गीता अध्याय - दो का अगल सोपान
दूरेण हि अवरं कर्म बुद्धि -योगात धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणम अन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ गीता - 2.49
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत - दुष्कृते ।
तस्मात् योगाय युज्यस्व योगः
कर्मसु कौशलम ॥ गीता - 2.50
गीत के दो सूत्रों को आप पहले देखें :
गीता में प्रभु कह रहे हैं .......
बुद्धि - योग में भोग कर्म और सत कर्म की पहचान होनी जरुरी है ; योगी को उतना कर्म करना होता है जिसके किये बिना जीवन निर्वाह करना कठीन होता है और भोगी के कर्म अंत हींन होते हैं । भोगी का जीवन समाप्त हो जाता है लेकीन अभी वह अपनें कर्मों की तृप्ति में कहाँ होता है , इसका उसे भी पता नहीं होता और यही तनहाई उसे अति कष्टप्रद मौत देती है ।
योगी अपनें इस जन्म में ही सभी प्रकार के कर्म के प्रभावों से मुक्त हो कर ......
आवागमन से मुक्त हो कर .........
प्रभु में बसेरा करता है ॥
क्या आपको गीता योगी पसंद है ?
यदि हाँ तो -----
देर किस बात की ....
इस महंगाई के जमानें में यदि दुनिया में कोइचीज सस्ती है तो वह है .....
गीता प्रेस , गोरखपुर का ....
गीता ॥
==== ॐ =====
Sunday, January 16, 2011
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