Sunday, November 6, 2011

मन से उसे देखो

गीता अध्याय –06

[ ] योग – सन्यास

गीता सूत्र –6.6

बंधु:आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जित: /

अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रु-वत्//

गीता के इस सूत्र का अर्थ स्वामी प्रभुपाद जी कुछ इस प्रकार से ब्यक्त करते है ------

जिसनें मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया है उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा //

Dr S. Radhakrishnan explaines this verse of Gita as under -------

For him who has conquered his [ lower ] self by the [ higher ] Self his Self is a friend but for him who has not possessed his [ higher ] Self , his very Self will act in enemity like an enemy .

दो विश्व प्रशिद्ध दार्शनिकों की बात को आप यहाँ देख रहे हैं और इनके बातों में अपनी सोच को कही ठहराना आप का काम है / आप क्या समझते हैं किसी को जीत कर मित्र बनाना सुलभ है ? वह जो हारता है हमेशा इस ताक में रहता है कि कब मौका मिले और मैं अपना बदला लूं , उसे जो अपना मित्र समझता है वह अपनें ही आंगन में आतें बिछाता है / बुद्ध कहते हैं , मन को अपना मित्र बनाओ , मन से मैत्री साधो और जब मन मित्र बन जाएगा फिर आप से परम सत्य दूर नहीं रहेगा / गीता में प्रभु श्री कृष्ण [ सूत्र – 10.22 ] में कहते हैं , मन मैं हूँ / कौन सा मन वह मन है जिसके लिए प्रभु कह रहे हैं कि इंद्रियों में मन मैं हूँ ? प्रकृति में हम हैं , प्रकृति से हमारा गहरा सम्बन्ध है , हम प्रकृति के अलग स्वयं को नहीं कर सकते / प्रकृति में दो प्रकार की ऊर्जा बह रही हैं ; एक निर्विकार ऊर्जा है और दूसरी ऊर्जा तीन गुणों की उर्जा है / वह ऊर्जा जो तीन गुणों की है वह भोग की ऊर्जा है और वह ऊर्जा जो निर्विकार ऊर्जा है , परम से जोड़ती है / वह मन जिसमें निर्विकार ऊर्जा बह रही होती है वह मन मित्र होता है और वह मन जिसमें गुणों की ऊर्जा बह रही होती है वह शत्रु होता है / गीता में प्रभू उस मन के सम्बन्ध में कह रहे हैं कि इन्द्रियों में मन मैं हूँ जिसमें निर्विकार उर्जा बह रही होती है //

भाषा एक माध्यम है

भाषा एक साधन है

और

साधन कभीं साध्य नहीं बन सकता

गीता की भाषा के रस को पहचानों उसके रंग को देख कर क्या करोगे ?


========ओम्=============



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