Tuesday, November 23, 2021

गीता अध्याय - 4 हिंदी भाषान्तर

 

【 गीता अध्याय : 2 गीता तत्त्व विज्ञान में 】

गीता अध्याय - 4

श्रीमद्भागवतगीता अध्याय - 4 के बिषय👇

क्र सं

बिषय

श्लोक 

योग


● अर्जुन का चौथा प्रश्न

◆ पिछले जन्मों को जानना ● प्रभु से परिचय ● वर्ण व्यवस्था

1 - 14

14


# राग , भय , क्रोध मुक्त योगी

# देव पूजन से कर्म फल प्राप्ति

# कर्म 

15 - 19

05


आसक्ति , समभाव 

20 - 23

04


यज्ञ

24 - 33

10


ज्ञान 

34 - 42

09

योग

➡️

➡️

42

गीता अध्याय : 4 > ध्यानोपयोगी श्लोक

5

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40

41

41

योग👉

18


अध्याय - 4 की एक झलक ⬇

★ अध्याय - 4 में प्रभु श्री कृष्ण अपनें 41 श्लोकों नें से 07 श्लोकों ( 6 - 9 , 11 , 13 , 14 ) के माध्यम से अपने को निम्न प्रकार व्यक्त करते हैं 👇

★ मैं अजन्मा , अविनाशी , सभीं प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ ।

★ जब जब धर्म घटता है , अधर्म बढ़ता है तबतब साधु पुरुषों के उद्धार एवं पापियों के संहार के लिए मैं  निराकार से साकार रूप में अवतरित होता हूँ।

★ मेरे जन्म और कर्म निर्मल एवं दिव्य हैं , जो इसे तत्त्वसे जान लेता है वह मुझे प्राप्त करता है ।

★ चार वर्णों की रचना मेरे द्वारा उनके गुण - कर्म के आधार पर की गई है।

★ कर्म मुझे नहीं बाधते और जो मुझे जान लेता है उसे भी कर्म नहीं बाध पाते।

★ श्लोक : 4.4 के माध्यमसे अर्जुनका गीता में चौथा प्रश्न निम्न प्रकार है ⤵

⚛आपका जन्म अभीं हाल का है और विवस्वान् ( सूर्य )का जन्म बहुत पुराना है । अतः मैं कैसे समझूँ कि कल्पके प्रारंभमें यह योग आप सूर्यको बताये थे ?

💐 अध्याय  : 3  में श्लोक - 3.36 के माध्यमसे अर्जुन का प्रश्न था कि मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों कर बैठता है ?  इस प्रश्नके उत्तरमें अध्याय : 3 के आखिरी 07 श्लोक  हैं और अध्याय : 4 के प्रारंभिक 03 श्लोक  हैं ।


● आगे  अध्याय - 4 में पिछले जन्मों  की स्मृतियों में लौटने के सम्बन्ध में संकेत दिया गया है जिसे बुद्ध आलय विज्ञान और महाबीर जाति स्मरण कहते हैं ।

● बीतराग भय और क्रोध मुक्त ज्ञानी प्रभु में होता है , यह सूत्र भी इसी अध्याय से है ।

श्लोक : 29 - 30 यज्ञ से संबंधित हैं और इनमें  पूरक , कुम्भक और रेचक प्राणायाम को बताया गया है । 

यज्ञों से सम्बंधित श्लोक > 24 - 33

◆ ज्ञान सम्बंधित श्लोक > 34 - 42


अब आगे 

गीता अध्याय - 4 सविस्तार हिंदी भाषान्तर ⤵️

श्लोक : 4.1- 4.3 

प्रभु श्री कह रहे हैं ..

● मैं इस अव्यय योग को पहले विवस्वान ( सूर्य ) से कहा था । सूर्य अपनें पुत्र विवस्वान् मनु से कहा  , विवस्वान् मनु अपनें पुत्र इक्ष्वाकु से कहाइस प्रकार परंपरा से यह योग राजर्षियोंके पास पहुँचा । इसके बाद बहुत समय तक यह योग पृथ्वी में लुप्त हो गया था । तूँ मेरा सखा और भक्त है अतः यह पुरातन योग आज मैं तुमको बताया ।

यह कौन से योग की बात प्रभु कर रहे हैं ? 

इस प्रश्नके उत्तर हेतु आप गुट अध्याय : 3 अंत के श्लोक : 36 - 42 को देखे और अध्याय : 4 के प्रारंभिक 03 श्लोकों को भी देखें ।

श्लोक : 4.4

अर्जुन का  गीता में चौथा प्रश्न ⬇️

आपका जन्म तो वर्तमान का हैं और 

विवस्वान् का जन्म प्राचीन है ( परम् ) है । 

इस प्रकार में कैसे समझ लूँ कि आप इस योग विवस्वान को बताया था ?

यहाँ विवस्वान् और विवस्वान् मनु को समझें ⤵️

👌 ब्रह्मा पुत्र मरीचि हैं । मरीचि के पुत्र हैं कश्यप ऋषि और कश्यप ऋषि और माँ अदितिके पुत्र हैं विवस्वान् । विवस्वान् और संज्ञा से  श्राद्धदेव जी हुए जिनकों विवस्वान् मनु कहते हैं । ये इस कल्प के सातवें मनु हैं और वर्तमान में यही मनु हैं । श्राद्धदेव के 10 पुत्रों में इक्ष्वाकु बड़े पुत्र हैं । इक्ष्वाकु से सूर्य और  चंद्र बंश खड़े हुए ।

श्लोक : 4.5

प्रभु श्री कह रहे हैं …

हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं । उन जन्मों को तूँ नहीं जानता पर मैं जानता हूँ …

यहाँ श्लोक 2.12 को भी देखें …

न तो ऐसा ही है कि किसी काल में मैं नहीं था ,ऐसा भी नहीं है कि तूँ किसी काल में नहीं था और ऐसा भी नहीं कि यहाँ एकत्रित राजा लोग भी किसी काल में नहीं थे । ऐसा भी नही कि आगे आने वाले समय में हम सब न होंगे..

प्रभु श्री कृष्ण वही कह रहे हैं जो बुद्ध अपने आलय विज्ञान और महाबीर अपने जाति स्मरण ध्यान विधियों के माध्यम से बताते हैं ।

श्लोक : 4.6

मैं अव्ययात्मा सभीं भूतों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ ।

श्लोक : 4.7, 4.8

जब जब धर्म की हानि होती है , अधर्म की वृद्धि होती है तब - तब मैं साकार रूप धारण कर अवतरित होता हूँ…

साधु पुरुषों के उद्धार हेतु , पापियों के विनाश हेतु तथा धर्म की स्थापना हेतु युग - युग में मैं प्रकट होता हूँ ।

श्लोक : 4.9

मेरे जन्म - कर्म दिव्य हैं , जो मनुष्य इसे जान लेता है वह  मुझे प्राप्त होता हैं ।

श्लोक : 4.10

राग , भय , क्रोध रहित मुझमें स्थित , मेरे आश्रित रहने वाले ज्ञान तप से पवित्र हो कर मेरे भावको प्राप्त होते हैं ।

यहाँ देखें गीता श्लोक - 2.56 , 3.34 और भागवत - 3.29

गीता श्लोक : 2.56

समभाव , राग , भय और क्रोध मुक्त मुनि की धी स्थिर होती है ।

गीता श्लोक : 3.34

इन्द्रिय बिषयों में राग - द्वेष छिपे होते हैं ।

भागवत : 3.29

कपिल मुनि - देवहूति वार्ता के अंतर्गत कपिल मुनि कहते हैं ⬇

राग - द्वेष मुक्त चित्त , प्रभु से जोड़ता है ।

गीता श्लोक : 4.11

जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं , मैं  उन्हें वैसे  ही भजता हूँ क्योंकि सभीं मनुष्य सब प्रकार से मेरा अनुसरण करते हैं ।

गीता श्लोक : 4.1

कर्म फल प्राप्ति देव पूजन से संभव है ।

गीता श्लोक : 4.13

गुण - कर्मआधार पर 04 वर्णों की व्यवस्था मेरे द्वारा  रचा गया है फिर भी तुम मुझ अव्ययं को अकर्ता ही समझ।

गीता श्लोक : 4.14

कर्म फलमें मेरी स्पृहा नहीं अतः कर्म मुझे लिप्त नहीं करते 

जो मुझे तत्त्व से जान लेता है , उसे भी कर्म लिप्त नहीं करते।

श्लोक : 4.15

पूर्व काल में मुमुक्षु लोग ऐसा जान कर कर्म करते रहे हैं । तूँ पूर्बजों द्वारा किये गए कर्मो को कर ।

श्लोक : 4.16

कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? इसका निर्णय करनें में बुद्धिमान लोग भी मोहित हो जाते हैं ।

मैं कर्म को भली भाँति बताऊंगा जिससे तुम कर्म - बंधनो से मुक्त हो सके।

श्लोक : 4.17

कर्म - अकर्म और विकर्म के स्वरूप को जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है ।

श्लोक : 4.18

जो कर्म में अकर्म और अकर्म में  कर्म देखता हैं, वह बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला होता है ।

श्लोक : 4.19

जिसके सभीं कर्म कामना -संकल्प के बिना होते हैं , जिसके कर्म ज्ञान अग्नि में भस्म हो गए होते हैं , वे पण्डित कहलाते हैं।

श्लोक : 4.20

त्यक्तवा कर्मफलासँगम्  नित्यतृप्त : निराश्रय : ।

कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एव किंचित् करोति सः ।।

कर्म फल अनासक्त , निराश्रित , नित्यतृप्त कर्म करता हुआ भी कुछ भी नहीं करता अर्थात कर्मबन्धन मुक्त कर्म करता है ।

श्लोक : 4.21

निराशिः यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह : /

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ।।

निराश्रित निर्मल चित्त वाला , समस्त भोग का त्यागी , केवल शरीर को चलाने हेतु कर्म करने वाला है , वह पापमुक्त होता है ।

श्लोक : 4.22

बिना इच्छा किये जो मिले , उससे जो संतुष्ट रहता हो , जो ईर्ष्या मुक्त हो , जो हर्ष - शोक में समभाव रहता हो ,जो सिद्धि - असिद्धि में सम रहता हो , वह कर्म बंधन मुक्त रहता है।

श्लोक : 4.23

आसक्ति रहित ,  ज्ञान में स्थित , हर तरफ से मुक्त और यज्ञ आचरित व्यक्ति के सभीं कर्म विलीन हो जाते हैं ।

श्लोक : 4.24 # यज्ञ #

जिस यज्ञ में अर्पण और हवि (अर्पण किये जाने योग्य द्रव्य ) ब्रह्म हैं  , ब्रह्म रूप यज्ञ करता द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति भी ब्रह्म है , उस ब्रह्म कर्म में रहने वाले योगी को यज्ञ फल भी ब्रह्म ही होता है ।

श्लोक : 4.25 # यज्ञ #

कुछ योगी देव - पूजन रूप यज्ञ का भलीभाँति उपासना करते हैं ।

 कुछ योगी ज्ञान माध्यम से ब्रह्म से एकत्व स्थापित करते हैं , इसे यज्ञेन और यज्ञम् कहते हैं ।

श्लोक : 4.26 # यज्ञ

कुछ योगीजन संयम रूप अग्नि में इंद्रियों का हवन करते हैं । कुछ योगी इन्द्रिय बिषयों का हवन इन्द्रिय रूपी अग्नि में हवन करते हैं ...

श्लोक : 4.27 # यज्ञ #

कुछ सभीं इन्द्रियों एवं प्राणों की क्रियाओं को ज्ञान प्रकाशित आत्मसंयम अग्नि में हवन करते हैं ...

श्लोक : 4.28 # यज्ञ #

कुछ लोग द्रव्य संबंधी यज्ञ करते हैं , कुछ तप रूपी यज्ञ करते हैं और कुछ योग रूपी यज्ञ करते हैं तथा कुछ अहिंसा , तीक्ष्ण व्रत युक्त स्वाध्याय रूप ज्ञान - यज्ञ करते हैं ।

श्लोक : 4.29 - 4.30 # प्राणायाम यज्ञ # 

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणः अपानम् तथा परे ।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायाम   परायणा : 

अपरे  नियताहारा : प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।

सर्व : अप्यते यज्ञविदो यज्ञक्षपितक्लमषा : //

👌 कुछ योगीजन अपान वायुमें प्राणवायुको हवन करते हैं कुछ 

प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं ।

👌 कुछ नियमित आहार करनेवाले प्राणायाम परायण लोग 

प्राण - अपान की गति को रोक कर प्राणों को प्राणों में 

हवन करते हैं । ऐसे योगी यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले यज्ञों को जाननेवाले हैं

👆 पूरक , कुम्भक और रेचक प्राणायाम की तीन विधियों को ऊपर के श्लोकों में बताया गया है ।

श्लोक : 4.31  # यज्ञ # 

यज्ञ में बचे हुए का अमृत तुल्य सेवन करने वाले सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । और यज्ञ न करनेवाले लोगों के लिए यह मनुष्य लोक सुखदायी नही है  फिर ऐसी स्थिति में उन्हें परलोक कैसे सुखदायी हो सकता है !

श्लोक : 4.32   # यज्ञ #

● इस प्रकार वेद बहुत तरह से यज्ञों का वर्णन करते हैं ।

● उन सबको तुम मन , इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान । 

● इस प्रकार यज्ञों को जानकर कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा ।

श्लोक : 4.33  # यज्ञ  #

द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ उत्तम है । सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ।

श्लोक : 4.34 # ज्ञान

तत्त्व ज्ञान प्राप्ति , तत्त्व दर्शियों से सेवा एवं श्रद्धा से प्राप्त किया जा सकता हैं।

श्लोक : 4.35 # ज्ञान

ज्ञान प्राप्ति पर मोह स्वयं समाप्त हो जाता है और भाव आधारित सभीं भूत पहले अपने में और फिर मुझमें दिखने लगते हैं ।

श्लोक : 4.36 # ज्ञान

ज्ञान से सभीं पाप नष्ट हो जाते हैं ।

श्लोक : 4.37 # ज्ञान

जैसे ईंधन को अग्नि भस्म कर देता है वैसे ज्ञान सम्पूर्ण कर्मो को भस्म कर देता है ।

श्लोक : 4.38 # ज्ञान

● योग सिद्धि से ज्ञान प्राप्ति होती है । 

अंतःकरण निर्मल करने का ज्ञानके अलावा और कोई माध्यम नहीं


श्लोक : 4.39 # ज्ञान

श्रद्धावान और जितेंद्रिय , ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञान से परम् शांति मिलती है।


श्लोक : 4.40  # ज्ञान

श्रद्धा रहित संशययुक्त भ्रष्ट हो जाता है और उसके लिए  इस लोक एवं परलोक में भी सुख नहीं है ।


श्लोक : 4.41 # ज्ञान

योग से जो कर्म - संन्यास में पहुंच चुका है वह ज्ञानसे संदेह रहित चित्त वाला होता है और ऐसा योगी कर्म -  बंधन मुक्त होता है ।

श्लोक : 4.42  # ज्ञान

अतः हे भारत ! अज्ञान जनित अपने संदेह को ज्ञान माध्यम से निर्मूल कर दो ।

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