Tuesday, November 15, 2011

मन से ब्रह्म की यात्रा

गीता सूत्र – 6.7

जीत – आत्मन:प्रशान्तस्य परम – आत्मा समाहितः

शीत – उष्ण सुख दुखेषु तथा मान अपमानयो:

स्वामी भक्ति वेदान्त जी इस सूत्र के माध्यम से प्रभु श्री कृष्ण की बात को कुछ इस प्रकार से समझा रहे हैं - जिसनें मन को जीत लिया है , उसनें पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है , क्योंकि उसनें शांति प्राप्त कर ली है / ऐसे पुरुष के लिए सुख – दुःख एवं मान - अपमान , सर्दी - गर्मी एक से होते हैं /

Dr S.Radhakrishnan explains this sutra in this way – When one has conquered his [ lower ] and has attained to the calm of self – mastery , his Supreme Self abides ever concentrate , he is at peace in cold and heat , in pleasure and pain , in honour and dishonour .

इस सुत्र के साथ गीता सूत्र – 5.19 को भी देखें जो इस प्रकार है ------

गीता सूत्र – 5. 19

इह एव तै:जितः सर्गः येषां साम्ये स्थितं मनः

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः

स्वामी भक्ति वेदान्त जी इस सूत्र के सम्बन्ध में कह रहे हैं - जिसके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बंधनों को पहले ही जीत लिया है / वे ब्रह्म के सामान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं / Dr. S.Radhakrishanan about this sutra says , Even here [ on earth ] the created [ world ] is overcome by those whose mind is established in equality . God is flawless and the same in all . Therefore are these [ persons ] established in God .

गीता के दो सूत्रों को आप देखेऔर इन सूत्रों के बाते में विश्वस्तर के दो महान ब्यक्तियों की सोच को भी देखा अब आप अपनी सोच को देखें कि आप इनके सम्बन्ध में क्या सोचते हैं ? मेरी सोच कुछ इस प्रकार है - वह जिसकी सत्य मित्रता अपनें मन के साथ है वह समभाव – योगी सभी द्वैत्यों के परे परम शांति में स्थित ब्रह्म – आयाम में स्थित परमानंद का मजा लेता रहता है - He who has established true friendship with his mind he remains in evenness – yoga and fully merged in the Supreme formless One enjoys the supreme bliss .


====ओम्=====



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