गीता सूत्र - 2.47 , अध्याय - दो
के सन्दर्भ में
एक कदम और आगे की ओर .....
सूत्र - 18.40
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ऎसी कोई ----
जगह नहीं ....
ऎसी कोई सूचना नहीं ....
जो तीन गुणों से अप्रभावित हो ॥
गीता सूत्र - 3.5 , 3.27 , 3.33 कहते हैं -----
कर्म करनें की ऊर्जा मनुष्य कीअपनी ऊर्जा नहीं है ......
कर्म करनें का भाव तीन गुणों की ऊर्जा का परिणाम है ....
और ....
मैं करता हूँ का भाव ....
अहंकार की छाया है ॥
गीता सूत्र - 2.47 में प्रभु कहते हैं ........
कर्म करना सब का अधिकार है लेकीन कर्म करनें के पीछे उसके परिणाम की सोच का होना
उस कर्म को भोग कर्म बना देता है और मनुष्य इस सोच के कारण प्रभु की ओर कर्म की यात्रा के
रुख को ऊपर से नीचे की ओर मोड़ देता है ॥
कर्म तो करना ही है चाहे उस कर्म के पीछे .....
भोग - भाव हो ...
या फिर ....
उस कर्म का केंद्र प्रभु हों ॥
यदि कर्म करना ही है तो फिर क्यों न ....
उस कर्म को योग बना कर .....
प्रकृति - पुरुष ---
भोग - योग ----
गुण - माया ......
देह - जीवात्मा ......
और ....
निराकार
मायापति
गुनातीत
प्रभु को क्यों न समझा जाए ॥
===== ॐ ====
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