Saturday, May 12, 2012

गीता में अर्जुन का छठवां प्रश्न

गीता श्लोक –6.33

यः अयं योगः त्वया प्रोक्त : साम्येन मधुसूदन /

एतस्य अहम् न पश्यामि चंचलात्वात् स्थितिम् स्थिराम् //

इस श्लोक को कुछ इस प्रकार से देखें … ....

मधुसूदन यः अयं योगः त्वया साम्येन प्रोक्ता

चंचलत्वात् अहम् एतस्य स्थिराम् स्थितिम् न पश्यामि /

हिंदी भावार्थ -----

हे मधुसूदन!जो यह समभाव योग आपने बताया उसे मैं अपनें मन की चंचलता के कारण समझनें में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ//

इस पश्न के सम्बन्ध में प्रभु कहते हैं ------

गीता श्लोक –6.35

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहम् चलम्/

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते//

अर्थात … ..

हे महाबाहो!तुम जो कह रहे हो वह सत्य है लेकिन मन की चंचलता अभ्यास योग से मिले वैराज्ञ प्राप्ति से दूर होती है और मन परम सत्य पर स्थिर हो जाता है//

कुछ लोग इस सूत्र को कुछ इस प्रकार से देखते हैं …..

मन की चंचलता अभ्यास एवं वैराज्ञ से शांत होती है ; यह बात सुननें एवं पढनें में अति सरल दिखती है लेकिन करनें में यह दिशाहीन मार्ग की तरह दिखती है / वैराज्ञ कोई वास्तु नहीं कि जब चाहा प्राप्त कर लिया , गए काशी - मथुरा और बन गए सर मुडा कर वैरागी , वैराज्ञ का अर्थ है वह स्थिति जहाँ राग कि छाया तक न पड़े और यह संभव है अभ्यास योग से / अभ्यास योग क्या है ? कर्म में कर्म बंधनों की समझ भोग तत्त्वों की आसक्ति से दूर रखता है और सभीं कर्म आसक्ति रहित समभाव में होते रहते हैं , इस स्थिति को प्राप्त करनें वाला कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म की झलक पाता रहता है और उसके सभीं कर्म मंगल मय होते चले जाते हैं / यह तब सभव होता है जब … ...

विषय,इंद्रिय,मन,बुद्धि के स्वभाव को देखनें का अभ्यास किया जाए और भोग तत्त्वों जैसे आसक्ति,कामना,क्रोध,लोभ,मोह,भय,आलस्य एवं अहँकार को समझा जाए/

भोग तत्त्वों का द्रष्टा , अपने कर्मों का कर्ता नही द्रष्टा होता है और वह तीन गुणों को कर्ता देखता है / ध्यान , तप , सुमिरन , पूजा , पाठ ये सब अभ्यास – योग के माध्यम हैं /

====ओम्======



No comments:

Post a Comment

Followers