Saturday, April 7, 2012

गीता और हम भाग तेरह

गीता रहस्य एवं हम –13

गीता के दो सूत्र जिन पर आप मन ध्यान में उतर सकते हैं

गीता श्लोक –6.26

यतः यतः निश्चरति मनः चंचलमम् अस्थिरम्/

ततः ततः नियम्य एतत् आत्मनि एव वशम् नयेत्//

यतः यतः चंचलं च अस्थिरं मनः निश्चरति

एतत् नियम्य ततः ततः नयेत् वशम् आत्मनि एव

यह कभीं स्थिर न रहनें वाला मन[चंचल मन]जहाँ-जहाँ रुकता हो उसे वहाँ वहाँ से उठा कर परमात्मा पर केंद्रित करते रहो/

To whatever and wherever the restless and unsteady mind wanders , this mind should be restrained then and there and braught under the control of the self alone .

जब कोई ऐसा करनें में सक्षम हो जाता है तब उसके मन की यह स्थिति होती है ----

गीता श्लोक –6.19

यथा दीपः निवातस्थः न इंगते सा उपमा स्मृता/

योगिनः यतचित्तस्य युज्जत:योगम् आत्मनः//

यथा दीपः निवातस्थ न इंगते उपमा स्मृता

योगिनः सा आत्मनः यतचित्तस्य युज्जतः योगम्

जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता वैसे ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गयी है

As a flame in a windless place does not waver , the analogy is cited of one perfected in the science of uniting the individual consciousness with the ultimate consciousness ; just as the self realized being whose controlled mind unwaveringly engages in the science of uniting the individual consciousness with the ultimate consciousness .

गीता के दो सूत्र दो बाते बता रहे हैं------

मन तब शांत होता है जब तन में प्रभु की ऊर्जा की आहट मिलने लगती है

और शांत मन एक शांत स्थान में रखे दीपक की स्थिर ज्योति की भांति होता है

जो प्रभु केंद्रित होता है/

ऊपर दी गयी बात अभ्यास – योग की बुनियाँद है


====ओम्========


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