //


Dr. S. Radhakrishanan,s understanding of this verse is as under -----


Let a man lift himself by himself ; let him not degrade himself ; for the Self alone is the friend of the self and the Self alone is the enemy of the self .


औरमैं इस सूत्र को कुछ इस प्रकार से समझता हूँ ------


मनुष्य मन केंद्रित होता है ; मनुष्य का मन उसका मित्र एवं शत्रु दोनों है ; मन जब गुणों के प्रभाव में रहता है तब वह शत्रु होता है और जब निर्विकार होता है तब मित्र होता है //


धमपदके माध्यम सेभगवान बुद्धकहते हैं ------


अत्ता ही अत्तनों नाथो


अत्ता ही अत्तनों गति //


Self is the Lord of the self


Self is the goal of the self


The ultimate Supreme is within and the identification process of the Ultimate One is the Dhyana .






गीता सूत्र – 10.22 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं … ....


इन्द्रियाणाम् मनः अस्मि;इंद्रियों में मन मैं हूँ//


सूत्र – 6.5 में कह रहे हैं , मनुष्य का मन ही उसका मित्र एवं शत्रु है और सूत्र – 10.22 में कह रहे हैं , मनुष्य में इंद्रियों का जोड़ – मन मैं हूँ , इन दो सूत्रों से आप क्या प्राप्त कर रहे हैं ?


परमात्मा रात भी है और दिन भी , परमात्मा सुख भी है और दुःख भी


परमात्मा प्यार भी है और वासना भी , परमात्मा अंदर भी है और बाहर भी


परमात्मा दूर भी है और नजदीक भी /


और परमात्मा मित्र भी है और शत्रु भी क्योंकि प्रकृति के तीन गुण प्रभु से हैं पर प्रभु गुणातीत है//


गुण प्रभावित मन शत्रु है और निर्गुण मन मित्र होता है//


======ओम्======




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