Friday, April 13, 2012

मेरी शरण में आ जा

गीता श्लोक –18.66

सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज

अहम् त्वा सर्वपापेभ्य : मोक्षयिष्यामि मा शुच :

सभीं धर्मों को त्याग कर मेरे एक की शरण में आ जाओ.मै तुझे सभीं पापों से मुक्त कर दूंगा/

Relinquishing all Dharmas surrender unto Me exclusively , I will liberate you from all shins .”

माम् एकम् अर्थात केवल मेरे , प्रभु कह रहे हैं हे अर्जुन ! तुम इधर - उधर की धार्मिक बातों में अपने मन एवं बुद्धि को न उलझाओ , तुम अपनें मन एव बुद्धि को मुझ पर , मात्रा मुझ पर केंद्रित करो और यदि तुम ऐसा करनें में सफल हुए तो मैं तुमको सभीं पापों से मुक्त कर दूंगा / यहाँ धर्म का अर्थ है शास्त्रों का बंधन ; हमारे शास्त्र भी एक सीमा के बाद बंधन बन जाते हैं , शास्त्रों को जीवन भर अपनी पीठ पर रख कर ढोना ही बंधन है / शास्त्रों की बाते एक दूरी तक यात्रा तो सही दिशा में कराती हैं लेकिन उनकी भी सीमायें हैं जहाँ पहुंचा कर वे हमें धन्यबाद करती हैं और कहती हैं यहाँ हमारी सीमाएं समाप्त होती हैं और आगे की यात्रा अब आप स्वयं करें / प्रभु कह रहे हैं , हे अर्जुन तुम अपने को मुझे सर्पित कर दो , क्या समर्पण स्व का प्रयास है ? जी नहीं समर्पण प्रयास नहीं है यह प्रभु का प्रसाद है जो साधना के फल के रूप में मिलता है / जबतक हम अपनें मन – बुद्धि का गुलाम बनें रहते हैं तबतक समर्पण की सोच आ नहीं सकती / अब गीता मेंश्लोक – 18.66 के बादमात्र 12 और श्लोक हैंजिनमें सेप्रभु के 06 श्लोक हैंऔरअर्जुन का मात्र एक श्लोक हैऔर शेष आखिरी पञ्च श्लोक संजय के हैं / गीता का समापन आ गया है , ज्ञान – योग , कर्म – योग , भक्ति . सांख्य – योग , समत्व – योग एवं बुद्धि - योगकी सारी बातें अर्जुन को बदलनें में असफल हो रही हैं और अंत में आ कर प्रभु कह रहे हैं किहे अर्जुन ! तुम सबकुछ भूल जाओ और मुझे सार्पित हो जाओ , मुझे अपना बनाओ , कर्ता न बन कर द्रष्टा बन जाओ और देखो मैं क्या तुमसे कराता हूँ और जो कराउंगा वह तुझे पापों से दूर भी रखेगा /

==== ओम्======


4 comments:

  1. धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
    व्यक्तिगत (निजी) धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- जब सत्य और न्याय में विरोधाभास होता है, उस स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है ।
    धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म, इत्यादि ।
    धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक ।
    शिव (त्रिदेव) है तभी तो धर्म व उपासना है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

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  2. धर्म का अर्थ - सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) ।
    व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    धर्म सनातन है भगवान शिव से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
    धर्म एवं ‘उपासना द्वारा मोक्ष’ एक दूसरे आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है । ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

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  3. सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है । धर्म के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । धर्म पालन में धैर्य, विवेक, क्षमा जैसे गुण आवश्यक है ।

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  4. वर्तमान युग में धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।

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