गीता अध्याय : 13 का सार
◆ क्षेत्र - क्षेत्रज्ञका बोध , ज्ञान है ।
★ प्रकृति - पुरुष अनादि हैं ।
★ कार्य - करण प्रकृति मूलक हैं ।
◆ क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ को वेदों एवं ब्रह्म सूत्र में भी बताया गया है।
● देह क्षेत्र है और देह में स्थित मैं ( कृष्ण ) क्षेत्रज्ञ कहलाता हूँ ।
◆ क्षेत्र सविकार है और क्षेत्र में स्थित क्षेत्री (प्रभु ) निर्विकार हैं ।
● 11इंद्रियों , अहँकार , बुद्धि , 05 महाभूत , 05 तन्मात्र , चेतना , धृतिका , विकार , सुख - दुःख , इच्छा - द्वेषादि युक्त यह क्षेत्र है ।
● ब्रह्म न सत् है , न असत् । वह इंद्रिय रहित है पर इंद्रिय बिषयोंको जानता है ।
◆ उसकी इन्द्रियाँ सर्वत्र हैं । संपूर्ण ब्रह्माण्ड उससे एवं उसमें है ।
★ वह अनादि , अव्यय , अविज्ञेय और निर्गुण है ।
अध्याय - 13 के प्रमुख विषय⤵️
श्लोक : 1 - 6 > क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ और ज्ञान
श्लोक - 1
इस देह को क्षेत्र और इसको जाननेवाले को क्षेत्रज्ञ कहा गया है ।आदि शंकराचार्य इस श्लोक को गीता का श्लोक नहीं मानते ..
श्लोक : 2
क्षेत्रज्ञ मुझे समझ । क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है ।
श्लोक : 3
क्षेत्र जैसा है , जिन विकारों से युक्त है , उस सबको को तुम सुनो ।
श्लोक : 4
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ कैब ऋषि लोग बहुत प्रकार से गाये हैं । वेदों में क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ को बताया गया है । ब्रह्मसूत्र पदों में भी इसे बताया गया है ।
ब्रह्मसूत्र, वेदान्त दर्शन का आधार ग्रन्थ है। इसके रचयिता महर्षी बादरायण हैं । वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं - उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थानत्रयी कहा गया है। उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं।
श्लोक : 5 - 6 > क्षेत्र की रचना
महाभूत , अहँकार , बुद्धि , अव्यक्त , 11 इंद्रियों , 05 बिषय , इच्छा , द्वेष , सुख , दुख , स्थूल देह पिण्ड , चेतना और धृतिका के साथ विकार युक्त यह क्षेत्र है ।
श्लोक : 7 - 11> ज्ञान - अज्ञान
श्रेष्टताके अभिमान का अभाव , दंभ आचरण का अभाव , अहिंसा , क्षान्ति , मन वाणी आदि की सरलता , आचार्य उपासना , शौच , स्थिरता , आत्मविनिग्रह ,
भोगसे वैराग्य , अहंकार का अभाव , जन्म - मृत्यु - जरा - ब्याधि ,दुख तथा दोषों का बार - बार विचार करना ,
पुत्र , स्त्री , घर , धन आदि में अनासक्त , ममता रहित , प्रिय - अप्रिय की प्राप्ति में समचित्त रहना ,
मेरे अनन्ययोग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकांत एवं शुद्ध देश में रहने का स्वभाव तथा मनुष्य समुदाय में स्वयं को श्रेष्ठ समझने का अभाव , अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थित , तत्त्वज्ञानार्थ प्रभु दर्शन आदि ज्ञान है । इसके विपरीत , अज्ञान है ।
1 - अनन्य योग क्या है ?
अनन्य का अर्थ है - एकाश्रयी अर्थात जब चित्त किसी एक सात्त्विक आलंबना के शब्द , अर्थ और ज्ञान अंगों में से किसी एक पर विकल्प शून्य स्थिति में स्थिर हो कर देश - काल सीमा से अप्रभावित लंबे समय तक स्थिर रहता है तो उस चित्त की स्थिति को अनन्य योग की स्थिति कहते हैं । इसे ऐसा समझें कि पतंजलि योग सूत्र में एकाग्रता को गीता अनन्य योग कह रहा है ।
2 - अव्यभिचारिणी भक्ति क्या है ?
अनन्य का ही संबोधन अव्यभिचारिणी है । अस्थिर के लिए व्यभिचारिणी या अनिश्चयात्मिका या अव्यवसायिक शब्दों का प्रयोग होता है - यहाँ गीता श्लोक : 2.41 और 2.66 को भी देखा जा सकता है ।
अव्यभिचारिणी भक्ति ऐसी भक्ति होती है जैसे मीरा की कृष्ण के प्रति भक्ति थी ।
श्लोक : 12 - 18 > ब्रह्म
श्लोक - 12
जो ज्ञेय है ( जाननेयोग्य है ) , जिसको जानने से अमृत ( ज्ञान आनंद ) मिलता है , वह अनादि परम् ब्रह्म न सत् न् ही असत् कहा जाता है ।
यहाँ निम्न सन्दर्भों को भी देखें ⤵️
गीता : 11.37 में अर्जुन कह रहे हैं ⬇️
आप अक्षर सत् - असत् से भी परे हैं और
गीता : 9.19 प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ⤵️
सत् - असत् भी मैं ही हूँ
श्लोक : 13 > ब्रह्म
सब ओर हाँथ - पैर वाला , सब ओर नेत्र , सिर , मुख वाला , सब ओर कान वाला वह , संसार को व्याप्त करके स्थित है ।
श्लोक : 14 > ब्रह्म
वह सम्पूर्ण इन्द्रिय - बिषयों को जाननेवाला है , सब इन्द्रियों से रहित है , अनासक्त होते हुए भी सबका धारण - पोषण करनेवाला है , निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगनेवाला है ।
श्लोक : 15 > ब्रह्म
वह भूतों के बाहर - भीतर है , चर - अचर भी वही है । सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है , अति समीप और अति दूर में स्थित भी वही है ।
श्लोक : 16 > ब्रह्म
अविभक्त , भूतों में विभक्त सा स्थित वह
ज्ञेयम् ( जाननेयोग्य ) तथा धारण - पोषण करनेवाला है , वह रुद्र रूप में संहार करनेवाला तथा ब्रह्मा रूपमें सबको उत्पन्न करनेवाला है ।
श्लोक : 17 > ब्रह्म
वह ज्योतियों का भी ज्योति , अज्ञान से परे ,
ज्ञान, ज्ञेय ग्यानगम्य , सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है ।
श्लोक : 18 > ब्रह्म
इस प्रकार क्षेत्र , ज्ञान ,ज्ञेय को संक्षेप में कहा
गया । मेरा भक्त इसको तत्त्व से जानकर (विज्ञाय ) मेरे स्वरुप को प्राप्त होता है (मद्भावम उपपद्यते )।
श्लोक : 19 > प्रकृति - पुरुष
प्रकृति - पुरुष अनादि हैं । त्रिगुणात्मक पदार्थ , विकार आदि प्रकृति से हैं ।
श्लोक : 20 > कार्य - करण
कार्य - करण , प्रकृति से हैं , पुरुष सुख - दुख भोक्तापन का हेतु है ।
गीता श्लोक : 13.20 सांख्य दर्शन आधारित श्लोक है जिसे समझने के लिए सांख्य के निम्न सन्दर्भ को देखना चाहिए जिनका सम्बन्ध कार्य - कारण और करण से है ⬇️
जो पैदा करता है उसे कारण और पैदा होने वाले को कार्य कहते हैं
जैसे सरसो से तेल निकाला जाता है । यहाँ सरसो सरसो के तेल का कारण कहा जायेगा और तेल की सरसो का कार्य कहेंगे ।
श्लोक : 21> प्रकृति - पुरुष
पुरुष प्रकृति में स्थित है और प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों का भोक्ता है । यही भोग उसे
अच्छी - बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है ।
श्लोक : 22> प्रकृति - पुरुष
देह में स्थित पुरुष , परमात्मा है । वह साक्षी होने से उपद्रष्टा एवं अनुमन्ता , भर्ता , भोक्ता , माहेश्वर - परमात्मा कहा गया है ।
श्लोक : 23 >प्रकृति - पुरुष
पुरुष एवं सगुणी प्रकृति का बोधी , आवागमन मुक्त हो जाता है।
🐧 सांख्य दर्शन में पुरुष विकृत प्रकृति के 23 तत्त्वों को समझ कर अपनें मूल स्वरूप में आ जाता है जिसे मोक्ष कहते हैं और प्रकृति जब यह समझ लेती है कि पुरुष उसे देख लिया है , वह अपनें मूल स्वरूप अर्थात तीन गुणों की साम्यावस्था में आ जाती है ।
श्लोक : 24 + 25 > प्रभु की अनुभूति
➡️आत्मानम् ( प्रभु ) को कितने आत्मना
(निर्मल बुद्धि से ) ध्यान माध्यम से हृदय में देखते हैं । सांख्ययोग से और कर्मयोग से भी आत्मानम्
( प्रभु को ) की अनुभूति होती है ।
श्लोक : 25
अन्य लोग अन्यों से सुनकर आत्मानम् की उपासना करते हैं ।
श्लोक : 26 > क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ संयोग
जितने भी स्थावरजङ्गम - प्राणी हैं , वे क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के योग से हैं अर्थात जो कुछ भी दृश्य वर्ग है वह क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ या प्रकृति - पुरुष के संयोग के फल हैं ।
श्लोक : 27 > प्रभु दर्शन
जो पुरुष सभीं बिनाशशील भूतों में अविनाशी परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है , वही यथार्थ देखता है ।
श्लोक : 28> प्रभु दर्शन
जो सबमें परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है , वह परमगति को प्राप्त करता है।
श्लोक : 29 > आत्मा
जो प्रकृति को कर्म करता रूपमें देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है , वही यथार्थ देखता है ।
श्लोक : 30 > प्रभु दर्शन
जो जिस क्षण सभीं को परमात्मा स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के विस्तार रूप में सभीं भूतों को देखता है ,वह उसी क्षण ब्रह्म को प्राप्त होता है ।
श्लोक : 31 > प्रभु
वह अनादि , निर्गुण और अव्यय होने के कारण शरीर में होते हुए भी न तो कुछ करता है और न ही लिप्त ही होता है ।
श्लोक : 32 > आत्मा
जिस प्रकार सर्वव्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता , वैसे देह में सर्वत्र स्थित आत्मा लिप्त नहीं है ।
श्लोक : 33> आत्मा
जैसे एक सूर्य सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है , वैसे एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है ।
श्लोक : 34 > परम का बोध
इस प्रकार क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो ज्ञान चक्षु द्वारा जानता है , वह परम् को प्राप्त होता है ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
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