गीता अध्याय –06भाग –11
[ ग] योग – संन्यास
सूत्र – 6.5
उद्धरेत् आत्मनाआत्मानं न आत्मानं अवसादयेत् /
आत्मा एव हि आत्मनः बंधु : आत्मा एव रिपु : आत्मन : //
इस सूत्र में 15 शब्द हैं और उनमें से 07 शब्दों में आत्मा , आत्मन एवं आत्मानं शब्द हैं ; इस सूत्र को गंभीरता से देखें ------
इस सूत्र का अर्थ भक्ति वेदान्त प्रभुपाद जी कुछ इस प्रकार से करते हैं -------
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपनें को नीचे न गिरनें दे यह मन बद्धजीव का मित्र है और शत्रु भी //
Dr. S. Radhakrishanan,s understanding of this verse is as under -----
Let a man lift himself by himself ; let him not degrade himself ; for the Self alone is the friend of the self and the Self alone is the enemy of the self .
औरमैं इस सूत्र को कुछ इस प्रकार से समझता हूँ ------
मनुष्य मन केंद्रित होता है ; मनुष्य का मन उसका मित्र एवं शत्रु दोनों है ; मन जब गुणों के प्रभाव में रहता है तब वह शत्रु होता है और जब निर्विकार होता है तब मित्र होता है //
धमपदके माध्यम सेभगवान बुद्धकहते हैं ------
अत्ता ही अत्तनों नाथो
अत्ता ही अत्तनों गति //
Self is the Lord of the self
Self is the goal of the self
The ultimate Supreme is within and the identification process of the Ultimate One is the Dhyana .
गीता सूत्र – 10.22 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं … ....
इन्द्रियाणाम् मनः अस्मि;इंद्रियों में मन मैं हूँ//
सूत्र – 6.5 में कह रहे हैं , मनुष्य का मन ही उसका मित्र एवं शत्रु है और सूत्र – 10.22 में कह रहे हैं , मनुष्य में इंद्रियों का जोड़ – मन मैं हूँ , इन दो सूत्रों से आप क्या प्राप्त कर रहे हैं ?
परमात्मा रात भी है और दिन भी , परमात्मा सुख भी है और दुःख भी
परमात्मा प्यार भी है और वासना भी , परमात्मा अंदर भी है और बाहर भी
परमात्मा दूर भी है और नजदीक भी /
और परमात्मा मित्र भी है और शत्रु भी क्योंकि प्रकृति के तीन गुण प्रभु से हैं पर प्रभु गुणातीत है//
गुण प्रभावित मन शत्रु है और निर्गुण मन मित्र होता है//
======ओम्======
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