Sunday, January 30, 2011

गीता अध्याय - 02

अध्याय की एक और झलक

गीता सूत्र - 2.59

बिषयों से इन्द्रियों को हटा कर बिषयों से हम मुक्त हुआ
स्वयं को समझते हैं लेकीन यह हमारा भ्रम है ।
मन तो उन - उन बिषयों में उलझा ही रहता है ॥

गीता सूत्र - 2.60

बिषयों से सम्मोहित इन्द्रिय का मन गुलाम बन जाता है ॥

गीता सूत्र - 2.67

आसक्त इन्द्रिय जब मन को अपना गुलाम बना लेती है
तब वह मन प्रज्ञा को भी अपने साथ ले लेता है ॥

गीता के तीन सूत्र हमें दे रहे हैं कर्म - योग की
वह बुनियादी बातें जिनके मनन से मन निर्मल तो होगा ही
बुद्धि भी निश्चयात्मिका बुद्धि में बदल कर परम से परिपूर्ण हो उठती है ॥

मैं कोई बात अपने तरफ से नहीं देना चाहता क्यों की मेरे पास है भी क्या ,
सांख्य - योगी परमं श्री कृष्ण गीता के माध्यम से जो दे रखा है उसके सामनें
हम क्या दे सकते हैं ,
क्या समुद्र जिसके द्वार पर हो वह किसी से एक लोटा पानी मांग सकता है ?
गीता पढो कम , सोचो अधिक , क्यों की ......
गीता की सोच ही अस्थीर बुद्धि को स्थीर कर सकती है ॥
स्थीर बुद्धि में .....
प्रभु का निवास होता है ॥

===== ॐ =====

Sunday, January 23, 2011

गीता अध्याय - 02




एक झलक -----
यह अध्याय गीता में दूसरा बड़ा अध्याय है ; पहला बड़ा अध्याय है - अध्याय - 18
जिसमें 78 सूत्र हैं और
यह अध्याय 72 सूत्रों वाला है ।
अध्याय दो में अर्जुन कहते हैं ------
हे प्रभु मैं इस समय कुछ धार्मिक बातों के कारण भ्रमित हूँ और
आप से प्रार्थना करता हूँ की आप मुझे उचित
मार्ग दिखाएँ और प्रभु अध्याय - 18 में अपनें
आखिरी सूत्र के माध्यम से अर्जुन से पूछते हैं ------
अर्जुन क्या तेरा अज्ञान जनित मोह समाप्प्त हुआ ?
क्या तुम शांत मन से गीता - उपदेश सूना ?

गीता आध्याय दो में दो बातें हैं ;
एक है आत्मा रहस्य जो वेतंत का आत्मा है और दूसरी बात है - स्थिर प्रज्ञ
योगी की पहचान ।
स्थिर प्रज्ञ योगी एक मात्र ऐसा योगी है जो आत्मा को समझता ही नहीं आत्मा में
बसता भी है अर्थात वेदांत का साकार रूप होता है - स्थिर प्रज्ञ - योगी ।
जैसे
अध्याय दो में दो बातें हैं और अध्याय - 18 में भी दो बातें हैं ; संन्यास और त्याग रहस्य ।

संन्यास के साथ त्याग आता है .......
त्याग से स्थिर प्रज्ञता का प्रवेश होता है .....
स्थिर प्रज्ञता वह दृष्टि देती है जो आत्मा का द्रष्टा होती है ॥
अध्याय - दो और अध्याय - 18 जब आपस में मिलते हैं
तब उस योगी के मन दर्पण पर .......
प्रभु श्री की मूर्ति स्पष्ट दिखती है ॥

===== ॐ =====

Friday, January 21, 2011

गीता अध्याय - 02

गीता अध्याय - दो के चार भागों में से
अभी हम पहले भाग में है - ध्यानोपयोगी - सूत्र ।
इस भाग में दो और सूत्रों को देखते हैं --------

[क] गीता सूत्र - 2.51

कर्म - फल की सोच जिस कर्म में न हो वह कर्म योग है और .....
योग मुक्ति पथ होता है ॥
[ख] गीता सूत्र - 2.52

ममता एवं वैराग्य एक साथ एक बुद्धि में एक समय नहीं रहते ॥

Gita shloka - 2.51
acton having no expectation of its result is said to be
karm - yoga which is gateway
of liberation .

Gita- shloka - 2.52
delusion and renunciation can not be together at a time in one intelligence .
These two sutras from Gita are explaining ........
** awareness in action
and ....
** relationship between delusion and vairaagya .

vairaagi keeps his face towards east
and delusion turns him towards west .
Gita is a comlete science of threefold natural- modes
which control the human - mind
and intelligence .
awareness in action ....
awareness in work and .....
awareness in what one is doing ....
takes that man to absolute reality and .....
this is so called ....
gita gyaan ..

=====ॐ ======

Sunday, January 16, 2011

गीता अध्याय - 02

गीता अध्याय - दो का अगल सोपान

दूरेण हि अवरं कर्म बुद्धि -योगात धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणम अन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ गीता - 2.49

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत - दुष्कृते ।
तस्मात् योगाय युज्यस्व योगः
कर्मसु कौशलम ॥ गीता - 2.50

गीत के दो सूत्रों को आप पहले देखें :
गीता में प्रभु कह रहे हैं .......
बुद्धि - योग में भोग कर्म और सत कर्म की पहचान होनी जरुरी है ; योगी को उतना कर्म करना होता है जिसके किये बिना जीवन निर्वाह करना कठीन होता है और भोगी के कर्म अंत हींन होते हैं । भोगी का जीवन समाप्त हो जाता है लेकीन अभी वह अपनें कर्मों की तृप्ति में कहाँ होता है , इसका उसे भी पता नहीं होता और यही तनहाई उसे अति कष्टप्रद मौत देती है ।
योगी अपनें इस जन्म में ही सभी प्रकार के कर्म के प्रभावों से मुक्त हो कर ......
आवागमन से मुक्त हो कर .........
प्रभु में बसेरा करता है ॥
क्या आपको गीता योगी पसंद है ?
यदि हाँ तो -----
देर किस बात की ....
इस महंगाई के जमानें में यदि दुनिया में कोइचीज सस्ती है तो वह है .....
गीता प्रेस , गोरखपुर का ....
गीता ॥

==== ॐ =====

Thursday, January 13, 2011

गीता अध्याय - 02




गीता अध्याय की इस यात्रा में हम अभी गीता सूत्र - 2.47 के सन्दर्भ
में कुछ और गीता सूत्रों को देख रहे हैं ।

आज इस कड़ी में दो - एक और सूत्रों को देखते हैं जो .....
माया , गुण और कर्म सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं ॥

गीता सूत्र - 7.12
प्रभु कह रहे हैं -----
तीन गुणों के भाव मुझ से हैं लेकीन मैं भावातीत और गुनातीत हूँ ॥

गीता सूत्र - 7.13
यहाँ प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं -----
गुनातीत को गुनाधीन नहीं समझ पाता ॥

गीता सूत्र - 7.14
यह सूत्र कह रहा है ------
मेरी तीन गुणों से निर्मत माया को वह समझता है जिसका केंद्र मैं हूँ ॥

गीता के तीन सूत्र इस बात को बता रहे हैं .......
तीन गुणों की माया जो प्रभु से प्रभु में है जो ब्रह्माण्ड के ब्यक्त स्वरुप को बनाती है उसे समझनें के लिए
माया से परे पहुँचना पड़ता है और माया परे पहुंचा योगी ब्रह्म समान होता है ॥
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तीन गुणों में है और मनुष्य के अंदर यही तीन गुण कर्म ऊर्जा के श्रोत हैं ।
तीन गुणों का जो समीकरण होता है वह मनुष्य से वैसा कर्म करवाता है जैसा स्वयं होता है ।
गीता - सूत्र 3.27 एवं 3.28 में हमनें पहले गुण विभाग और कर्म विभाग के सम्बन्ध में देख चुके हैं ॥
जिस दिन विज्ञान को गुण विभाग - कर्म विभाग समीकरण का पता चलेगा ......
वह दिन ......
विज्ञान का एक नया दिन होगा ॥

==== ॐ ======

Monday, January 10, 2011

गीता अध्याय - 02

गीता सूत्र - 2.47 , अध्याय - दो
के सन्दर्भ में
एक कदम और आगे की ओर .....

सूत्र - 18.40
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ऎसी कोई ----
जगह नहीं ....
ऎसी कोई सूचना नहीं ....
जो तीन गुणों से अप्रभावित हो ॥

गीता सूत्र - 3.5 , 3.27 , 3.33 कहते हैं -----
कर्म करनें की ऊर्जा मनुष्य कीअपनी ऊर्जा नहीं है ......
कर्म करनें का भाव तीन गुणों की ऊर्जा का परिणाम है ....
और ....
मैं करता हूँ का भाव ....
अहंकार की छाया है ॥

गीता सूत्र - 2.47 में प्रभु कहते हैं ........
कर्म करना सब का अधिकार है लेकीन कर्म करनें के पीछे उसके परिणाम की सोच का होना
उस कर्म को भोग कर्म बना देता है और मनुष्य इस सोच के कारण प्रभु की ओर कर्म की यात्रा के
रुख को ऊपर से नीचे की ओर मोड़ देता है ॥
कर्म तो करना ही है चाहे उस कर्म के पीछे .....
भोग - भाव हो ...
या फिर ....
उस कर्म का केंद्र प्रभु हों ॥
यदि कर्म करना ही है तो फिर क्यों न ....
उस कर्म को योग बना कर .....
प्रकृति - पुरुष ---
भोग - योग ----
गुण - माया ......
देह - जीवात्मा ......
और ....
निराकार
मायापति
गुनातीत
प्रभु को क्यों न समझा जाए ॥

===== ॐ ====

Friday, January 7, 2011

गीता अध्याय - 02



अध्याय दो , श्लोक - 2.47 के सन्दर्भ में गीता का एक और श्लोक

श्लोक - 14.10
श्लोक कह रहा है ----

मनुष्य के अन्दर तीन गुणों का एक हर पल बदलता रहता , समीकरण होता है ;
जब एक गुण ऊपर उठता है तब अन्य दो गुण दब से जाते हैं
और यह क्रम हर पल चलता रहता है ।
गुण - समीकरण की ऊर्जा ही
कर्म करनें की ऊर्जा है ॥
गुण समीकरण से स्वभाव बनाता है ...
स्वभाव से कर्म होता है ....
और ....
जब इच्छित कर्म - फल नहीं मिलता ....
तब दुःख होता है , और ....
जब अच्छा फल मिलता है तब .....
सुख मिलता है ॥
गीता में प्रभु श्री कृष्ण का जोर है इस बात को समझानें में की ....
फल की कामना जिस कर्म में छिपी हो वह कर्म ....
प्रभु की ओर नहीं ....
नरक की ओर रुख को रखता है ॥
कर्म - योग में
कर्म - बंधनों की पकड़ को नित पल ढीली करते रहना पड़ता है और यह अभ्यास
ही ....
ज्ञान - योग की ....
परा निष्ठा ...
है ॥

==== ॐ =====

Wednesday, January 5, 2011

गीता अध्याय - 02

गीता सूत्र - 2.47 के सन्दर्भ में
तीन गीता के सूत्रों को और देखते हैं -----

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृते ज्ञानवान अपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह : किं करिष्यति ॥ गीता -3.33

यत अहंकारं आश्रित्य न योत्स्ये इति मन्यसे ।
मिथ्या एष ब्यवसाय : ते प्रकृतिः त्वां नियोक्ष्यति ॥ गीता - 18.59

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसी यत मोहात करिष्यसि अवश : अपि तत ॥ गीता - 18.60

गीता के तीन सूत्र कहते हैं ------
तीन गुणों का समीकरण जो हर पल मनुष्य के अन्दर होता है , मनुष्य के स्वभाव का निर्माण
करता है और मनुष्य अपनें स्वभाव का गुलाम है एवं मनुष्य से जो कुछ भी होता है ,
वह उसके स्वभाव से होता है ।

Gita says .....
Threefold natural modes make the nature of beings and
depending upon his nature one does the work .
Modes are the actual doer and man is the only witnesser .
It is dhyana which generates such an energy
which brings in , the awareness about this
Gita - modes science .
Infact [gita - 8.3] nature of human beings , is adhyaatma [ spirituality ] .

Read Gita ....
Think about Gita ....
and .....
slowely slowely ....
merge into ...
Gita

==== ॐ ======

Tuesday, January 4, 2011

गीता अध्याय - 02



भाग - 19
गीता सूत्र - 2.47 के सन्दर्भ में कुछ और सूत्रों को देखते हैं :------
प्रकृते : क्रियमाणि गुनै : कर्माणि सर्वश : ।
अहंकारबीमूढात्मा करता अहम् इति मन्यते ॥

तत्त्वबित्तु महाबाहो गुणकर्मबिभागयो : ।
गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते ॥
गीता सूत्र - 3.27 और 3.28

पहला सूत्र कह रहा है -------
कर्म करनें वाले तो तीन गुण हैं लेकीन अहंकार के सम्मोहन में आकर हम स्वयं को करता समझते हैं ।
और ...
दूसरा सूत्र कह रहा है ----
वेदों में गुण - बिभाग और कर्म बिभाग का उल्लेख है ;
तीन गुणों के नित परिवर्तन के कारण मनुष्य कर्म करता रहा है ।

लोगों की बातें तो आप सुनते ही होंगे ;
जब कोई ठीक ठाक काम हो जाता है ,
जहां लोगों की प्रशंसा बरसती होती है ,
वहाँ हम स्वयं करता होते हैं और जहां तबाही ही तबाही हो रही हो
वहाँ का करता प्रभु होता है ; ऐसा समझो की ---------
प्रभु कोई बहुत बड़ा कचडा डालनें वाला बिन हो ,
अब यह सोचनें की बात है की .......
जब प्रभु के सम्बन्ध में हमारी यह राय है तो प्रभु हमें किस नज़रिए से देखते होंगे ?
क्या हम कभी इस बात पर सोचते भी हैं ?
प्रभु कहते हैं .....
सुख - दुःख , करता भाव और कर्म की रचना मैं नहीं करता , यह सब स्वभावतः हैं ॥

गीता से आप जुड़े रहिये .....
आये दिन एक सूत्र को अपनाते रहिये .....
और यह आप की आदत ......
आप को बुद्धि - योगी श्री कृष्ण से .....
एक दिन ...
मिला ही देगी ॥

=== ॐ =====

Sunday, January 2, 2011

गीता अध्याय - 02




भाग - 18

गीता श्लोक - 18.48
यह श्लोक यहाँ गीता श्लोक - 2.47 के सन्दर्भ में दिया जा रहा है ॥
गीता कह रहा है ----
जैसे बिना धुआं अग्नि का होना संभव नहीं
वैसे बिना दोष कर्म का होना भी संभव नहीं ,
लेकीन सहज कर्मों को करते रहना चाहिए ॥
One can,t give up work suited to one,s nature .
It is not possible to have a work which is free
from defects as a fire can,t be without smoke
similarily work without defect can,t be .

दोष रहित कर्म क्यों नहीं हो सकता ?
गीता यहाँ कह रहा है की बिना दोष कर्म का होना संभव नहीं और यह भी कहता है .....
कर्म एक योग में उतरनें का सहज माध्यम भी है ,
फिर ऐसी स्थिति मेंक्या किया जाए ?
कर्म होता है - गुण - ऊर्जा से और .....
गुण ऊर्जा दोष रहित हो नहीं सकती , अतः ....
कर्म भी दोष रहित नहीं हो सकते लेकीन ....
सहज कर्मों में गुण तत्वों की साधना ....
भोग कर्म को योग में बदल कर ....
प्रभु से परिपूर्ण कर देती है ॥
कर्म सभी जीवों के साथ जन्म से जुड़े हुए हैं
लेकीन मनुष्य कर्म में अकर्म और
अकर्म में कर्म देखनें की ऊर्जा पैदा कर सकता है
जबकि ...
अन्य जीवों में यह क्षमता शून्य है ॥
जिस दिन , जिस घड़ी कर्म में अकर्म दिखनें लगता है ....
उस घड़ी वह ब्यक्ति साधारण ब्यक्ति न रह
कर प्रभु जैसा ही हो गया होता है ॥
धन्य होंगे ऐसे लोग ,
जो दुर्लभ लोग हैं ॥

==== ॐ ====















Saturday, January 1, 2011

गीता अध्याय - 02

भाग - 17

पूर्णरूप से कर्म - त्याग होना संभव नहीं .....
लेकीन .....
कर्म में फल की चाह न हो की साधना........
मनुष्य को ....
कर्म - फल का ....
त्यागी बनाती है ॥
गीता - 18.11

To give up work completely is not possible for embodied being .........
But expecting to have a predesired result from the work being done ,
could be managed to be
controlled and ......
this makes one ......
Relinquisher and ....
this is the symptom of being a ......
KARMA - YOGI

गीता अध्याय - 2 के श्लोक - 2.47 के सन्दर्भ में हम यहाँ
गीता के 13 श्लोकों को देख रहे हैं जिनमें से
यह दूसरा सूत्र है ।
गीता सूत्र - 2.47 में प्रभु अर्जुन को बता रहे हैं -----
कर्मणि एव अधिकार :
मा फलेषु कदाचन ।
कर्म करना सब के बश में है लेकीन ....
कर्म के फल के बारे में सोचना ....
ब्यर्थ है ।
क्योंकि फल क्या होगा की सोच ....
मनुष्य को भ्रान्ति में रखती है और ....
भ्रान्ति तामस गुण का तत्त्व है ॥
राजस - तामस गुण के तत्त्व .....
प्रभु की ओर रुख होनें नहीं देते ॥
Gita - vector algebra को समझना यदि ....
इतना आसान होता हो ....
आज घर - घर में .....
निर्वाण प्राप्त योगी होते ॥

===== ॐ =====

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