गीता श्लोक –3.1 , 3.2
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिः जनार्दन /
तत् किम् कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव //
ब्यामिश्रेण इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि इव में
तत् एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् //
अर्जुन कह रहे हैं-----
हे केशव!जब आप को ज्ञान कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ दिखता है तब आप मुझे इस युद्ध – कर्म में क्यों लगाना चाह रहे हैं?आप के नाना प्रकार के वचनों से मैं भ्रमित हो रहा हूँ,आप कृपया मुझे वह स्पष्ट बताएं जो मुझे कल्याणकारी हो?
इस प्रश्न का उत्तर गीता सूत्र –3.3से3.35के मध्य होना चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं,उत्तर के लिए आप को गीता-सागर में तैरना ही होगा/
गीत अध्याय दो में ज्ञान - योग के मूल विषय आत्मा के सम्बन्ध में प्रभु मोह ग्रसित अर्जुन को ऎसी बातें बता रहे हैं जो गुण प्रभावित बुद्धि से समझाना संभव नहीं / गीता कहता है - बुद्धि दो प्रकार की होती है ; एक बुद्धि वह है जो गुण प्रभावित होती है जिसके माध्यम से हम भोग को ही भगवान समझते हैं और दूसरी बुद्धि गुणों से अप्रभावित बुद्धि होती है जो एक दर्पण सा होती है और जिस पर प्रभु के अलावा और कुछ नहीं होता / ज्ञान की बात अर्जुन यहाँ कर रहे हैं और प्रभु ज्ञान की परिभाषा अध्याय – 13 में सूत्र दो के माध्यम से कुछ इस प्रकार से देते हैं … ....
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो: ज्ञानं यत् तत् ज्ञानं मतं मम
अर्थात
वह जो क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का बोध कराये, ज्ञान है/
अर्जुन के प्रश्ना का सीधा सा जबाब आप को कुछ इस प्रकार से मिलता है जब आप सम्पूर्ण गीता को पीते हैं तब … ......
भोग कर्मों में भोग तत्त्वों का जब स्वतः त्याग हो जाए और भोग कर्म योग में बदल जाए तब कर्म योग की सिद्धि के फल के रूप में जो बोध होता है वह है ज्ञान/ज्ञान प्राप्ति के ठीक पहले वैराज्ञ मिलता है जहाँ परमानंद की अनुभूति के साथ ज्ञान में कदम पहुँचता है//
===ओम्=====