Wednesday, July 27, 2011

गीता अध्याय पांच भाग नौ

गीता अध्याय – पांच का अगला सूत्र -----

सूत्र –5.14

कर्म,कर्म करता भाव और कर्म फल की रचना प्रभु नहीं करते,यह सब स्वभाव जनित हैं//

यहाँ आप देखिये , श्री कृष्ण का प्रभु कौन है ? क्यों की अभी तक तो स्वयं को ही परम ईश्वर बता रहे थे , अब क्यों पभु शब्द का प्रयोग किया है ? एक बार पुनः सूत्र को देखिये … ..

न कर्तृत्वम् न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु/

न कर्म फल संयोगं स्वभावः तु प्रवर्तते//

गीता में पग – पग पर उलझनें हैं जबकि गीता उलझनों को सुलझानें की गणित है/

यहाँ श्री कृष्ण कहते हैं , प्रभु कर्म , कर्म – कर्तापन एवं कर्म – फल की रचना नहीं करता अर्थात श्री कृष्ण प्रभु नहीं हैं और गीता में लगभग 80 श्लोकों में स्वयं को ब्रह्म , प्रभु महाकाल , परम ईश्वर कहते हैं / कर्म , कर्म कर्तापन एवं कर्म – फल की रचनाकार स्वभाव है , ऎसी बात श्री कृष्ण कह रहे हैं लेकिन आप क्या सोचते हैं ?

तीन गुणों के आपसी प्रतिक्रियाओं का फल है , कर्म जिसको वेदों में एवं गीता में कर्म विभाग एवं गुण विभाग के नाम से कहा गया है / गुण स्वभाव का निर्माण करते हैं , स्वभाव से कर्म होता है /

गीता आगे कहता है , गुण कर्म करता हैं करता भाव का होना अहंकार की छाया है /

प्रभु यहाँ तो कह रहे हैं,प्रभु कर्म की रचना नहीं करता लेकिन गीता में यह भी कहते हैं,तीन गुण एवं उनके भाव मुझ से हैं लेकिन उनमें मैं नहीं,मैं गुणातीत एवं भावातीत हूँ/

आगे आप बुद्धि - योग में गीता के इस सूत्र पर सोच सकते हैं , मैं तो मात्र एक इशारा सा कर रहा हूँ /


====ओम======


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