Friday, April 29, 2011


गीता अध्याय – 04


सूत्र – 4 . 7


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत/


अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदा आत्मनम् सृजामि अहम्//


जब – जब धर्म घटनें लगता है,अधर्म फैलनें लगता है


तब – तब मैं स्वयं का सृजन करता हूँ //


Whenever unrighteousness spreads and righteousness declines , I appear in form .




सूत्र – 4 . 8


परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम् /


धर्म संस्थाप अर्थस्य संभवामि युगे-युगे //


साधू लोगों के उद्धार के लिए …..


दुष्टों के विनाश के लिए ….


धर्म को पुनर्स्थापित करनें के लिए ….


मैं हर युग में अवतरित होता हूँ //


For the protection of God loving people …..


for the destruction of wicked ….


for the establishment of Dharma …..


I come into form .




प्रभु कह रहे हैं …..


जब अधर्म धर्म को ढक लेता है,अधार्मिक लोग साधू-संतों का जीना मुश्किल कर देते हैं


तब मैं निराकार से साकार रूप में अवतरित होता हूँ / /


साधु पुरुषों की रक्षा के लिए और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए मिझे अवतरित


होना ही पड़ता है //




=====ओम=======


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