Wednesday, July 13, 2011

गीता अध्याय पांच भाग चार


गीता अध्याय पांच के कुछ और सूत्रों को आज हम देख रहे हैं-------


गीता सूत्र –5.7


कर्म बंधनों से मुक्त योगयुक्त कर्म – योगी निर्विकार रहता है //


यहाँ इस श्लोक को भी देखते हैं------


गीता श्लोक –6.18


योगयुक्त योगी वह है जिसका मन शांत हो , इन्द्रियाँ तृप्त हों जो निस्प्रिय स्थिति में रहता हुआ कर्म करता हो और जो विकारों से मुक्त रहता हो //


गीता सूत्र –5.8 + 5.9


इन्द्रियों की क्रियाओं एवं इन्द्रियों का द्रष्टा स्वयं को इन्द्रियों से अलग देखनें वाला तत्त्ववित्त योगी होता है //


गीता सूत्र –5.10


आसक्ति रहित स्थिति में कर्म जिससे होते हैं वह कभी पाप नहीं कर सकता / ऐसा ब्यक्ति पाप कर्मों के मध्य ऐसे रहता है जैसे जल मे कमल का पत्ता रहता है बिना जल से प्रभावित रहते हुए //


यहाँ गीता के इस श्लोक को भी देखते हैं------


गीता श्लोक –18.48


कैसा कोई कर्म नहीं जो दोष मुक्त हो लेकिन सहज करों का त्याग करना उचित नहीं //


गीता को आप के समीप लाना मेरा काम है , मैं इस कोशिश में हूँ की लोग गीता को अपना मित्र बनाएँ और सत मित्र का दर्जा परम गुरू का दर्जा होता है //


गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं …....


कर्म ही तेरा गुरू है-----


कर्म ही तेरी भक्ति है-----


कर्म ही ज्ञान गंगा है----


और ----


कर्म ही मुक्ति पथ है , फिर ऐसे में हे अर्जुन तुम कर्म से क्यों भाग रहे हो ?


कर्म से भागो नहीं , कर्म से बढ़ो नहीं , कर्म का रागी न बनो , कर्म का त्यागी न बनों , कर्म के उन तत्त्वों को समझो जो तुमको बंधक बनाना चाहते हैं और जब तुम ऐसा करनें में सफल हो जाओगे तब तुम कर्म सन्यासी स्वतः बन जाओगे //




=====ओम======


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