गीता अध्याय – 04
सूत्र – 4 . 7
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत/
अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदा आत्मनम् सृजामि अहम्//
जब – जब धर्म घटनें लगता है,अधर्म फैलनें लगता है
तब – तब मैं स्वयं का सृजन करता हूँ //
Whenever unrighteousness spreads and righteousness declines , I appear in form .
सूत्र – 4 . 8
परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम् /
धर्म संस्थाप अर्थस्य संभवामि युगे-युगे //
साधू लोगों के उद्धार के लिए …..
दुष्टों के विनाश के लिए ….
धर्म को पुनर्स्थापित करनें के लिए ….
मैं हर युग में अवतरित होता हूँ //
For the protection of God loving people …..
for the destruction of wicked ….
for the establishment of Dharma …..
I come into form .
प्रभु कह रहे हैं …..
जब अधर्म धर्म को ढक लेता है,अधार्मिक लोग साधू-संतों का जीना मुश्किल कर देते हैं
तब मैं निराकार से साकार रूप में अवतरित होता हूँ / /
साधु पुरुषों की रक्षा के लिए और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए मिझे अवतरित
होना ही पड़ता है //
=====ओम=======