गीता अध्याय : 12 का सार ..
● साकार और निराकार उपासकों में उत्तम उपासक कौन होते हैं ?
● निराकार उपासक प्रभु को प्राप्त करते हैं ।
● साकार उपासक उत्तम योगी होते हैं ।
● निराकार उपासना में कष्ट अधिक है ।
● साधनामें समभावकी स्थिति मिलने पर साधना सिद्ध होती है ।
★ प्रभु के वचन
हे अर्जुन ! तुम अभ्यास योग से मुझ पर अपनें चित्त को केंद्रित करो ..
या अपनें कर्मों को तूँ मुझे समर्पित करो ..
या फिर चाह रहित कर्म करो ।
प्रभु श्री कृष्ण की इन 03 बातों में पूरा वेदांत दर्शन ज्ञान - सार और पतंजलि योग दर्शन का पूरा ज्ञान - सार छिपा है।
अभ्यास सिद्धि से पूर्ण समर्पण का भाव जागृत होता है । पूर्ण समर्पण में ईश्वर भाव से मन की वृत्तियाँ क्षीण होती हैं , बुद्धि निर्मल होती है और कर्म बंधनों के मुक्ति मिलती है । वितृष्ण ( वैराग्य ) की ऊर्जा प्रवाहित होने से आसक्ति मुक्त कर्म होने लगता है जो ज्ञानयोग की परानिष्ठा है।
गीता अध्याय - 12 का हिंदी भाषान्तर⬇️
श्लोक : 1 > अर्जुन का प्रश्न - 12
एक जो सततयुक्त भक्त हैं और दूसरे जो अक्षर - अव्यक्तके उपासक हैं , इन दोनों में अति उत्तम योगवित्त कौन हैं ?
श्लोक : 2 - 20 > प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ⬇️
श्लोक - 2
ऐसे योगी जो मुझ पर अपना मन एकाग्र करके श्रद्धायुक्त , नित्ययुक्त मेरी उपासना करते हैं , वे योगियों में अति उत्तम योगी होते हैं ।
श्लोक : 3 - 4 > निराकार उपासक
जो इन्द्रिय समुदाय को बश में रखते हुए अचिन्त्य , सर्वव्यापी , अनिर्देश्य सदा एकरस , अचल , अव्यक्त अविनाशी , अक्षर की सर्व भूतोंके हित के लिए निरंतर उपासना करते हैं , वे समभाव योगी मुझे ही प्राप्त करते हैं ।
श्लोक - 5
अव्यक्त में आसक्त चित्त माध्यम से की जा रही साधना में विशेष क्लेश है क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त की गति प्राप्ति में दुःख अधिक मिलता है ।
श्लोक : 12 : 6 - 7
जो मेरे परायण हैं और अपनें सम्पूर्ण कर्मों को मुझको अर्पित करके अनन्ययोग से ध्यान करते हैं
ऐसे मुझ को चित्त में बसाए हुए प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु संसार समुद्र से उद्धार कर देता हूँ ।
श्लोक - 8
मुझ में मन को लगा , मुझ में ही बुद्धि लगा , इस प्रकार तुम मुझमें ही निवास करेगा ।
श्लोक - 9
यदि मुझपर मन को स्थिर नहीं कर सकता तो अभ्यासयोग से मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर ।
श्लोक - 10
यदि अभ्यासमें असमर्थ हो तो पूर्ण समर्पण भाव से मेरे लिए कर्म करो । इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करता हुआ तुम सिद्धि को प्राप्त होगा।
श्लोक - 11
यदि इन को भी करने में असमर्थ है तो यतात्मवान् सर्व कर्मफल त्याग करो ।
श्लोक - 12 . 12
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है , ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है , ध्यान से कर्मफल त्याग श्रेष्ठ है क्योंकि कर्मफल त्याग से तुरंत अनंत शांति मिलती है।
श्लोक : 13 - 14
जो सर्वभूतों में द्वेष भाव रहित , मैत्रीभाव , करुणा एवं निर्मम निरहंकार होता है एवं सुख - दुःख में समभाव रहता है तथा क्षमाभाव रखता है , वह सतत संतुष्ट रहता है । वह मुझमें दृढ़ निश्चय वाला , मन बुद्धि को मुझे अर्पित करने वाला , मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।
श्लोक - 15
जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता , जो हर्ष , अमर्ष ( दूसरों की उन्नित को देख कर जो संताप होता है ) , भय और उद्वेग आदि विकारों से रहित है , वह भक्त मुझे प्रिय है ।
श्लोक - 16
जो आकांक्षा रहित शुचि (अंदर - बाहर से शुद्ध ) है , जो चतुर , उदासीन गतव्यथ ( दुःख मुक्त ) है , वह सर्वारम्भ परित्यागी ( सब आरंभों का त्यागी ) मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।
श्लोक - 17
जो हर्ष , द्वेष , शोक , कामना रहित है , जो शुभ - अशुभ कर्मों का त्यागी है , वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है ।
श्लोक : 18 - 19
जो शत्रु - मित्र , मान -अपमान में सम है तथा सर्दी - गर्मी और सुख - दुःख में सम है और आसक्ति रहित है , जो निंदा - स्तुति को समान समझता है । जो मौनी और संतुष्ट रहता है । जो ममता - आसक्ति रहित है । जो स्थिरमति , भक्तिमान् है , वह मुझे प्रिय है ।
श्लोक - 20
जो पुरुष श्रद्धायुक्त ऊपर कही गयी धर्मयुक्त बातों का निष्काम भाव से सेवन करता है , वह भक्त मुझे अतिशय प्रिय है ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
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