Sunday, November 13, 2011

मन एक राह है


गीता अध्याय –06


[ योग संन्यास ]


गीता सूत्र –6.7


जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः /


शीतोष्णसुखदुखेषु तथा मान अपमानयो : //


स्वामी प्रभुपाद इस सूत्र के सम्बन्ध में कह रहे हैं ------


जिसनें मन को जीत लिया है , उसनें पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है , क्योंकि उसनें शांति प्राप्त कर ली है / ऐसे पुरुष के लिए सुख – दुःख , सर्दी - गरमी एवं मान - अपमान एक से हैं //


Dr. Radhakrishanan views are as under -----


When one has conquered one,s self [ lower ] and has attained to the calm of self – mastery , his Supreme Self abides ever concentrate , he is at peace in cold and heat , in pleasure and pain , in honour and dishonour .


जीतनें के दो तरीके हैं ; एक है लड़ाई के माध्यम से और दूसरा है मित्रवत स्थिति में उसे रूपांतरित करके उसका नियंता बन जाना / पहला रास्ता हठ योगियों का है और दूसरा है ध्यानियों का / मन से लड़ना अहंकार को सघन कर्ता है , यह बात हमेशा अपनें अंदर रखनी चाहिए उनको जो हठ योग में उतर रहे हैं और ध्यानी को धीरे - धीरे अपनें ह्रदय की ऊर्जा को बदलना होता है जो स्वतः होता रहता है जहां मात्र द्रष्ट भाव की साधना होती है , जो बिषय से प्रारम्भ हो कर मन पर विसर्जित हो जाती है और आगे की यात्रा निर्वाण की यात्रा होती है जो ब्यक्त नहीं की जा सकती //


Lord Krishna says ----


Do continuous practice to make your mind your best friend and when friendship is established you will be in evenness – yoga which leads to NIRVANA .




=====ओम्======


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