Thursday, November 25, 2021

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 8 हिंदी भाषान्तर

 देखें > गीता तत्त्व विज्ञान , ॐ शांति ॐ और कौन सुनता है 



1 - इस अध्याय में 28 श्लोक हैं जिनमें श्लोक : 1 - 2 के माध्यम से अर्जुन का प्रश्न है ।

अध्याय - 8 के आकर्षण 👇

◆ ब्रह्म , कर्म , अध्यात्म , अधिभूत , अधियज्ञ , अधिदैव की परिभाषाएँ 

◆ अंत समय के समय के समय किये जाने वाले ध्यान की विधि 

◆ परम गति - परम धाम क्या हैं ?

◆ समय की गणित 

● आवागमन की गतियाँ

अध्याय : 08 के श्लोकों का हिंदी भाषान्तर

श्लोक : 1 - 2 > अर्जुन पूछ रहे हैं 👇 

किम् तत् ब्रह्म , किम् अध्यात्मम् , किम् कर्म पुरुषोत्तम।

अधिभूतं च किं प्रोक्तं अधिदैवं किं उच्यते ।। 8.1

अधियज्ञ : कथं कः अत्र देहे अस्मिन् मधुसूदन ।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयः असि नियतात्मभि :।। 8.2

1 - वह ब्रह्म क्या है ?

 2 - अध्यात्म क्या है ?

3 - कर्म क्या है ? 

4 - अधिभूत क्या कहा गया है ?

5 - अधिदैव किसे कहते हैं ? 

6 - यहाँ अधियज्ञ कौन है ? 

7 - अधियज्ञ देहमें कैसे है ? 

👉ध्यान रखें कि यह प्रश्न  गीता अध्याय : 7 श्लोक : 29 - 30 को सुनने के बाद उठ रहा है । अर्जुन बहुत चालाक हैं , प्रभु की बातों को पचा नहीं रहे , उनमें अपना अगला प्रश्न तलाश ले रहे हैं , देखिये यहाँ ⤵️

गीता अध्याय : 7 श्लोक : 29 - 30में प्रभु श्री कहते हैं , " जो मेरे शरण में होकर मोक्ष प्राप्ति के लिए यत्नशील हैं ,वे  1 - ब्रह्म  2 - अध्यात्म और 3 - कर्म को समझते हैं तथा 4 - अधिभूत 5 - अधिदैव एवं 

6 - अधियज्ञ सहित मुझे अंतकाल में जानते  हुए मुझे प्राप्त करते हैं ।

 ★ गीता से प्यार से जुड़िये , भय से नहीं , थोड़ा पढ़िए और ज्यादा सोचिये और जब सोच - सोच में निद्रा आ जाय तो  इसे शुभ लक्षण मानिये । 

गीता यात्रा अनंत की यात्रा है इसे कभीं खंडित न होने दें । 

श्लोक : 3 

● परम अक्षर ब्रह्म है । अक्षर अर्थात सनातन , जैसा है वॉस ही हर काल में बना रहे , जो देश - काल से अप्रभावित रहे । 

● स्वभाव अध्यात्म है ।

● भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला त्याग कर्म है । पहले ब्रह्म को समझते हैं ⬇️

श्रीमद्भागवत पुराण :  11.24.2 + 11.24.3

👉 युगों से पूर्व , प्रलय काल में , आदि सतयुग में और जब कभीं मनुष्य विवेक निपुण होते हैं - इन सभीं अवस्थाओं में यह सम्पूर्ण दृश्य और द्रष्टा , जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकार के भेदभाव से रहित केवल ब्रह्म ही होता हैं ।

ब्रह्म में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है , वह केवल अद्वितीय सत्य है ; मन और  वाणी की उसमें गति नहीं है । वह ब्रह्म ही माया है और उसमें प्रतिविम्बित जीव के रूप में - दृश्य और द्रष्टा के रूप में - दो भागों में विभक्त सा हो गया है । इनमें से एक को प्रकृति कहते हैं । प्रकृति जगत् में कार्य - कारण का रूप धारण किया है । दूसरा ज्ञानरूप है जिसे द्रष्टा या पुरुष कहते हैं । 

कार्य  - कारण सांख्य का बिषय है । उत्पन्न करता को कारण और जो उत्पन्न हो , उसे उस कारण का कार्य कहते हैं । प्रकृति कारण है , पुरुष न कारण है न कार्य और शेष प्रकृति की विकृति से उत्पन्न 23 तत्त्वों में बुद्धि , अहँकार और 05 तन्मात्र कारण - कार्य दोनों हैं और 11 इन्द्रियाँ एवं 05 महाभूत कार्य हैं । 

इंद्रियाँ अहँकार के और महाभूत तन्मात्रों के कार्य हैं ।


# पिछले अंक का शेष भाग यहाँ देखें 

स्वभाव अध्यात्म है ⤵️

 अब यहाँ देखना होगा कि स्वभाव क्या है और अध्यात्म क्या है ?

भागवत 3.6.9 के फूटनोट में लिखा है कि 

11 इंद्रियाँ अध्यात्म हैं अर्थात स्वभाव 11 इंद्रियों से बनता है । 

मनुष्य के अंदर हर पल बदल रहे 03 गुण , इंद्रियों को नियंत्रित करते हैं और इस प्रकार उनके व्यवहार से स्वभाव बनता है और स्वभावतः कर्म होता है । ऊपर गीता श्लोक : 8.3 में आगे कहा गया है -  भूतभावोद्भवकरो विसर्ग : कर्म : 

अर्थात भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला त्याग , कर्म है । 

यहाँ कर्म की परिभाषा  कुछ जटिल है अतः निम्न गीता के कर्म सम्बंधित 39  श्लोकों के सार को देख कर कर्म को समझने का प्रयत्न करना होगा ।


ऊपर दिए गए गीता के 39 श्लोकों का सार ⬇️

👉जीवधारीके लिए पल भर के लिए भी कर्ममुक्त रहना संभव नहीं ।दोष मुक्त कोई कर्म नहीं लेकिन सहज कर्मों को करते रहना चाहिये । आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है जो ज्ञानयोग की परा निष्ठा है । जिस समय जो गुण प्रभावी रहता है , उस घडी वैसा कर्म होता है । कर्म करता गुण हैं ,कर्ताभाव अहँकार की छाया है । हर पल सात्त्विक गुण की ऊर्जा अंतःकरण में बनाये रखने का नाम ही साधना है , चाहे वह किसी रूप में हो ।


श्लोक  : 4 

गीता श्लोक : 8.1 + 8.2 में अर्जुन के 07 प्रश्न हैं ।  सात प्रश्नों में से तीन ( ब्रह्म क्या है , अध्यात्म क्या है , कर्म क्या है ) प्रश्नों के उत्तर को हम श्लोक : 8.3 में देख चुके हैं और अब शेष चार प्रश्नों के सम्बन्ध में प्रभु का श्लोक : 8.4 को देखने जा रहे हैं 👇

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषः च अधिदैवतं ।

अधियज्ञ : अहम् एव अत्र देहे देहभूतां वर ।। 

● क्षर : भावः अधिभूतं अर्थात जन्म - मृत्यु के चक्र में जो हैं , उन्हें अधिभूत कहते हैं ।

● पुरुषः अधिदैवतं अर्थात पुरुष अधिदैव है । 

गीता वेदांत दर्शन का अंग है और वेदांती आत्मा को पुरुष की संज्ञा देते हैं जबकि पुरुष सांख्य दर्शन का शब्द है । पतंजलि योग सूत्र में पुरुष के साथ ईश्वर को परम पुरुष के रुओ में स्थापित करते हैं । पतंजलि योगसूत्र सांख्य के धरातल पर अपनीं किरण फैलता है । एक ईश्वर को छोड़ शेष पतंजलि पूरा सांख्य ही है । 

पतंजलि समाधि पाद सूत्र - 24 में कहते हैं , पुरुष विशेष ईश्वरः । 

सांख्य के 25 तत्त्व पतंजलि योग सूत्र के भी 25 तत्त्व हैं फर्क केवल इतना है कि सांख्य में ईश्वर शब्द नहीं पुरुष है और पतंजलि उसी पुरुष में ही पुरुष विशेष रूप में ईश्वर को रखते हैं । तत्त्व संख्या वही 25 रहती है ।

● देहे अहम् अधियज्ञ : यहाँ प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं , देह में स्थित मैं ,अधियज्ञ हूँ ।

# देह में अधियज्ञ कैसे है ? गीता में इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है अतः यह स्वयं के बोध का बिषय कहा जा सकता है ।


श्लोक : 5

जिसका मन अंत समय ( शरीर त्यागते समय ) मुझमें रमा होता है , वह मेरे भाव को प्राप्त करता है ।

श्लोक : 6

शरीर त्याग के समय मनुष्य का मन जिस भाव में रमा होता है , वह वैसा ही पाता है ।

श्लोक : 7

इसलिये हे अर्जुन ! हर समय तुम मुझे स्मरण करते रहो और युद्ध भी करो । मेरे पर केंद्रित मन - बुद्धि होने से तुम मुझे प्राप्त करोगे ।

श्लोक : 8

अभ्यासयोगयुक्त चित्त वाला दिव्य परम् पुरुष को प्राप्त करता है ।

श्लोक : 9

जो सर्वज्ञ (कवि ) , पुराणं (अनादि ) , सबके धारण करता , अचिन्त्य , अदित्यवर्ण , तम से जो परे हैं , उनको जो स्मरण करता है ... 

श्लोक : 10 - 13

जैन परंपरा में प्रचलित बारदो (Bardo ) ध्यान को यहाँ निम्न  प्रकार बताया जा रहा है ⤵️

◆ अंत कालमें भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में अपनें योग बल से अपनी प्राण ऊर्जा को भृगुटी के मध्य स्थापित करके निश्चल मन से स्मरण करता हुआ दिव्यरूप परम पुरुष को प्राप्त होता है ।

वेदविद् जिसे अक्षर कहते हैं वीतराग यत्नशील साधक जिसमें प्रवेश करते हैं जिसकी प्राप्ति के इच्छुक ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं उस परमपद को मैं बताता हूँ ।

ध्यानविधि

👉सभी द्वारों को रोक कर , मनको हृदय में स्थित करके , प्राणको मस्तक में  स्थापित करके , योग धारणा में स्थित होकर , जो

एक अक्षर ॐ ब्रह्म को मनन करते हुए मेरी स्मृति में देह त्याग करता है , वह  परमगति को प्राप्त करता है ।


श्लोक : 14

हे पार्थ ! जो अनन्य चित्त से मुझे स्मरण करता है , उस नित्ययुक्त योगीके लिए मैं सुलभ हूँ ।

श्लोक : 15

परम् सिद्ध पुरुष (महात्मा ) मुझे प्राप्त करके क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते ।

श्लोक : 16 - 20 > समय की गणित

ब्रह्म लोक सहित सभीं लोक पुनरावर्ती हैं । जो मुझे प्राप्त कर लिया , उसका पुनर्जन्म नहीं होता ।

ब्रह्माका एक दिन = 1000 ( एक चतुर्युग का समय )।

【 सतयुग =  1728000 , त्रेतायुग = 1296000 ,

द्वापर युग = 864000 , कलियुग = 432000 पृथ्वी वर्ष 

अर्थात एक चतुर्युग = 432000 वर्ष के बराबर

★ ब्रह्मा का एक दिन = 4.32 billion years 

सभीं व्यक्त ,ब्रह्मा के दिन के प्रारम्भ के साथ ,अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं और जब ब्रह्मा की रात्रि का प्रारंभ होता है तब अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं ।

भूत समुदाय उत्पन्न हो - होकर प्रकृति के बश में रहते हुए ब्रह्मा की रात्रि के आगमन पर अव्यक्त में लीन होता है और दिन के  आते ही पुनः उत्पन्न होता रहता है ।

उस अव्यक्त से भी परे एक अन्य सनातन अव्यक्त भाव भी है जो सभीं भूतों के नष्ट होने के बाद भी नष्ट नही होता ।

श्लोक : 21

अव्यक्त अक्षर को ही  परमगति कहते हैं और यही परमधाम भी है जिसके प्राप्ति से आवागमन से मुक्ति मिल जाती है ।

श्लोक : 22

हे पार्थ ! परम् पुरुष की प्राप्ति अनन्य भक्ति से संभव है ।

श्लोक : 23

प्रभु कह रहे हैं ⬇️

अब मैं आवागमन मुक्त गति और आवागमनकी गतिको बताऊँगा..


श्लोक : 24 

# सूर्य 06 माह उत्तरायण और 06 माह दक्षिणायन रहते हैं ।

➡️ शुक्ल पक्ष हो और उत्तरायण सूर्य हों तब जो ब्रहवेत्ता योगी देह त्यागता है , वह ब्रह्म में पहुँचता है ।


श्लोक : 25

➡️ कृष्ण पक्ष हो और दक्षिणायन सूर्य हों तब जो योगी देह त्याग करता है , तब वह चंद्रमा की ज्योति पा कर स्वर्ग जाता है । 

वहाँ अपने शुभ कर्मों के फल को भोग कर पुनः वापस आता है ।

श्लोक : 26

➡️ शुक्ल और कृष्ण गतियाँ सनातन  गतियाँ मानी गयी हैं । एक के द्वारा गया हुआ लौटके नहीं आता और दूसरे से गया हुआ वापस आता है ।

श्लोक : 27 , 28

⬆️ ऊपर बतायी गयी गतियों से योगी मोहित नहीं होता अतः तुम हर समय योगयुक्त रहो ।

●● योगी वेद वर्णित यज्ञ , तप , दान आदि के पुण्य फल को उलंघम करके सनातन परमपद को प्राप्त होता है ।

~~◆◆ ॐ ◆◆~~

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