Tuesday, February 15, 2011

गीता अध्याय - 02

स्थिर प्रज्ञ योगी

अर्जुन अध्याय - 02 में स्थिर प्रज्ञ - योगी को पहचानना चाहते हैं और ....
अध्याय - 14 में [ सूत्र - 14.21 ] गुनातीत - योगी को पहचानना चाहते हैं ....
तो आइये देखते हैं गुनातीत योगी को भी यहीं स्थिर प्रज्ञ योगी के साथ ॥

स्थिर प्रज्ञ योगी और गुनातीत योगी में बाहर - बाहर से देखनें में कोई फर्क नहीं है लेकीन
दोनों की गहराइयों में बहुत फर्क होता है ।
कर्म योग , अपरा भक्ति आदि से जब बैराग्य एवं परा भक्ति में कदम पहुंचता है तब पहले
मन - बुद्धि स्थिर होते हैं जिसको स्थिर प्रज्ञता कहते हैं फिर .....
धीरे - धीरे कदम आगे की ओर चलते हैं जिधर समाधि होती है लेकीन ....
समाधि से ठीक पूर्व गुनातीत की स्थिति से गुजरना होता है जहां ......
तन , मन , बुद्धि के सभी बंधन टूट जाते हैं और सम्पूर्ण देह में मात्र द्रष्टा के रूप में चेतना होती है ।
योगी की यह स्थिति उसे धीरे से समाधि में सरका देती है जहां .....
उसे परम सत्य का बोध होता रहता है लेकीन ......
वह योगी जिसको प्रभु - प्रसाद रूप में यह स्थिति मिली है
उसे वह पुनः वापिस सामान्य स्थिति में आने पर
ब्यक्त नहीं कर सकता ॥
योगी अपनी साधाना का दसवां भाग भी औरों को नहीं दे सकता और ....
उसकी यह मजबूरी उसे सब कुछ मिलनें के बाद भी बेचैन रखती है ॥
इस के बाद दो में से एक स्थिति उस योगी की हो सकती है ----
यातो वह बोल - बोल कर एक दिन अपनें देह को त्याग कर जाता है ...
या ....
कभी बोलता ही नहीं ; पूर्ण मौन स्थिति में रहता हुआ एक दिन अपनी देह को त्याग देता है ॥

===== ॐ ======

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