Friday, April 29, 2011


गीता अध्याय – 04


सूत्र – 4 . 7


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत/


अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदा आत्मनम् सृजामि अहम्//


जब – जब धर्म घटनें लगता है,अधर्म फैलनें लगता है


तब – तब मैं स्वयं का सृजन करता हूँ //


Whenever unrighteousness spreads and righteousness declines , I appear in form .




सूत्र – 4 . 8


परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम् /


धर्म संस्थाप अर्थस्य संभवामि युगे-युगे //


साधू लोगों के उद्धार के लिए …..


दुष्टों के विनाश के लिए ….


धर्म को पुनर्स्थापित करनें के लिए ….


मैं हर युग में अवतरित होता हूँ //


For the protection of God loving people …..


for the destruction of wicked ….


for the establishment of Dharma …..


I come into form .




प्रभु कह रहे हैं …..


जब अधर्म धर्म को ढक लेता है,अधार्मिक लोग साधू-संतों का जीना मुश्किल कर देते हैं


तब मैं निराकार से साकार रूप में अवतरित होता हूँ / /


साधु पुरुषों की रक्षा के लिए और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए मिझे अवतरित


होना ही पड़ता है //




=====ओम=======


Tuesday, April 26, 2011

गीता अध्याय –04

सामान्य – सूत्र

गीता अध्याय चार को हम यहाँ चार भागों मे देख रहे हैं जिनमें से पहला भाग है,सामान्य सूत्रों का

और उनमें अब हम अगला सूत्र देखनें जा रहे हैं--------

सूत्र – 4.6

अजः अपि सन् अब्यय आत्मा भूतामाम् ईश्वरः अपि सन्/

प्रकृतिम् स्वाम् अधिष्ठाय संभवामि आत्म – मायया//

इस सूत्र में पभु श्री कृष्ण कह रहे हैं … ......

मैं अजन्मा , सभी भूतों का ईश्वर एवं अब्यय हूँ लेकिन समय – समय पर अपनें निराकार

स्वरुप से साकार स्वरुप को , मैं धारण कर्ता रहता हूँ / निराकार से साकार में आना और पुनः साकार से निराकार में जाना , यह संभव होता है हमारी योग – माया से /


Lord Krishna says …....

Though I am birthless , immortal and Lord of ll beings , I manifest Myself through My own

divine potency [ Yoga – Maya ] .


Prakritim adhishthaya :

The meaning of this may be understood as such …..

Established in My own nature .


परमात्मा को निराकार से साकार रूप मे क्यों आना पड़ता है?

परमात्मा को अपनी योग माया से निराकार से साकार में आनें का कौन जिम्मेदार है?

आप इन दो प्रश्नों के सन्दर्भ में स्वयं में झांकते रहें और पुनः हम मिलेन्हे इस अध्याय के अगले सूत्र के साथ//


=====ओम=======


Saturday, April 23, 2011

गीता अध्याय –04

भाग –03


सामान्य सूत्र श्रृंखला के अंतर्गत अब यहाँ हम अगला सूत्र लेनें जा रहे हैं |

सूत्र –4.5


बहूनि मे ब्यतीतानि जन्मानि तव च अर्जुन|

तानि अहम् वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप||


परम प्रभु कह रहे हैं-----

तुम्हारे और मेरे पहले अनेक जन्म हो चुके हैं,मुझे अपनें सभीं जन्मों की स्मृति है पर

तेरे को उनकी स्मृति नहीं है|


परम प्रभु प्रारम्भ में जब कहते हैं …...

मैं काम – योग की शिक्षा सृष्टि के प्रारम्भ में सूर्य को दिया था,तब अर्जुन तुरंत पूछ बैठते हैं की

यह कैसे संभव हो सकता है,आप तो वर्तमान में हैं और सूर्य सृष्टि के साथ उत्पन्न हुए हैं?

यहाँ इस सूत्र में प्रभु अर्जुन के संदेह को दूर करते हुए कह रहे हैं …...

तूं ठीक कह रहा है,मैं और तूं उस समय भी थे और आज भी हैं और कल भी रहेंगे|

हर जन्म के बात तेरे को तेरी स्मृति बदल जाती है लेकिन मुझे सब पता रहता है की

किस युग में कहाँ और कब कौन – कौन सी घटनाएँ घटित हुई हैं|


पिछले जन्मों की घटनाओं को जानना भारतीय – योग दर्शन का एक भाग है|

बुद्ध ध्यान को आले विज्ञान कहा करते थे और महाबीर जाति स्मरण नां इस योग को दिया था|

बुद्ध और महाबीर तक यह साधना के माध्यम से जानना संभव था की हम पीछले जन्मों में क्या-क्या रहे हैं लेकिन धीरे-धीरे यह ध्यान[योग]समाप्त होता चला गया और आज कहीं किसी योगी के साथ ज़िंदा हो,कहना कुछ कठिन सा है|


======= ओम =======


Wednesday, April 20, 2011

काम योग का प्रारम्भ


गीता अध्याय –04


भाग –02


पिछले अंक में बताया गया कि इस अध्याय के सूत्रों को चार भागों में देखा जाएगा |

आज हम यहाँ भाग – 02 के अंतर्गत सामान्य सूत्रों में निम्न सूत्रों में से कुछ को देखनें

जा रहे हैं |


[]सामान्य सूत्र


4.1

4.2

4.3

4.4

4.5

4.6

4.7

4.8

4.9

4.12

7.16

9.25

17.4

14.18

....


सूत्र –4.1 , 4.2 , 4.3


इन तीन सूत्रों के माध्यम से प्रभु अर्जुन को बता रहे हैं-----------

काम – योग का ज्ञान सबसे पहले मैं सूर्य को दिया था , बाद में यह योग धीरे - धीरे लुप्त होनें

लगा और अब यह पूर्ण रूपेण लुप्त हो चूका है |

आज मैं इस योग को तुम को बता रहा हूँ क्योंकि तूं मेरे शिष्य एवं मित्र हो |


अर्जुन[गीता सूत्र –4.4 ]प्रभु से कहते हैं--------

हे प्रभु ! सूर्य का जन्म तो अति प्राचीन है , वे सृष्टि के के प्रारम्भ में जन्म लिए और आप

वर्तमान में हैं फिर आप काम – योग की शिक्षा सूर्य को कैसे दिए होंगे ?


यहाँ तक इस अध्याय में दो बातें देखनें को मिली ; …..........

* * सृष्टि और सूर्य का गहरा सम्बन्ध है

**आज जो हैं,वे सभीं हैं ही नहीं धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं अर्थात …....

आज जो ज्ञान है … ....

आज जो भूत हैं … ....

आज जो प्रकृति है … ..

आज जो कुछ भी है , वह सब धीरे - धीरे समाप्त हो रहा है ||


======ओम=========


Thursday, April 14, 2011

अध्याय चार से परिचय


गीता अध्याय – 04


दो शब्द


इस अध्याय में प्रभु श्री कृष्ण के 41 श्लोक हैं और प्रश्न के रूप में


अर्जुन का एक श्लोक है, [श्लोक – 4.4 ]


अध्याय – 03 में अर्जुन का जो दूसरा प्रश्न है


[मनुष्य न चाहते हुए भी पाप कर्म क्यों कर्ता है ? ] ,


उसके सन्दर्भ में यह अध्याय है


अध्याय – 03 में प्रभु अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में कहा है .......


मनुष्य की राजसगुण की ऊर्जा जो काम के रूप में होती , उसका रूपांतरण क्रोध है


और क्रोध के सम्मोहन में मनुष्य न चाहते हुए भी पाप में उतरता



प्रभु कहते हैं .........


सृष्टि के प्रारम्भ में मैं सूर्य को काम साधना के सम्बन्ध में बताया था बाद में यह साधना


[योग] आगे बढती हुयी धीरे-धीरे लुप्त होती गयी और अब पूर्ण रूप से


से लुप्त हो चुकी है आज मैं इस योग को तुमको बता रहा हूँ क्योंकि


तूं मेरा मित्र एवं शिष्य दोनों हो



हम गीता के इस अध्य को निम्न चार भागों में देखने जा रहे हैं …...........


[]सामान्य - सूत्र


[]योग – सूत्र


[]यज्ञ – सूत्र


[]ध्यान विधियों से सम्बंधित सूत्र



गीता कहता है-----------


मन माध्यम से निर्वाण प्राप्ति का नाम है,ध्यान



=====ओम============



Sunday, April 10, 2011

काम की गति




गीता अध्याय –03



गीता सूत्र –3.39



ज्ञान का बैरी,काम है



गीता सूत्र –3.40



काम इन्द्रियों को , मन को एवं बुद्धि को गुलाम बना कर रखता है



गीता सूत्र –3.41


इन्द्रिय ध्यान से काम का वेग कमजोर पड़ता है



गीता सूत्र –3.42 + 3.43



इन्द्रियों का केंद्र मन है , मन का केंद्र बुद्धि है और बुद्धि का केंद्र है आत्मा


काम का असर बुद्धि तक रहता है अतः काम को नियोजित करनें का एक ही उपाय बच रहता है


और वह है आत्मा पर स्वयं को केंद्रित करना


आत्मा जिसका केंद्र है वह काम से सम्मोहन से दूर रहता है


आत्मा को केंद्र कैसे बनायें?



निरंतर अभ्यास करनें से आत्मा जो अज्ञेय है , जो अविज्ञेय है , जो अब्यय है जो निराकार है ,


जो प्रभु का अंश है , जो सभी जीवों के ह्रदय में स्थित है , उसे अपनें ध्यान का केंद्र बनाया जा


सकता है




=========== ओम ==============


Tuesday, April 5, 2011

काम और अज्ञान



अध्याय –03


काम का असर


गीता सूत्र – 3.38


धूमेन आव्रियते वह्नि:यथा

आदर्श:मलेन च

यथा उल्बेन् आबृत:गर्भ:

तथा तेन इदंम् आवृतम्||


यहाँ प्रभु कह रहे हैं … ....

जैसे धुएं से अग्नि, जेर से गर्भ एवं धूल से दर्पण ढका रहता है ठीक उसी तरह से काम के प्रभाव में

बुद्धि में स्थित ज्ञान अज्ञान से ढक जाता है|


As fire is covered by smoke , embryo by the amnion and mirror by the dust so is knowledge

covered by the ignorance under the influence of sex – desire .


गीता वह कहता है , जो ह्रदय को छूता है जिसको समझनें के बाद फिर कोई प्रश्न नहीं उठता |

गीता के एक – एक सूत्र को आप अपनाएं और अपनें ह्रदय में बैठाएं |



======ओम==============


Friday, April 1, 2011

काम क्रोध





गीता अध्याय – 03



गीता सूत्र –3.36



यहाँ अर्जुन प्रभु से जानना चाहते हैं ….....................


मनुष्य पाप क्यों करता है ?


यहाँ गीता के निम्न श्लोकों के माध्यम से अर्जुन के प्रश्न के सन्दर्भ में जो बातें प्रभु कहते हैं , उनको समझना उत्तम रहेगा






































































3.36


3.37


3.38


3.39


3.4


3.41


3.42


3.43


6.27


5.23


5.26


2.62


16।21


10.28


7.11





अध्याय03में अर्जुन का यह दूसरा प्रश्न है; पहले प्रश्न में अर्जुन जानना चाहा था , यदि


ज्ञान कर्म से उत्तम हा फिर आप मुझको कर्म में क्यों उतारना चाहते हैं?


ज्योंही अर्जुन का प्रश्न समाप्त होता है कि ….....


मनुष्य पाप क्यों करता है ? तुरंत प्रभु बोल पड़ते हैं --------


काम:एष:क्रोध:एष:


रजोगुण समुद्भव:


महा-अशन:महा-पाप्मा


विद्धि एनं इह वैरिनम ---- गीता - 3.37


अर्थात …...


काम ऊर्जा का रूपांतरण ही क्रोधहै


क्रोध में मनुष्य की बुद्धि में ज्ञान अज्ञान से ढक जाता है और अज्ञान में मन – बुद्धि


अस्थिर हो उठते हैं अस्थिर मन – बुद्धि यह नहीं समझते कि क्या पाप है और क्या पाप नहीं


है ?


काम – क्रोध दोनों राजस गुण के मूल तत्त्व हैं



प्रभु का नपा - तुला उत्तर है तो छोटा लेकिन अपनें में ज्ञान सागर को समेटे हुए है ,


प्रभु कि बात को आप अपनें जीवन में खोजते रहें आप को यह खोज प्रभु तक पहुंचा देगी




====== ओम ========




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