Thursday, July 7, 2011

गीता अध्याय पांच भाग दो


गीता अध्याय –05भाग एक में कुछ बातों को हमनें देखा अब अध्याय का प्रारम्भ हो रहा है और आप सादर आमंत्रित हैं लेकिन आप से एक प्रार्थना है,आप अपनें मन को अपनें साथ न रखें तो अच्छा रहेगा और आप गीता में खूब मजा ले सकते हैं/


गीता सूत्र 5.1


अर्जुन कह रहे हैं------


आप पहले कर्म – संन्यास की बात करते हैं और फिर कर्म – योग की,आप कृपया मुझे यह बाताएं कि इन दोनों में मेरे लिए कौन सा उत्तम रहेगा?


Arjuna says ------


sometimes you praise renunciation of actions and somethimes you talk about karma – Yoga , you may please tell me which one out of these two would be better for me ?


कर्म – योग और कर्म – संन्यास में अर्जुन भ्रमित हो रहे हैं और ऐसा होना स्वाभाविक भी है/


अध्याय तीन में अर्जुन ज्ञान-कर्म के सम्बन्ध मे प्रभु की बातों को सूना और अध्याय चार में कर्म योग एवं कर्म संयाय से सम्बंधित कुछ बातों को भी सूना और सब उननेंके बाद अब यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि आप मुझे स्पष्ट रूप से बाताएं की कर्म – योग और कर्म संन्यास मे उत्तम कौन सा है विशेष तौर पर मेरे लिए


प्रश्न तो सीधा है लेकिन उत्तर बहुत ही टेढा लेकिन गीता समाप्ति पर जो बात सामनें आती है वह इस प्रकार की होती है;


कर्म में कर्म की पकड़ों की अनुपस्थिति उस कर्म को कर्म योग में बदल देती है//


कर्म योग में उतरा योगी धीरे-धीरे सभीं बंधनों को पार कर जाता है जिसको कहते हैं कर्म संन्यास//


कर्म संन्यासी को कर्म में अकर्म और अकर्म में कम दिखता है//


कर्म संन्यामे बिना कर्म – योग उतरना अति कठिन है//


कर्म में भोग तत्त्वों की पकड़ का न होना ही कर्म संन्यास है क्योंकि ….


पूर्ण रूप से कर्म का त्याग हो नहीं सकता//


कर्म कर्ता मनुष्य नहीं मनुष्य स्थित गुण समीकरण होता है//


गुण समीकरण स्वभाव का निर्माण करता है//


स्वभाव से कर्म होता है//


मनुष्य तो कर्म का द्रष्टा है//




=====ओम=====


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