Wednesday, November 2, 2011

उसे कैसे पहचानें


गीता अध्याय –06भाग –11


[ ] योग – संन्यास


सूत्र – 6.5


उद्धरेत् आत्मनाआत्मानंआत्मानं अवसादयेत् /


आत्मा एव हि आत्मनः बंधु : आत्मा एव रिपु : आत्मन : //


इस सूत्र में 15 शब्द हैं और उनमें से 07 शब्दों में आत्मा , आत्मन एवं आत्मानं शब्द हैं ; इस सूत्र को गंभीरता से देखें ------


इस सूत्र का अर्थ भक्ति वेदान्त प्रभुपाद जी कुछ इस प्रकार से करते हैं -------


मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपनें को नीचे न गिरनें दे यह मन बद्धजीव का मित्र है और शत्रु भी //


Dr. S. Radhakrishanan,s understanding of this verse is as under -----


Let a man lift himself by himself ; let him not degrade himself ; for the Self alone is the friend of the self and the Self alone is the enemy of the self .


औरमैं इस सूत्र को कुछ इस प्रकार से समझता हूँ ------


मनुष्य मन केंद्रित होता है ; मनुष्य का मन उसका मित्र एवं शत्रु दोनों है ; मन जब गुणों के प्रभाव में रहता है तब वह शत्रु होता है और जब निर्विकार होता है तब मित्र होता है //


धमपदके माध्यम सेभगवान बुद्धकहते हैं ------


अत्ता ही अत्तनों नाथो


अत्ता ही अत्तनों गति //


Self is the Lord of the self


Self is the goal of the self


The ultimate Supreme is within and the identification process of the Ultimate One is the Dhyana .






गीता सूत्र – 10.22 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं … ....


इन्द्रियाणाम् मनः अस्मि;इंद्रियों में मन मैं हूँ//


सूत्र – 6.5 में कह रहे हैं , मनुष्य का मन ही उसका मित्र एवं शत्रु है और सूत्र – 10.22 में कह रहे हैं , मनुष्य में इंद्रियों का जोड़ – मन मैं हूँ , इन दो सूत्रों से आप क्या प्राप्त कर रहे हैं ?


परमात्मा रात भी है और दिन भी , परमात्मा सुख भी है और दुःख भी


परमात्मा प्यार भी है और वासना भी , परमात्मा अंदर भी है और बाहर भी


परमात्मा दूर भी है और नजदीक भी /


और परमात्मा मित्र भी है और शत्रु भी क्योंकि प्रकृति के तीन गुण प्रभु से हैं पर प्रभु गुणातीत है//


गुण प्रभावित मन शत्रु है और निर्गुण मन मित्र होता है//


======ओम्======




No comments:

Post a Comment

Followers