भाग - 03
अध्याय तीन में अर्जुन के दो प्रश्न हैं कुछ इस प्रकार से -----
** यदि कर्म से उत्तम ज्ञान है तो आप मुझको कर्म में क्यों उतारना चाहते हैं ?
** मनुष्य न चाहते हुए भी पाप कर्म क्यों करता है ?
प्रश्न एक के सन्दर्भ में जो सूत्र दिए गए हैं उनको हम यहाँ दो भागों में देखना चाहेंगे ;
[क] इन्द्रिय - बिषय सम्बंधित सूत्र .......
[ख] कर्म एवं ज्ञान योग सूत्र ......
और ----
इस अध्याय की कुछ बातें प्रश्न दो के सन्दर्भ में जो कही गयी हैं उनको भी देखेंगे ॥
यहाँ इस अध्याय में पहला प्रश्न है -----
यदि कर्म से उत्तम ज्ञान है तो आप मुझको कर्म में क्यों उतारना चाह रहे हैं ?
इस प्रश्न में दो बातें हैं ; एक कर्म और दूसरी बात है ज्ञान की ।
अर्जुन किताबों या शात्रों से जो शब्दों के माध्यम से मिलता है उसे ज्ञान समझ रहे हैं
और कर्म उसे समझ रहे हैं
जो भोग से सम्बंधित क्रियाएं हैं ।
मनुष्य वह समझता है जो उसके अन्दर होता है कोई उसे नहीं समझना चाहता जो समझानें वाला
समझाना चाह रहा होता है । सुननें और सुनानें वालों की यह समस्या
श्री कृष्ण और अर्जुन में मध्य भी थी और आज भी है ।
आज देखिये -----
एक तरफ लोग कहते हैं की घोर कलयुग आ चुका है और ------
दूसरी ओर देखिये -----
गुरुओं की संख्या गुणोत्तर श्रेणी [ geometrical series ] में बढ़ रही है ;
नए - नए गुरु , नए - नए उनके शास्त्र , नए - नए उनके आश्रम और नया - नया उनका दर्शन ।
प्राचीन मंदिर , प्राचीन आश्रम , प्राचीन शास्त्र और प्राचीन जीनें के मार्ग लुप्त हो चुके हैं और
उनके नाम पर लोग अपनें अपने मन - बुद्धि की सोच को खूब फैला रहे हैं ॥
जैसे - जैसे जेब का वजन बढ़ता है ----
भय की सघनता बढती जाती है .....
and fear searches support in the form of religious Guru ।
==== om ======
Saturday, February 26, 2011
Friday, February 25, 2011
गीता अध्याय - 03
भाग - 01
दो शब्द
गीता के इस अध्याय में 43 श्लोक हैं और अध्याय का प्रारम्भ हो रहा है अर्जुन के इस प्रश्न से :-------
अर्जुन कह रहे हैं -----
हे प्रभु ! यदि कर्म से उत्तम ज्ञान है तो आप मुझको कर्म में क्यों उतारना चाह रहे हैं ?
अब आप यहाँ तीन बातों को देखें यदि गीता - बुद्धि योग का मजा लेना चाह रहे हो तब -------
[क] यहाँ अध्याय तीन में अर्जुन ज्ञान और कर्म की बात कर रहे हैं ........
[ख] अध्याय पांच में कर्म - योग एवं कर्म संन्यास की बात उठाते हैं ......
और ....
[ग] प्रभु श्री कृष्ण ......
अध्याय आठ में जा कर कर्म की परिभाषा देते हैं , और ....
अध्याय तेरह में ज्ञान की परिभाषा देते हैं ,
फिर ....
अध्याय तीन से अध्याय बारह तक में ......
कर्म ----
कर्म - योग -----
कर्म संन्यास ----
बैराग्य -----
त्याग -----
एवं
ज्ञान की बातें क्या समझे होंगे ?
किसी को समझनें के लिए उसकी परिभाषा जानना जरुरी होता है
और बिना परिभाषा जाने उसके सम्बन्ध में
और कुछ कैसे जाना जा सकता है ?
यहाँ हम गीता के उन उन्नीश श्लोकों को लेने जा रहे हैं
जिनका सीधा सम्बन्ध है - गीता ध्यान से ॥
गीता का लुत्फ़ उठाइये , गीता को अपनाइए ,
गीता के प्यार में अपने को देखिये -----
गीता कोई सर्प नहीं , गीता तो प्रभु के शब्द हैं , इनसे क्या डरना ----
इनको तो आप अपनें बुद्धि की ऊर्जा का श्रोत बनाइये
और तब ------
आप जो देखेंगे ----
वह होगा ----
नासतो विद्यते भावो
नाभावो विद्यते सत :
===== ॐ =====
दो शब्द
गीता के इस अध्याय में 43 श्लोक हैं और अध्याय का प्रारम्भ हो रहा है अर्जुन के इस प्रश्न से :-------
अर्जुन कह रहे हैं -----
हे प्रभु ! यदि कर्म से उत्तम ज्ञान है तो आप मुझको कर्म में क्यों उतारना चाह रहे हैं ?
अब आप यहाँ तीन बातों को देखें यदि गीता - बुद्धि योग का मजा लेना चाह रहे हो तब -------
[क] यहाँ अध्याय तीन में अर्जुन ज्ञान और कर्म की बात कर रहे हैं ........
[ख] अध्याय पांच में कर्म - योग एवं कर्म संन्यास की बात उठाते हैं ......
और ....
[ग] प्रभु श्री कृष्ण ......
अध्याय आठ में जा कर कर्म की परिभाषा देते हैं , और ....
अध्याय तेरह में ज्ञान की परिभाषा देते हैं ,
फिर ....
अध्याय तीन से अध्याय बारह तक में ......
कर्म ----
कर्म - योग -----
कर्म संन्यास ----
बैराग्य -----
त्याग -----
एवं
ज्ञान की बातें क्या समझे होंगे ?
किसी को समझनें के लिए उसकी परिभाषा जानना जरुरी होता है
और बिना परिभाषा जाने उसके सम्बन्ध में
और कुछ कैसे जाना जा सकता है ?
यहाँ हम गीता के उन उन्नीश श्लोकों को लेने जा रहे हैं
जिनका सीधा सम्बन्ध है - गीता ध्यान से ॥
गीता का लुत्फ़ उठाइये , गीता को अपनाइए ,
गीता के प्यार में अपने को देखिये -----
गीता कोई सर्प नहीं , गीता तो प्रभु के शब्द हैं , इनसे क्या डरना ----
इनको तो आप अपनें बुद्धि की ऊर्जा का श्रोत बनाइये
और तब ------
आप जो देखेंगे ----
वह होगा ----
नासतो विद्यते भावो
नाभावो विद्यते सत :
===== ॐ =====
Tuesday, February 15, 2011
गीता अध्याय - 02
स्थिर प्रज्ञ योगी
अर्जुन अध्याय - 02 में स्थिर प्रज्ञ - योगी को पहचानना चाहते हैं और ....
अध्याय - 14 में [ सूत्र - 14.21 ] गुनातीत - योगी को पहचानना चाहते हैं ....
तो आइये देखते हैं गुनातीत योगी को भी यहीं स्थिर प्रज्ञ योगी के साथ ॥
स्थिर प्रज्ञ योगी और गुनातीत योगी में बाहर - बाहर से देखनें में कोई फर्क नहीं है लेकीन
दोनों की गहराइयों में बहुत फर्क होता है ।
कर्म योग , अपरा भक्ति आदि से जब बैराग्य एवं परा भक्ति में कदम पहुंचता है तब पहले
मन - बुद्धि स्थिर होते हैं जिसको स्थिर प्रज्ञता कहते हैं फिर .....
धीरे - धीरे कदम आगे की ओर चलते हैं जिधर समाधि होती है लेकीन ....
समाधि से ठीक पूर्व गुनातीत की स्थिति से गुजरना होता है जहां ......
तन , मन , बुद्धि के सभी बंधन टूट जाते हैं और सम्पूर्ण देह में मात्र द्रष्टा के रूप में चेतना होती है ।
योगी की यह स्थिति उसे धीरे से समाधि में सरका देती है जहां .....
उसे परम सत्य का बोध होता रहता है लेकीन ......
वह योगी जिसको प्रभु - प्रसाद रूप में यह स्थिति मिली है
उसे वह पुनः वापिस सामान्य स्थिति में आने पर
ब्यक्त नहीं कर सकता ॥
योगी अपनी साधाना का दसवां भाग भी औरों को नहीं दे सकता और ....
उसकी यह मजबूरी उसे सब कुछ मिलनें के बाद भी बेचैन रखती है ॥
इस के बाद दो में से एक स्थिति उस योगी की हो सकती है ----
यातो वह बोल - बोल कर एक दिन अपनें देह को त्याग कर जाता है ...
या ....
कभी बोलता ही नहीं ; पूर्ण मौन स्थिति में रहता हुआ एक दिन अपनी देह को त्याग देता है ॥
===== ॐ ======
अर्जुन अध्याय - 02 में स्थिर प्रज्ञ - योगी को पहचानना चाहते हैं और ....
अध्याय - 14 में [ सूत्र - 14.21 ] गुनातीत - योगी को पहचानना चाहते हैं ....
तो आइये देखते हैं गुनातीत योगी को भी यहीं स्थिर प्रज्ञ योगी के साथ ॥
स्थिर प्रज्ञ योगी और गुनातीत योगी में बाहर - बाहर से देखनें में कोई फर्क नहीं है लेकीन
दोनों की गहराइयों में बहुत फर्क होता है ।
कर्म योग , अपरा भक्ति आदि से जब बैराग्य एवं परा भक्ति में कदम पहुंचता है तब पहले
मन - बुद्धि स्थिर होते हैं जिसको स्थिर प्रज्ञता कहते हैं फिर .....
धीरे - धीरे कदम आगे की ओर चलते हैं जिधर समाधि होती है लेकीन ....
समाधि से ठीक पूर्व गुनातीत की स्थिति से गुजरना होता है जहां ......
तन , मन , बुद्धि के सभी बंधन टूट जाते हैं और सम्पूर्ण देह में मात्र द्रष्टा के रूप में चेतना होती है ।
योगी की यह स्थिति उसे धीरे से समाधि में सरका देती है जहां .....
उसे परम सत्य का बोध होता रहता है लेकीन ......
वह योगी जिसको प्रभु - प्रसाद रूप में यह स्थिति मिली है
उसे वह पुनः वापिस सामान्य स्थिति में आने पर
ब्यक्त नहीं कर सकता ॥
योगी अपनी साधाना का दसवां भाग भी औरों को नहीं दे सकता और ....
उसकी यह मजबूरी उसे सब कुछ मिलनें के बाद भी बेचैन रखती है ॥
इस के बाद दो में से एक स्थिति उस योगी की हो सकती है ----
यातो वह बोल - बोल कर एक दिन अपनें देह को त्याग कर जाता है ...
या ....
कभी बोलता ही नहीं ; पूर्ण मौन स्थिति में रहता हुआ एक दिन अपनी देह को त्याग देता है ॥
===== ॐ ======
Saturday, February 12, 2011
गीता अध्याय - 02
स्थिर प्रज्ञ - योगी कौन है ?
भाग - 02
भाग एक में स्थिर प्रज्ञ - योगी से बारे में कुछ बातें बताई गई , अब आप उन श्लोकों को देखें
जिनका सम्बन्ध सीधे तौर पर स्थिर प्रज्ञ - योगी से है ॥
गीता सूत्र
2.53 , 2.54, 2.7 , 2.8 , 2.55 , 2.70 , 2.71 ,
6.10 , 5.10 , 18.2 , 4.18 , 2.56 , 2.57 ,
2.58 , 2.61 , 2.64 , 3.34 , 6.27 , 2.66 , 2.41 ,
2.68 , 2.69 ,
22 श्लोकों की यह श्रृंखला आप को पूर्ण रूप से स्थिर प्रज्ञ योगी को ब्यक्त करती है ।
आप उठाइये गीता और एक - एक श्लोक को अपना बनानें की कोशिश करे
और जब ----
आप की मित्रता इन श्लोकों से होगी तब .......
आप स्थिर प्रज्ञ - योगी को बुद्धि स्तर पर न जान कर ....
स्वयं स्थिर प्रज्ञ - योगी हो गए होंगे ॥
इतनी सी बात ......
आप
अपनी स्मृति में रखें की -----
स्थिर प्रज्ञ - योगी एक कटी पतंग जैसा होता है .....
उसे देखनें पर ऐसा दिखता है लेकीन वह ऐसा पतंग होता है .....
जिसकी डोर .....
अब्यक्त , निराकार , परम ब्रह्म से जुडी होती है .....
और ...
जो
त्रिकाल दर्शी होता है ॥
===== ॐ =======
भाग - 02
भाग एक में स्थिर प्रज्ञ - योगी से बारे में कुछ बातें बताई गई , अब आप उन श्लोकों को देखें
जिनका सम्बन्ध सीधे तौर पर स्थिर प्रज्ञ - योगी से है ॥
गीता सूत्र
2.53 , 2.54, 2.7 , 2.8 , 2.55 , 2.70 , 2.71 ,
6.10 , 5.10 , 18.2 , 4.18 , 2.56 , 2.57 ,
2.58 , 2.61 , 2.64 , 3.34 , 6.27 , 2.66 , 2.41 ,
2.68 , 2.69 ,
22 श्लोकों की यह श्रृंखला आप को पूर्ण रूप से स्थिर प्रज्ञ योगी को ब्यक्त करती है ।
आप उठाइये गीता और एक - एक श्लोक को अपना बनानें की कोशिश करे
और जब ----
आप की मित्रता इन श्लोकों से होगी तब .......
आप स्थिर प्रज्ञ - योगी को बुद्धि स्तर पर न जान कर ....
स्वयं स्थिर प्रज्ञ - योगी हो गए होंगे ॥
इतनी सी बात ......
आप
अपनी स्मृति में रखें की -----
स्थिर प्रज्ञ - योगी एक कटी पतंग जैसा होता है .....
उसे देखनें पर ऐसा दिखता है लेकीन वह ऐसा पतंग होता है .....
जिसकी डोर .....
अब्यक्त , निराकार , परम ब्रह्म से जुडी होती है .....
और ...
जो
त्रिकाल दर्शी होता है ॥
===== ॐ =======
Friday, February 11, 2011
गीता अध्याय - 02
भाग - 05
गीता अध्याय दो को हम यहाँ चार चरणों में देखनें का प्रयाश कर रहे हैं ।
इस प्रयाश में ध्यानोंपयोगी - सूत्रों , गीता - योगी एवं वेदों का सम्बन्ध और आत्मा के सम्बन्ध में
हम देख चुके हैं
अब देखनें जा रहे हैं -
स्थिर प्रज्ञ - योगी की पहचान को ॥
अर्जुन प्रभु से पूछते हैं [ गीता - 2.54 ]
स्थिर - प्रज्ञ योगी की भाषा कैसी होती है ?
वह कैसे बोलता है ?
वह कैसे बैठता है ?
वह कैसे चलता है ?
जिसको समाधि की अनुभूति हुयी होती है ॥
Who is the man settled in his intelligence ?
The awareness of ......
body and mind purifies the energy .....
flowing in intelligence and in the heart and ....
this process converts the journey into a divine flight which .....
lands somewhere - which is itself the supreme divine .
यहाँ पहले हम यह देखना चाहते हैं की अर्जुन को यह शब्द कहाँ से मिला ?
अर्जुन जब यह जानते हैं की -----
स्थिर प्रज्ञ - योगी को समाधि का अनुभव होता है तब उनको यह भी पता होना चाहिए की .....
स्थिर प्रज्ञ कैसे बोलता है , उसकी भाषा कैसी होती है , वह कैसे उठता है और कैसे बैठता है ?
प्रभु अर्जुन को अपनें श्लोक -2.53 में कहते हैं -----
हे अर्जुन !
जब वेदों के उन प्रशंगों से तेरी बुद्धि अलग होगी जो कर्म - फल प्राप्ति
एवं अन्य भोग तत्वों की प्राप्ति के समर्थन में हैं , और जब तेरी बुद्धि योग में स्थिर होगी तब तूं
समाधि के माध्यम से परम सत्य को समझनें में सफल होगा ॥
When your bewildering intelligence will get out of vedic texts which are responsible
for your unstable mind - intelligence then you will be settled in yoga ,
your intelligence will be settled in it and then through SAMADHI you will be able to realise
the absolute truth which is the absolute reality .
आज इतना ही
===== ॐ ========
गीता अध्याय दो को हम यहाँ चार चरणों में देखनें का प्रयाश कर रहे हैं ।
इस प्रयाश में ध्यानोंपयोगी - सूत्रों , गीता - योगी एवं वेदों का सम्बन्ध और आत्मा के सम्बन्ध में
हम देख चुके हैं
अब देखनें जा रहे हैं -
स्थिर प्रज्ञ - योगी की पहचान को ॥
अर्जुन प्रभु से पूछते हैं [ गीता - 2.54 ]
स्थिर - प्रज्ञ योगी की भाषा कैसी होती है ?
वह कैसे बोलता है ?
वह कैसे बैठता है ?
वह कैसे चलता है ?
जिसको समाधि की अनुभूति हुयी होती है ॥
Who is the man settled in his intelligence ?
The awareness of ......
body and mind purifies the energy .....
flowing in intelligence and in the heart and ....
this process converts the journey into a divine flight which .....
lands somewhere - which is itself the supreme divine .
यहाँ पहले हम यह देखना चाहते हैं की अर्जुन को यह शब्द कहाँ से मिला ?
अर्जुन जब यह जानते हैं की -----
स्थिर प्रज्ञ - योगी को समाधि का अनुभव होता है तब उनको यह भी पता होना चाहिए की .....
स्थिर प्रज्ञ कैसे बोलता है , उसकी भाषा कैसी होती है , वह कैसे उठता है और कैसे बैठता है ?
प्रभु अर्जुन को अपनें श्लोक -2.53 में कहते हैं -----
हे अर्जुन !
जब वेदों के उन प्रशंगों से तेरी बुद्धि अलग होगी जो कर्म - फल प्राप्ति
एवं अन्य भोग तत्वों की प्राप्ति के समर्थन में हैं , और जब तेरी बुद्धि योग में स्थिर होगी तब तूं
समाधि के माध्यम से परम सत्य को समझनें में सफल होगा ॥
When your bewildering intelligence will get out of vedic texts which are responsible
for your unstable mind - intelligence then you will be settled in yoga ,
your intelligence will be settled in it and then through SAMADHI you will be able to realise
the absolute truth which is the absolute reality .
आज इतना ही
===== ॐ ========
Tuesday, February 8, 2011
गीता अध्याय - 02
भाग - 04
आत्मा - 02
न अयं हन्ति न हन्यते --- गीता - 2.19
neither slays nor is slain
न हन्यते हन्यमाने शरीरे --- गीता -- 2.20
He is not slain when the body is slain
अब्यक्त : अचिन्त्य : अविकार्य : अयं ---- गीता -- 2.25
unmanifest, unthinkable, incomprehensible, immutable is , He
समाधि में जो दिखता है , वह है आत्मा
और आत्मा वह है जो गीता के माध्यम से ऊपर बताया गया ॥
secrets of Atman is decoded during the experiencing of the beautitude of samadhi
but this could not be expressed in terms of words or through spoken languages.
ऐसे लोग शादियों के बाद अवतरित होते हैं जिनको .....
आत्मा का बोध होता है ॥
परम श्री कृष्ण जैसा गुरु
और अर्जुन जैसा शिष्य
जब
बतानें और समझनें में असफल रहे ...
तो मैं क्या बता सकता हूँ और ....
पढ़नें वाला क्या समझ सकता है , लेकीन ....
आज का भौतिक विज्ञान विशेष तौर पर particle physics की आज की जो खोज न्यूट्रिनो आदि बारीक
पार्टिकल्स खोज चल रही है उसका केंद्र आत्मा की ही खोज है ॥
जीव कैसे बना ? यह है विज्ञान का मूल बिषय जिस पर आज गहरा शोध चल रहा है और
जीव होनें में जीवात्मा का रहस्य छिपा है ॥
आप भी कुछ देखिये
और फिर मिलेंगे आत्मा के कुछ और सूत्रों के साथ ॥
===== ॐ =====
आत्मा - 02
न अयं हन्ति न हन्यते --- गीता - 2.19
neither slays nor is slain
न हन्यते हन्यमाने शरीरे --- गीता -- 2.20
He is not slain when the body is slain
अब्यक्त : अचिन्त्य : अविकार्य : अयं ---- गीता -- 2.25
unmanifest, unthinkable, incomprehensible, immutable is , He
समाधि में जो दिखता है , वह है आत्मा
और आत्मा वह है जो गीता के माध्यम से ऊपर बताया गया ॥
secrets of Atman is decoded during the experiencing of the beautitude of samadhi
but this could not be expressed in terms of words or through spoken languages.
ऐसे लोग शादियों के बाद अवतरित होते हैं जिनको .....
आत्मा का बोध होता है ॥
परम श्री कृष्ण जैसा गुरु
और अर्जुन जैसा शिष्य
जब
बतानें और समझनें में असफल रहे ...
तो मैं क्या बता सकता हूँ और ....
पढ़नें वाला क्या समझ सकता है , लेकीन ....
आज का भौतिक विज्ञान विशेष तौर पर particle physics की आज की जो खोज न्यूट्रिनो आदि बारीक
पार्टिकल्स खोज चल रही है उसका केंद्र आत्मा की ही खोज है ॥
जीव कैसे बना ? यह है विज्ञान का मूल बिषय जिस पर आज गहरा शोध चल रहा है और
जीव होनें में जीवात्मा का रहस्य छिपा है ॥
आप भी कुछ देखिये
और फिर मिलेंगे आत्मा के कुछ और सूत्रों के साथ ॥
===== ॐ =====
Sunday, February 6, 2011
गीता अध्याय - 02
भाग - 03
आत्मा [ The soul ]
गीता में लगभग चौबीस श्लोक ऐसे हैं जो आत्मा को स्पष्ट करते हैं
कुछ इस प्रकार से की एक बुद्धि आधारित
ब्यक्ति आत्मा - रहस्य को कुछ - कुछ समझ सकता है
और ये श्लोक इस तरह से हैं ------
2.13 - 2.30 तक
18.61 , 10.20 , 15.8 , 15.15 , 13.18
13.32 , 13.33 , 14.5
जब इन श्लोकों को बार - बार मनन करते हैं तब जो भाव मन में आता है
वह कुछ इस प्रकार से होता है ------
आत्मा अब्यक्त है
आत्मा अचिन्त्य है
आत्मा भौतिक , रासायनिक और जैविक ढंग से .......
खंडित नहीं किया जा सकता ----
न मारा जा सकता है न मारता है ----
न जलता है न जलाता है ------
आत्मा नाम से प्रभु सभी भूतों के ह्रदय में स्थिर हैं और .....
सब को कर्मों के आधार पर यन्त्र की तरह चला रहे हैं ------
आत्मा सब के जीवन का आदि , मध्य और अंत है -----
आत्मा देह में सर्वत्र है ......
आत्मा मनुष्य के देह में प्राण ऊर्जा का श्रोत है -----
आत्मा तीन गुणों के माध्यम से देह से जुदा होता है -----
आत्मा जब देह छोड़ता है तब .......
इसके साथ मन - इन्द्रियाँ भी होती हैं जो ......
आत्मा को नया शरीर धारण करनें के लिए बाध्य करती हैं ॥
अब आप ऊपर दिए गए सारांश को ऊपर ही देये गए श्लोकों में खोज कर
गीता के आत्मा - रहस्य को अपना सकते हैं ॥
====== ॐ ========
Thursday, February 3, 2011
गीता अध्याय - 02
भाग - 02
गीता अध्याय दो को हम यहाँ चार भागों में देख रहे हैं जिसमें प्रथम भाग - ध्यायोपयोगी सूत्र को हम देख चुके
हैं और अब देखनें जा रहे हैं - गीता और वेदों के सम्बन्ध को ।
इस भाग में हम जिन श्लोकों को देखनें जा रहे हैं वे इस प्रकार हैं -----
2.42 - 2.46 तक
2.7 - 2.8 , 2.53
और
18.42, 8.3, 13.13, 14.3 - 14.4,
7.5, 7.16, 9.17, 9.20, 9.21,
10.22, 10.35, 12.3, 12.4,
6.41, 6.42,
यहाँ दिए गए चौबीस श्लोकों के माध्यम से हम देखनें जा रहे हैं
गीता और वेदों के समबन्ध को ।
पहल देखते हैं इन सूत्रों के सारांश को जो कुछ इस प्रकार से बनता है ------
वेदों में दो मार्ग हैं - भोग प्राप्ति के उपाय और ब्रह्म मय होनें के उपाय ।
गीता कहता है भोग मात्र एक माध्यम है और जो आध्याम पर टिक गया वह गया , वह मनुष्य के मार्ग से
हट गया और चला गया पशु - मार्ग पर जहां भोग - भोजन के अलावा और कुछ नहीं होता ।
मनुष्य को जो मिला है वह सब अनंत है चाहे वह भोग के साधन हों या स्वयं अनंत हो ।
गीता कहता है -
भोग की उंगली पकड़ कर भोग से परे उठो
और तब तुम देख सकते हो उसे जिस से
यह भोग है , यह संसार है और सम्पूर्ण जगत की सभी सूचनाएं हैं ।
गीता कहता है ----
वेदों में भोग प्राप्ति के अनेक उपाय दिए गए हैं ........
वेदों में स्वर्ग प्राप्ति को परम माना गया है ......
वेदों में कामना पूर्ति के बिधिवत उपाय सुझाए गए हैं ....
मृत्यु के बाद उत्तम जन्म कैसे मिले ?
स्वर्ग का सुख कैसे मिले ?
और जो कुछ भी हम चाहते हो उसे कैसे प्राप्त करें ?
यह सब वेदों में मिलता है , लेकीन इनसे वह नहीं मिलता जिसके बिना हम तृप्त नहीं हो सकते ।
प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ..........
अर्जुन ! भोग से ऊपर उठो और भोग बंधन से जब तुम मुक्त हो जाओगे तब जो तुझको दिखेगा वह है
परम सत्य जिसकी हवा तेरे तो पूर्ण रूप से तृप्त कर देगी ।
गीता में -----
स्वर्ग भी भोग का एक साधन है जहां पहुंचा ब्यक्ति पुनः मृत्यु लोक में आ कर अपनी आगे की यात्रा करता है ।
गीता कहता है ----
जैसे पानी से परिपूर्ण एक बिशाल जल श्रोत के मिलनें से
किसी का एक छोटे जलाशय से जितना
सम्बन्ध रह जाता है उतना ही सम्बन्ध .....
एक गीता - योगी का वेदों से होता है ॥
गीता को वेतांत कहते हैं अर्थात .....
वेदों का जहां अंत होता है -----
गीता वहाँ से प्रारंम्भ होता है ॥
====== ॐ =====
गीता अध्याय दो को हम यहाँ चार भागों में देख रहे हैं जिसमें प्रथम भाग - ध्यायोपयोगी सूत्र को हम देख चुके
हैं और अब देखनें जा रहे हैं - गीता और वेदों के सम्बन्ध को ।
इस भाग में हम जिन श्लोकों को देखनें जा रहे हैं वे इस प्रकार हैं -----
2.42 - 2.46 तक
2.7 - 2.8 , 2.53
और
18.42, 8.3, 13.13, 14.3 - 14.4,
7.5, 7.16, 9.17, 9.20, 9.21,
10.22, 10.35, 12.3, 12.4,
6.41, 6.42,
यहाँ दिए गए चौबीस श्लोकों के माध्यम से हम देखनें जा रहे हैं
गीता और वेदों के समबन्ध को ।
पहल देखते हैं इन सूत्रों के सारांश को जो कुछ इस प्रकार से बनता है ------
वेदों में दो मार्ग हैं - भोग प्राप्ति के उपाय और ब्रह्म मय होनें के उपाय ।
गीता कहता है भोग मात्र एक माध्यम है और जो आध्याम पर टिक गया वह गया , वह मनुष्य के मार्ग से
हट गया और चला गया पशु - मार्ग पर जहां भोग - भोजन के अलावा और कुछ नहीं होता ।
मनुष्य को जो मिला है वह सब अनंत है चाहे वह भोग के साधन हों या स्वयं अनंत हो ।
गीता कहता है -
भोग की उंगली पकड़ कर भोग से परे उठो
और तब तुम देख सकते हो उसे जिस से
यह भोग है , यह संसार है और सम्पूर्ण जगत की सभी सूचनाएं हैं ।
गीता कहता है ----
वेदों में भोग प्राप्ति के अनेक उपाय दिए गए हैं ........
वेदों में स्वर्ग प्राप्ति को परम माना गया है ......
वेदों में कामना पूर्ति के बिधिवत उपाय सुझाए गए हैं ....
मृत्यु के बाद उत्तम जन्म कैसे मिले ?
स्वर्ग का सुख कैसे मिले ?
और जो कुछ भी हम चाहते हो उसे कैसे प्राप्त करें ?
यह सब वेदों में मिलता है , लेकीन इनसे वह नहीं मिलता जिसके बिना हम तृप्त नहीं हो सकते ।
प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ..........
अर्जुन ! भोग से ऊपर उठो और भोग बंधन से जब तुम मुक्त हो जाओगे तब जो तुझको दिखेगा वह है
परम सत्य जिसकी हवा तेरे तो पूर्ण रूप से तृप्त कर देगी ।
गीता में -----
स्वर्ग भी भोग का एक साधन है जहां पहुंचा ब्यक्ति पुनः मृत्यु लोक में आ कर अपनी आगे की यात्रा करता है ।
गीता कहता है ----
जैसे पानी से परिपूर्ण एक बिशाल जल श्रोत के मिलनें से
किसी का एक छोटे जलाशय से जितना
सम्बन्ध रह जाता है उतना ही सम्बन्ध .....
एक गीता - योगी का वेदों से होता है ॥
गीता को वेतांत कहते हैं अर्थात .....
वेदों का जहां अंत होता है -----
गीता वहाँ से प्रारंम्भ होता है ॥
====== ॐ =====
Tuesday, February 1, 2011
गीता अध्याय - 02
पहला सोपान
गीता अध्याय - 02 को हम यहाँ निम्न भागों में देख रहे हैं ------
ध्यानोपयोगी सूत्र
गीता योगी और वेदों का सम्बन्ध
आत्मा
स्थिर प्रज्ञा वाला योगी
प्रथम सोपान के अंतर्गत ध्यानोपयोगी सूत्रों में हमनें इस अध्याय के बाईस सूत्रों को देखा और
साथ अन्य अध्यायों के चौबीस अन्य सूत्रों को भी देखा । अब हम अभी तक जो कुछ भी
अध्याय - दो के अंतर्गत देखा है ,उसका सारांश पुनः देखते है फिर अगले सोपान पर चलेंगे ।
[क] भोग में आसक्त मन प्रज्ञा को भी अपने साथ ले लेता है ।
[ख] कर्म इन्द्रियों को मन - माध्यम से साधना चाहिए ।
[ग] प्रकृति के तीन गुण मनुष्य के स्वभाव का निर्माण करते हैं ।
[घ] मनन से आसक्ति , आसक्ति से कामना , कामना से क्रोध उत्पन्न होता है ।
[च] मोह और वैराग्य एक साथ एक बुद्धि में नहीं रहते ।
[छ] चाह रहित कर्म निर्वाण का द्वार है ।
अब अगले अंक में हम देखेंगे - वेदों का
गीता - योगी से सम्बन्ध कैसा है ?
गीता मन की गणित है , इसको वह समझता है
जो अपनें मन को अपनें से अलग देखनें का यत्न करे ॥
===== एक ओंकार ======
गीता अध्याय - 02 को हम यहाँ निम्न भागों में देख रहे हैं ------
ध्यानोपयोगी सूत्र
गीता योगी और वेदों का सम्बन्ध
आत्मा
स्थिर प्रज्ञा वाला योगी
प्रथम सोपान के अंतर्गत ध्यानोपयोगी सूत्रों में हमनें इस अध्याय के बाईस सूत्रों को देखा और
साथ अन्य अध्यायों के चौबीस अन्य सूत्रों को भी देखा । अब हम अभी तक जो कुछ भी
अध्याय - दो के अंतर्गत देखा है ,उसका सारांश पुनः देखते है फिर अगले सोपान पर चलेंगे ।
[क] भोग में आसक्त मन प्रज्ञा को भी अपने साथ ले लेता है ।
[ख] कर्म इन्द्रियों को मन - माध्यम से साधना चाहिए ।
[ग] प्रकृति के तीन गुण मनुष्य के स्वभाव का निर्माण करते हैं ।
[घ] मनन से आसक्ति , आसक्ति से कामना , कामना से क्रोध उत्पन्न होता है ।
[च] मोह और वैराग्य एक साथ एक बुद्धि में नहीं रहते ।
[छ] चाह रहित कर्म निर्वाण का द्वार है ।
अब अगले अंक में हम देखेंगे - वेदों का
गीता - योगी से सम्बन्ध कैसा है ?
गीता मन की गणित है , इसको वह समझता है
जो अपनें मन को अपनें से अलग देखनें का यत्न करे ॥
===== एक ओंकार ======
Subscribe to:
Posts (Atom)