अपरा भक्ति के माध्यमों में ध्वनी एक प्रमुख माध्यम है ।
गीता में श्री कृष्ण कहते हैं ---------
मुनियों में वेद व्यास [ गीता- 10.37 ], छंदों में गायत्री [गीता- 10.35 ], तीनों वेद [गीता-9.17 ], वेदों में
ॐ [गीता- 7.8 , 9.17 ], मैं हूँ ।
गीता श्लोक 7.8 में एक और महत्वपूर्ण बात यह है --शब्द का स्वभाव है आकाश में रहना ।
अब आप गीता की इन बातों पर सोचिये जितना सोच सकते हों लेकिन अंततः आप किसी भी नतीजे पर नहीं
पहुचनें वाले ।
ध्वनी क्या है ?, किस से है , और कहां नहीं है? को वैज्ञानिक पिछले तीन सौ वर्षों से जाननें की कोशिश में
उलझे पड़े हैं । वैज्ञानिक खोज जितनी आगे बढती है वैज्ञानिक और समस्याओं में उलझ जा रहे हैं ।
Pythagorus[569-475 BCE ] जब विज्ञान शब्द भी नहीं था उस समय बोले----सभी ग्रहों की अपनी-अपनी धुनें हैं । पाइथागोरस की इस बात से आश्चर्य होता है क्योंकि उस समय तक यह भी पता न था की ग्रहों में गति है ।
विज्ञान यह कहते हुए ब्रह्मांड का नक्शा बनानें में ब्यस्त है की यहाँ अन गिनत तारे हैं, अन गिनत तारा मंडल
हैं, अन गिनत गलेक्सीज हैं और न जानें और क्या-क्या है ? वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड जहाँ यह सब है वह सिमित है और उसका आदि- अंत भी है। वैज्ञानिक ब्रह्मांड एक आर्केस्ट्रा जैसा है जहाँ अनंत ग्रहों , उपग्रहों तथा अन्यों की ध्वनियाँ गूँज रही हैं । क्या आप ऐसा नहीं समझते --ब्रह्माण्ड की ये सभी ध्वनियाँ मिल कर एक अलग ध्वनी का निर्माण करती होंगी ? वेदों में ॐ तथा छंदों में गायत्री से निकलनें वाली धुन वही धुन है जो सीधे ब्रह्म से जोड़ती है और ब्रह्म ब्रह्माण्ड का नाभि केन्द्र है । अभी - अभी आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक पृथ्वी की धुन को पकडनें में कामयाब हुए हैं ।
गीत- संगीत , नृत्य , भजन- कीर्तन आदि में जो धुन गूंजती है और जो हम सब के अन्तः करन की ऊर्जा
को कम्पित कर देती है वह ध्वनी ॐ ध्वनी ही है ।
=====ॐ======
Saturday, October 31, 2009
Friday, October 30, 2009
अपरा भक्ति के माध्यम- 4
जो तन - मन से निर्विकार है उसको तपोभूमि , बुद्ध- क्षेत्र तथा ऊर्जा- क्षेत्र अपनीं ओर खीचते हैं ।
एक बार बुद्ध श्रावस्ती के जंगल से आनंद एवं अपनें अन्य भिक्षुकों के साथ गुजर रहे थे । चलते- चलते बुद्ध
एक पेड़ के पास कुछ देर रुके और उसकी ओर चल पड़े , उस पेड़ के नीचे कुछ समय ध्यान में खोये रहे और
फ़िर अपनी यात्रा पर निकल पड़े । रास्ते में आनंद मन ही मन में सोचते रहे की आखीर उस पेड़ में ऎसी कौन सी बात थी जो भंते को अपनी ओर खीच ली , यह आनंद की सोच उनको बुद्ध से पूछनें के लिए बाध्य कर दी ।
बुद्ध कहते हैं ----आनंद इस पेड़ के नीचे कभी कश्यप ऋषी ध्यान किए थे भला इस परम पवित्र भूमि को मैं
कैसे भूल सकता हूँ ?
तपोभूमि , बुद्ध-क्षेत्र तथा ऊर्जा- क्षेत्र वह स्थान हैं जहाँ समय-समय पर तपश्वी , साधक एवं बुद्ध पुरूष साधना
किए हुए होते हैं । ध्यान के समय ध्यानी के शरीर से जो परम- ऊर्जा [cosmic energy ] का विकिरण होता है वह ऊर्जा ऐसे स्थानों में समाई होती है और जब पुनः कोई उस श्रेणी का साधक वहाँ ऐ गुजरता है तब वह क्षेत्र उसे जाना- पहचाना लगता है तथा वह ब्यक्ति उस क्षेत्र की ओर खीचनें लगता है ।
तपोभूमि साधक के लिए ऐसी होती है जैसे गोदी के बच्चे के लिए उसकी माँ की गोदी होती है ।
सिद्ध - स्थान ज्ञात- अज्ञात दोनों प्रकार के होते हैं । साधना में खोया साधक जहाँ बैठ जाता है वह
स्थान ऊर्जा-क्षेत्र बन जाता है चाहे उसकी सघनता कुछ भी क्यों न हो । जानें या अनजानें में जहाँ पहुंचनें
पर तन में बहनें वाली ऊर्जा का रुख बदल जाय वह स्थान बुद्ध - क्षेत्र होता है जहाँ के अनुभव में जिया तो जा
सकता है लेकिन उस अनुभव को ब्यक्त करना अति कठिन होता है ।
बुद्ध ऊर्जा-क्षेत्रों का निर्माण करते हैं , उनके लिए जो भविष्य में बुद्ध बननें वाले होते हैं।
====ॐ=====
एक बार बुद्ध श्रावस्ती के जंगल से आनंद एवं अपनें अन्य भिक्षुकों के साथ गुजर रहे थे । चलते- चलते बुद्ध
एक पेड़ के पास कुछ देर रुके और उसकी ओर चल पड़े , उस पेड़ के नीचे कुछ समय ध्यान में खोये रहे और
फ़िर अपनी यात्रा पर निकल पड़े । रास्ते में आनंद मन ही मन में सोचते रहे की आखीर उस पेड़ में ऎसी कौन सी बात थी जो भंते को अपनी ओर खीच ली , यह आनंद की सोच उनको बुद्ध से पूछनें के लिए बाध्य कर दी ।
बुद्ध कहते हैं ----आनंद इस पेड़ के नीचे कभी कश्यप ऋषी ध्यान किए थे भला इस परम पवित्र भूमि को मैं
कैसे भूल सकता हूँ ?
तपोभूमि , बुद्ध-क्षेत्र तथा ऊर्जा- क्षेत्र वह स्थान हैं जहाँ समय-समय पर तपश्वी , साधक एवं बुद्ध पुरूष साधना
किए हुए होते हैं । ध्यान के समय ध्यानी के शरीर से जो परम- ऊर्जा [cosmic energy ] का विकिरण होता है वह ऊर्जा ऐसे स्थानों में समाई होती है और जब पुनः कोई उस श्रेणी का साधक वहाँ ऐ गुजरता है तब वह क्षेत्र उसे जाना- पहचाना लगता है तथा वह ब्यक्ति उस क्षेत्र की ओर खीचनें लगता है ।
तपोभूमि साधक के लिए ऐसी होती है जैसे गोदी के बच्चे के लिए उसकी माँ की गोदी होती है ।
सिद्ध - स्थान ज्ञात- अज्ञात दोनों प्रकार के होते हैं । साधना में खोया साधक जहाँ बैठ जाता है वह
स्थान ऊर्जा-क्षेत्र बन जाता है चाहे उसकी सघनता कुछ भी क्यों न हो । जानें या अनजानें में जहाँ पहुंचनें
पर तन में बहनें वाली ऊर्जा का रुख बदल जाय वह स्थान बुद्ध - क्षेत्र होता है जहाँ के अनुभव में जिया तो जा
सकता है लेकिन उस अनुभव को ब्यक्त करना अति कठिन होता है ।
बुद्ध ऊर्जा-क्षेत्रों का निर्माण करते हैं , उनके लिए जो भविष्य में बुद्ध बननें वाले होते हैं।
====ॐ=====
Thursday, October 29, 2009
अपरा भक्ति के माध्यम - 3
अपरा - भक्ति माध्यमों में मन्दिर का स्थान अहम् है । भारत में 51 शक्ति पीठ तथा 12 ज्योतिर्लिन्गम प्राचीनतम स्थान हैं जहाँ अपरा - भक्ति से परा में प्रवेश पाना सुगम है। शक्ति - पीठ एवं ज्योतिर्लिन्गम के स्थानों में क्रमशः थानेश्वर तथा काशी का नाम प्रमुख है। थानेश्वर वह प्राचीन स्थान है जिसके सम्बन्ध में गीता कहता है ---धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे .....गीता - श्लोक - 1.1 लेकिन आज लोग इस नाम को भूल चुके हैं । शक्ति-पीठ तथा जोतिर्लिन्गम का सीधा सम्बन्ध शिव से है अतः हम कह सकते हैं की अपरा-भक्ति के माध्यमों में शिव- भक्ति प्राचीनतम है ।
काशी विश्वनाथ का मन्दिर 1669 में औरंगजेब द्वारा बरबाद कर दिया गया था जो 111 वर्षों तक [1780 तक ] सही ढंग से ठीक नहीं हो पाया था लेकिन इंदौर की महारानी अहिल्या बाई जो होलकर परिवार की थी , उन्होंनें इसे ठीक करवाया और पंजाब के राजा रंजित सिंह 1839 में इस पर स्वर्ण-कलश रखवाया था। काशी नरेश का नाम गीता [गीता.सूत्र 1.17 ] में भी है लेकिन उनके परिवार का कोई ब्यक्ति इस मन्दिर में रूचि नहीं दिखाई थी , यह बात सोचनें लायक है ।
यूनान में डेल्फी का मन्दिर जहाँ सूर्य की पूजा की जाती थी वह लगभग 800 BCE का माना जाता है ।
चंदेला राजाओं द्वारा निर्मित आज का खजुराहो जिसको पहले खजूर वाटिका कहते थे लगभग 10-11 AD का है जो तंत्र साधना से सम्बंधित है । मदिरों के इतिहास में अयोध्या का नाम प्रमुख है जहाँ 5-6 AD में
बुद्ध मन्दिर थे और 7-8 AD में हिंदू मन्दिर आगये । जगन्नाथ पुरी , बदरीनाथ तथा केदारनाथ आदि के
मन्दिर लगभग 8AD के आस-पास के हैं। 9AD में पागन [मेमार] की पहाडियों को काट कर बुद्ध मंदिरों
का एक भब्य शहर बनाया गया था जिसको मंगोल लोग नष्ट कर दिए लेकिन अवशेष आज भी उन भक्तों की
याद को ताजी करते हैं।
मन,मन्दिर , मूर्ती और पूजा का गहरा आपसी सम्बन्ध है । मन का अपना विज्ञान है ; यह एक समय में
दो को अपनें में नहीं बिठाता अतः पूजा करनें वाला जब तक यह जानता रहता है की वह पूजा कर रहा है तब तक वह अपरा भक्ति में होता है लेकिन धीरे-धीरे जब वह सरक कर परा में पहुँच जाता है तब वह यह भूल जाता है की वह कहाँ है? वह क्या कर रहा है?
अपरा का काम है परा के द्वार को खोलना और यह तब सम्भव है जब अपरा में परम प्यार की लहर पैदा हो सके ।
=====ॐ=======
काशी विश्वनाथ का मन्दिर 1669 में औरंगजेब द्वारा बरबाद कर दिया गया था जो 111 वर्षों तक [1780 तक ] सही ढंग से ठीक नहीं हो पाया था लेकिन इंदौर की महारानी अहिल्या बाई जो होलकर परिवार की थी , उन्होंनें इसे ठीक करवाया और पंजाब के राजा रंजित सिंह 1839 में इस पर स्वर्ण-कलश रखवाया था। काशी नरेश का नाम गीता [गीता.सूत्र 1.17 ] में भी है लेकिन उनके परिवार का कोई ब्यक्ति इस मन्दिर में रूचि नहीं दिखाई थी , यह बात सोचनें लायक है ।
यूनान में डेल्फी का मन्दिर जहाँ सूर्य की पूजा की जाती थी वह लगभग 800 BCE का माना जाता है ।
चंदेला राजाओं द्वारा निर्मित आज का खजुराहो जिसको पहले खजूर वाटिका कहते थे लगभग 10-11 AD का है जो तंत्र साधना से सम्बंधित है । मदिरों के इतिहास में अयोध्या का नाम प्रमुख है जहाँ 5-6 AD में
बुद्ध मन्दिर थे और 7-8 AD में हिंदू मन्दिर आगये । जगन्नाथ पुरी , बदरीनाथ तथा केदारनाथ आदि के
मन्दिर लगभग 8AD के आस-पास के हैं। 9AD में पागन [मेमार] की पहाडियों को काट कर बुद्ध मंदिरों
का एक भब्य शहर बनाया गया था जिसको मंगोल लोग नष्ट कर दिए लेकिन अवशेष आज भी उन भक्तों की
याद को ताजी करते हैं।
मन,मन्दिर , मूर्ती और पूजा का गहरा आपसी सम्बन्ध है । मन का अपना विज्ञान है ; यह एक समय में
दो को अपनें में नहीं बिठाता अतः पूजा करनें वाला जब तक यह जानता रहता है की वह पूजा कर रहा है तब तक वह अपरा भक्ति में होता है लेकिन धीरे-धीरे जब वह सरक कर परा में पहुँच जाता है तब वह यह भूल जाता है की वह कहाँ है? वह क्या कर रहा है?
अपरा का काम है परा के द्वार को खोलना और यह तब सम्भव है जब अपरा में परम प्यार की लहर पैदा हो सके ।
=====ॐ=======
Tuesday, October 27, 2009
अपरा भक्ति के माध्यम - भाग ..2
स्मृतियाँ आगे नहीं बढनें देती और आगे सरकते रहनें का नाम जीवन है ।
स्मृति में वह है जो गुजर चुका है और हमें अपनें को उसके लिए तैयार करना है जो आनें वाला है तथा जो अज्ञेय है ।
प्रोफेसर आइंस्टाइन कहते हैं --ज्ञान दो प्रकार का है ; एक वह जो किताबों से मिलता है और दूसरा वह जो चेतना से
बूँद-बूँद टपकता है - पहला ज्ञान मुर्दा ज्ञान है तथा दूसरा सजीव ज्ञान है । मन में स्थित सूचनाएं वह हैं जो गुजरे
वक्त की हैं इनके आधार पर हम आगे की सोच नहीं पैदा कर सकते और यदि इनके आधार पर अगला कदम
रखते हैं तो वह कहाँ पडेगा कुछ सोचा नहीं जा सकता। जीवन में हर पल नया है यहाँ कुछ भी पुराना नहीं अतः
जीवन की हर सोच भी नयी होनी चाहिए , इस बात को कुछ लोग कहते हैं --live moment to moment . लेकिन
यह बात लोगों के मन में भ्रम पैदा करती है । live moment to moment का अर्थ है ...हर पल होश मय होना
चाहिए।
गीता में श्री कृष्ण अपनें 556 श्लोकों में से 100 से भी कुछ अधिक श्लोकों के माध्यम से स्वयं को परमात्मा
बतानें के लिए लगभग 150 उदाहरणों को देते हैं लेकिन अर्जुन के ऊपर इनका कोई असर नहीं पड़ता ।
अर्जुन गीता में अंत तक सब कुछ स्वीकरते तो हैं लेकिन ऊपर ऊपर से , दिल से नहीं क्योंकि वे तामस
गुन के प्रभाव में हैं और मोह- भय प्रभावित ब्यक्ति ऐसा ही रहता है।
अपरा - माध्यमों का काम है अन्तः करन में श्रद्घा की लहर पैदा करना और जब ऐसा होता है तब परा भक्ति
उदित होती है । अपरा अर्थात वह जो तन,मन एवं बुद्धि से हो और परा वह जिसमें जिस्म के कण-कण में
चेतना का संचार होता हो । अपरा भक्ति परा का द्वार है और यह द्वार तब खुलता है जब मन -बुद्धि स्थिर हों ।
====ॐ=======
स्मृति में वह है जो गुजर चुका है और हमें अपनें को उसके लिए तैयार करना है जो आनें वाला है तथा जो अज्ञेय है ।
प्रोफेसर आइंस्टाइन कहते हैं --ज्ञान दो प्रकार का है ; एक वह जो किताबों से मिलता है और दूसरा वह जो चेतना से
बूँद-बूँद टपकता है - पहला ज्ञान मुर्दा ज्ञान है तथा दूसरा सजीव ज्ञान है । मन में स्थित सूचनाएं वह हैं जो गुजरे
वक्त की हैं इनके आधार पर हम आगे की सोच नहीं पैदा कर सकते और यदि इनके आधार पर अगला कदम
रखते हैं तो वह कहाँ पडेगा कुछ सोचा नहीं जा सकता। जीवन में हर पल नया है यहाँ कुछ भी पुराना नहीं अतः
जीवन की हर सोच भी नयी होनी चाहिए , इस बात को कुछ लोग कहते हैं --live moment to moment . लेकिन
यह बात लोगों के मन में भ्रम पैदा करती है । live moment to moment का अर्थ है ...हर पल होश मय होना
चाहिए।
गीता में श्री कृष्ण अपनें 556 श्लोकों में से 100 से भी कुछ अधिक श्लोकों के माध्यम से स्वयं को परमात्मा
बतानें के लिए लगभग 150 उदाहरणों को देते हैं लेकिन अर्जुन के ऊपर इनका कोई असर नहीं पड़ता ।
अर्जुन गीता में अंत तक सब कुछ स्वीकरते तो हैं लेकिन ऊपर ऊपर से , दिल से नहीं क्योंकि वे तामस
गुन के प्रभाव में हैं और मोह- भय प्रभावित ब्यक्ति ऐसा ही रहता है।
अपरा - माध्यमों का काम है अन्तः करन में श्रद्घा की लहर पैदा करना और जब ऐसा होता है तब परा भक्ति
उदित होती है । अपरा अर्थात वह जो तन,मन एवं बुद्धि से हो और परा वह जिसमें जिस्म के कण-कण में
चेतना का संचार होता हो । अपरा भक्ति परा का द्वार है और यह द्वार तब खुलता है जब मन -बुद्धि स्थिर हों ।
====ॐ=======
अपरा भक्ति के माध्यम--भाग - 1
क्या कभी हमारे अन्दर ऎसी सोच उठती है की हम परमात्मा को क्यों चाहते हैं ?
खोज के लिए माध्यम चाहिए चाहे खोज भोग की हो या भगवान् की और हमारे पास माध्यम के लिए
तन, मन एवं बुद्धि हैं । मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो स्व आश्रितों के लिए घर का निर्माण करता है और
प्रभू के लिए भी मन्दिर के रूप में उनका घर बनाता है । ऎसी सूचनाएं जो माध्य से जानी जाती हैं वे सभींअपरा श्रेणी में आती हैं । मन्दिर , मूर्ती , भजन , कीर्तन, ध्यान-विधियां, तप तथा साधना के अन्य माध्यम सब अपरा भक्ति के माध्यम हैं ।
बीसवीं शताब्दी के जानें मानें मनोवैज्ञनिक सी जी ज़ंग कहते हैं---मध्य उम्र के लोगों में शायद ही कोई ऐसा मिले जिसके अन्दर किसी न किसी रूप में परमात्मा की सोच न हो । फ्रेडरिक नित्झे जैसे लोग कहते हैं ----
परमात्मा शब्द भयभीत लोगों की उपज है यदि ऐसी बात है तो बुद्ध-महाबीर को किस का भय था , वे दोनों तो राजा थे , चंन्द्रगुप्त को क्या भय रहा होगा जो अपनें आखिरी वक्त में जैन- भिक्षुक बन गए और
उनके पोते अशोक महान अपनें अंत समय में बुद्ध - भिक्षुक बन कर अपना जीवन गुजारा ।
मनुष्य सही तौर पर परमात्मा से तब जुड़ता है जब वह सुख या दुःख की आखिरी झलक देखता है ।
गीता में परम श्री कृष्ण कहते है ---परमात्मा न सत है न असत और परमात्मा सत भी है और असत भी है , पर अर्जुन कहते हैं ---हे प्रभू! आप सत-अ सत से परे परम ब्रह्म हैं ।
परमात्मा को जो जानना चाहेगा वह चूक जाएगा और परमात्मा में जो अनजानें में जियेगा वह पाजायेगा।
परमात्मा कोई चीज नहीं जिसको खोजना है , परमात्मा से परमात्मा में यह वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड है जिसमें
हम सब हैं फ़िर उसे हम क्यों खोज रहे हैं ।
वह जिसको अपनें घर के एक अबोध बच्चे में श्री कृष्ण नहीं दिखे उसे मथुरा-वृन्दावन में क्या ख़ाक दिखेंगे ?
=====ॐ=========
खोज के लिए माध्यम चाहिए चाहे खोज भोग की हो या भगवान् की और हमारे पास माध्यम के लिए
तन, मन एवं बुद्धि हैं । मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो स्व आश्रितों के लिए घर का निर्माण करता है और
प्रभू के लिए भी मन्दिर के रूप में उनका घर बनाता है । ऎसी सूचनाएं जो माध्य से जानी जाती हैं वे सभींअपरा श्रेणी में आती हैं । मन्दिर , मूर्ती , भजन , कीर्तन, ध्यान-विधियां, तप तथा साधना के अन्य माध्यम सब अपरा भक्ति के माध्यम हैं ।
बीसवीं शताब्दी के जानें मानें मनोवैज्ञनिक सी जी ज़ंग कहते हैं---मध्य उम्र के लोगों में शायद ही कोई ऐसा मिले जिसके अन्दर किसी न किसी रूप में परमात्मा की सोच न हो । फ्रेडरिक नित्झे जैसे लोग कहते हैं ----
परमात्मा शब्द भयभीत लोगों की उपज है यदि ऐसी बात है तो बुद्ध-महाबीर को किस का भय था , वे दोनों तो राजा थे , चंन्द्रगुप्त को क्या भय रहा होगा जो अपनें आखिरी वक्त में जैन- भिक्षुक बन गए और
उनके पोते अशोक महान अपनें अंत समय में बुद्ध - भिक्षुक बन कर अपना जीवन गुजारा ।
मनुष्य सही तौर पर परमात्मा से तब जुड़ता है जब वह सुख या दुःख की आखिरी झलक देखता है ।
गीता में परम श्री कृष्ण कहते है ---परमात्मा न सत है न असत और परमात्मा सत भी है और असत भी है , पर अर्जुन कहते हैं ---हे प्रभू! आप सत-अ सत से परे परम ब्रह्म हैं ।
परमात्मा को जो जानना चाहेगा वह चूक जाएगा और परमात्मा में जो अनजानें में जियेगा वह पाजायेगा।
परमात्मा कोई चीज नहीं जिसको खोजना है , परमात्मा से परमात्मा में यह वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड है जिसमें
हम सब हैं फ़िर उसे हम क्यों खोज रहे हैं ।
वह जिसको अपनें घर के एक अबोध बच्चे में श्री कृष्ण नहीं दिखे उसे मथुरा-वृन्दावन में क्या ख़ाक दिखेंगे ?
=====ॐ=========
Sunday, October 25, 2009
गीत ध्यान विधि - 4
तीसरी आँख पर ध्यान करनें की बात श्री कृष्ण गीता-श्लोक 5.27- 5.28 के माध्यम से करते हैं , तो आईये देखते हैं इस विधि को ।
श्री कृष्ण कहते हैं---ध्यान के समय अपान-वायु एवंम प्राण - वायु सम हों, शरीर के किसी भी भाग में कोई तनाव न हो तथा मन विचार शून्य स्थिति में जब आजाये तब मन-बिद्धि की ओर से ऊर्जा को धीरे-धीर दोनों आंखों के मध्य में नाक की सीधायी में सीधे ऊपर की ओर ललाट के मध्य तीसरी आँख पर केंद्रित करना चाहिए।
जब यह ध्यान होता है तब वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से मुक्त हो जाता है । यहाँ इस विधि में तीन बातें समझनें के लिए हैं ----
१- प्राण-वायु , अपान-वायु तथा ह्रदय की धड़कन का आपसी सम्बन्ध क्या है ?
२- इच्छा , भय एवं क्रोध मुक्त होना क्या है ?
३- तीसरी आँख क्या है ?
१.१ प्राण-वायु एवं अपांन - वायु असामान्य तब होती हैं जब मन में विचार उठनें की गति तेज होती है और ऐसी स्थिति में ह्रदय की धड़कन भी स्थिर नहीं रह पाती । जब तक मन शांत नहीं होता तब तक श्वाशें सम नहीं हो सकती और ह्रदय की धड़कन भी सामान्य नहीं रह सकती ।
२.२ इच्छा एवं क्रोध राजस गुन के तत्त्व हैं और भय तामस गुन का तत्त्व है , गीता कहना चाह रहा है की
तीसरी आँख के ध्यान से योगी राजस एवम तामस गुणों के प्रभाव से बच सकता है जो परमात्मा के
मार्ग में सबसे बड़े रुकावट हैं ।
३.१ तीसरी आँख को तंत्र में आज्ञा-चक्र कहते हैं जो वह माध्यम है जिस से योगी त्रिकाल दर्शी बन जाता है ।
आज्ञा चक्र जब सक्रीय होता है तब उस योगी ऐ लिए निराकार सूचनाएं साकार हो उठती हैं ।
आज्ञा-चक्र की सक्रियता यातो बुद्ध बनाती है या पागल , बीच की कोई संभावना नहीं बचती।
===ॐ======
श्री कृष्ण कहते हैं---ध्यान के समय अपान-वायु एवंम प्राण - वायु सम हों, शरीर के किसी भी भाग में कोई तनाव न हो तथा मन विचार शून्य स्थिति में जब आजाये तब मन-बिद्धि की ओर से ऊर्जा को धीरे-धीर दोनों आंखों के मध्य में नाक की सीधायी में सीधे ऊपर की ओर ललाट के मध्य तीसरी आँख पर केंद्रित करना चाहिए।
जब यह ध्यान होता है तब वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से मुक्त हो जाता है । यहाँ इस विधि में तीन बातें समझनें के लिए हैं ----
१- प्राण-वायु , अपान-वायु तथा ह्रदय की धड़कन का आपसी सम्बन्ध क्या है ?
२- इच्छा , भय एवं क्रोध मुक्त होना क्या है ?
३- तीसरी आँख क्या है ?
१.१ प्राण-वायु एवं अपांन - वायु असामान्य तब होती हैं जब मन में विचार उठनें की गति तेज होती है और ऐसी स्थिति में ह्रदय की धड़कन भी स्थिर नहीं रह पाती । जब तक मन शांत नहीं होता तब तक श्वाशें सम नहीं हो सकती और ह्रदय की धड़कन भी सामान्य नहीं रह सकती ।
२.२ इच्छा एवं क्रोध राजस गुन के तत्त्व हैं और भय तामस गुन का तत्त्व है , गीता कहना चाह रहा है की
तीसरी आँख के ध्यान से योगी राजस एवम तामस गुणों के प्रभाव से बच सकता है जो परमात्मा के
मार्ग में सबसे बड़े रुकावट हैं ।
३.१ तीसरी आँख को तंत्र में आज्ञा-चक्र कहते हैं जो वह माध्यम है जिस से योगी त्रिकाल दर्शी बन जाता है ।
आज्ञा चक्र जब सक्रीय होता है तब उस योगी ऐ लिए निराकार सूचनाएं साकार हो उठती हैं ।
आज्ञा-चक्र की सक्रियता यातो बुद्ध बनाती है या पागल , बीच की कोई संभावना नहीं बचती।
===ॐ======
Friday, October 23, 2009
गीता ध्यान विधि-3
गीता-श्लोक 6.33,6.34 के माध्यम से अर्जुन पूछते हैं----हे प्रभू ! मैं अपनें चंचल मन के कारण आप की बातों को समझनें में असमर्थ हूँ अतः आप मुझे उचित रास्ता बताएं ।
श्री कृष्ण अगले श्लोक 6.35 में उत्तर के रूप में कहते हैं---मन की चंचलता पर नियंत्रण करनें के लिए दो
उपाय हैं ; एक है , अभ्यास करना और दूसरा है बैराग्य का घटित होना।
अभ्यास के संबंधमें आप गीता - श्लोक 6.26 को देखें जहाँ प्रभू कहते हैं ---मन जहाँ-जहाँ उलझता हो वहाँ-वहाँ से उसे उठाकर परमात्मा पर केंद्रित करनें का अभ्यास करना चाहिए , ऐसा करनें से मन की आब्रित्ति मंद पड़ जाती है । इस सम्बन्ध में रमन महर्षी कहते हैं--विचारों के मूल को पकड़ना ही ध्यान है , लेकिन विचारों का मूल क्या है ?
गीता-श्लोक 7.12- 7.13 कहते हैं----विचारों उठाना परमात्मा से होता है लेकिन परमात्मा गुनातीत एवं
भावातीत है अर्थात परमात्मा पर मन को केंद्रित करनें की ही बात को रमन महर्षी भी कह रहे हैं ।
ध्यान,तप, साधना एवं योग चाहे आप कोई एक मार्ग अपनाएं सब का लक्ष्य एक है --मन को नियंत्रित
करना। जब तक मन नियंत्रित नहीं होता तब तक साधना पक नहीं सकती अतः मन को नियंत्रित करना
ही साधना का उद्देश्य होता है ।
====ॐ=======
श्री कृष्ण अगले श्लोक 6.35 में उत्तर के रूप में कहते हैं---मन की चंचलता पर नियंत्रण करनें के लिए दो
उपाय हैं ; एक है , अभ्यास करना और दूसरा है बैराग्य का घटित होना।
अभ्यास के संबंधमें आप गीता - श्लोक 6.26 को देखें जहाँ प्रभू कहते हैं ---मन जहाँ-जहाँ उलझता हो वहाँ-वहाँ से उसे उठाकर परमात्मा पर केंद्रित करनें का अभ्यास करना चाहिए , ऐसा करनें से मन की आब्रित्ति मंद पड़ जाती है । इस सम्बन्ध में रमन महर्षी कहते हैं--विचारों के मूल को पकड़ना ही ध्यान है , लेकिन विचारों का मूल क्या है ?
गीता-श्लोक 7.12- 7.13 कहते हैं----विचारों उठाना परमात्मा से होता है लेकिन परमात्मा गुनातीत एवं
भावातीत है अर्थात परमात्मा पर मन को केंद्रित करनें की ही बात को रमन महर्षी भी कह रहे हैं ।
ध्यान,तप, साधना एवं योग चाहे आप कोई एक मार्ग अपनाएं सब का लक्ष्य एक है --मन को नियंत्रित
करना। जब तक मन नियंत्रित नहीं होता तब तक साधना पक नहीं सकती अतः मन को नियंत्रित करना
ही साधना का उद्देश्य होता है ।
====ॐ=======
Thursday, October 22, 2009
गीता ध्यान विधि - 2
गीता-श्लोक 4.29- 4.30 के माध्यम से श्री कृष्ण एक ऐसी ध्यान विधि दे रहे हैं जिसको आप महावीर-बुद्ध से ले कर आज तक के लोग किसी न किसी रूप में अभ्यास करा रहें हैं । यहाँ इन दो श्लोकों में तीन ध्यान की विधियां बताई गयी हैं जो सीधे श्वास से सम्बन्ध रखती हैं ।
ध्यान-विधि 2.1
अपांन वायु पर ध्यान करना
जब हम अपांन वायु को बाहर छोड़ते हैं तब हमारी नाभि नीचे की ओर जाती है और जब प्राण-वायु को ग्रहण करते हैं तब नाभि ऊपर की ओर उठती है । जब नाभि नीचे की ओर जानें लगे और पूरी तरह नीचे हो तब उस स्थान पर अपनी ऊर्जा को केंद्रित करना चाहिए या नाशिका के अगले भाग पर ध्यान करना चाहिए जहाँ से अन्दर की वायु बाहर निकलती है ।
प्राण वायु पर ध्यान करना
प्राण वायु जब ग्रहण की जाती है तब नाभी नीचे से ऊपर की ओर उठती है अतः नाभि के उपरी स्थिति पर
ध्यान को केंद्रित करना चाहिए या नाशिका के उस भाग पर जहाँ से वायु को ग्रहण किया जा रहा हो ।
ऊपर की दोनों बिधियों को मिला कर बुद्ध की विपत्सना बिधि बनती है जिसको करके अनेक भिक्षुक
निर्वाण को प्राप्त किया था ।
प्राण पर ध्यान करना
गीता श्लोक 4.29-4.30 में तीसरी ध्यान - विधि है --प्राण पर ध्यान करनें का। यहाँ बताया जा रहा है की श्वास को रोक कर प्राण को प्राण में देखते रहना । यह विधि खतरनाक विधि है अतः बिना योग्य गुरु के इस ध्यान में नहीं उतरना चाहिए । यहाँ एकबात की ओर इशारा करना मैं उचित समझता हूँ ---आप इस बात को समझलें की जब नाशिका से श्वास लेना बंद हो जाता है तब अन्य ज्ञानेन्द्रियाँ इस काम को करनें लगाती हैं जैसे कान, आँखें और त्वचा आदि । समाधि में उतरे योगी को डाक्टर लोग मृत घोषित कर देते हैं क्योंकि उसकी ह्रदय की धड़कन बंद होती है लेकिन वह योगी मृत नहीं होता । समाधि में स्थूल शरीर निर्जीव सा हो जाता है , शरीर को समझनें वाले सभी वैज्ञानिक उपकरण असफल हो जाते हैंलेकिन फिरभी वह योगी जिंदा होता है ।
इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जैसे स्वामी योगा नन्द आदि । स्वामी योगा नन्द ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी तथा अनेक शोध संस्थाओं में अपनें योग का प्रदर्शन किया सभी जगह उनको मृत पाया गया लेकिन वे जिदा थे ।
हम उम्मीद करते हैं की गीता की ध्यान विधियाँ आप को गीता - ध्यान में उतारेंगी ।
======ॐ========
ध्यान-विधि 2.1
अपांन वायु पर ध्यान करना
जब हम अपांन वायु को बाहर छोड़ते हैं तब हमारी नाभि नीचे की ओर जाती है और जब प्राण-वायु को ग्रहण करते हैं तब नाभि ऊपर की ओर उठती है । जब नाभि नीचे की ओर जानें लगे और पूरी तरह नीचे हो तब उस स्थान पर अपनी ऊर्जा को केंद्रित करना चाहिए या नाशिका के अगले भाग पर ध्यान करना चाहिए जहाँ से अन्दर की वायु बाहर निकलती है ।
प्राण वायु पर ध्यान करना
प्राण वायु जब ग्रहण की जाती है तब नाभी नीचे से ऊपर की ओर उठती है अतः नाभि के उपरी स्थिति पर
ध्यान को केंद्रित करना चाहिए या नाशिका के उस भाग पर जहाँ से वायु को ग्रहण किया जा रहा हो ।
ऊपर की दोनों बिधियों को मिला कर बुद्ध की विपत्सना बिधि बनती है जिसको करके अनेक भिक्षुक
निर्वाण को प्राप्त किया था ।
प्राण पर ध्यान करना
गीता श्लोक 4.29-4.30 में तीसरी ध्यान - विधि है --प्राण पर ध्यान करनें का। यहाँ बताया जा रहा है की श्वास को रोक कर प्राण को प्राण में देखते रहना । यह विधि खतरनाक विधि है अतः बिना योग्य गुरु के इस ध्यान में नहीं उतरना चाहिए । यहाँ एकबात की ओर इशारा करना मैं उचित समझता हूँ ---आप इस बात को समझलें की जब नाशिका से श्वास लेना बंद हो जाता है तब अन्य ज्ञानेन्द्रियाँ इस काम को करनें लगाती हैं जैसे कान, आँखें और त्वचा आदि । समाधि में उतरे योगी को डाक्टर लोग मृत घोषित कर देते हैं क्योंकि उसकी ह्रदय की धड़कन बंद होती है लेकिन वह योगी मृत नहीं होता । समाधि में स्थूल शरीर निर्जीव सा हो जाता है , शरीर को समझनें वाले सभी वैज्ञानिक उपकरण असफल हो जाते हैंलेकिन फिरभी वह योगी जिंदा होता है ।
इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जैसे स्वामी योगा नन्द आदि । स्वामी योगा नन्द ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी तथा अनेक शोध संस्थाओं में अपनें योग का प्रदर्शन किया सभी जगह उनको मृत पाया गया लेकिन वे जिदा थे ।
हम उम्मीद करते हैं की गीता की ध्यान विधियाँ आप को गीता - ध्यान में उतारेंगी ।
======ॐ========
Wednesday, October 21, 2009
गीता ध्यान बिधि - 1
गीता में प्रभू के श्लोक 2.2 से 18.72 के मध्य 556 श्लोक हैं और सभी श्लोक अपनें में एक ध्यान-बिधि है लेकिन प्रभू विशेष रूप से कुछ बिधियों को बताया है जिनको यहाँ लिया जा रहा है ।
गीता-श्लोक 6.11--6.20 के माध्यम से प्रभू कहते हैं ------
1- ध्यान को अपनानें वाले को सामान्य भोजन करना चाहिए तथा सामान्य निद्रा लेनी चाहिए , अधिक भोजन करनें वाले एवं अधिक सोनें वाले का ध्यान फलित नही होता ।
2- ध्यान जहाँ करना हो वहाँ की जमींन समतल होनी चाहिए तथा वह स्थान शांत होना चाहिए।
3- ध्यान में बैठनें से पूर्व कोई बिछावन जमींन पर बिछा देना चाहिए ।
4- जिस स्थान का चयन किया गया हो उसके आस- पास चीटियों का निवास नहीं होना चाहिए ।
5- जब किसी आसन में बैठें तब आँखें लगभग बंद हो तो अच्छा होगा ।
6- ध्यान में अपांन वायु एवं प्राण-वायु का अनुपात 1:1 का होना चाहिए ।
7- ध्यान में शरीर के किसी भी भाग में तनाव नही आना चाहिए ।
8- शरीर तथा जमींन के बीच 90 अंश का कोण बनना चाहिए वह भी तनाव रहित स्थिति में ।
कुछ दिनों तक बैठनें का अभ्यास करना चाहिए और शरीर में हो रही घटनाओं को देखते रहना चाहिए ऐसा करने से शरीर सध जाएगा और ध्यान की आगे की यात्रा में आसानी होगी । शरीर साधनें के बाद मन को साधना चाहिए । मन साधना में मन में उठते विचारों को पकड़ कर नीर्विचार होनें का अभ्यास करना ही मन-ध्यान है।
गीता में परम प्रभू इन्द्रिय नियोजन से प्राण छोडनें तक की ध्यान बिधियों को बताया है ।
======ॐ======
गीता-श्लोक 6.11--6.20 के माध्यम से प्रभू कहते हैं ------
1- ध्यान को अपनानें वाले को सामान्य भोजन करना चाहिए तथा सामान्य निद्रा लेनी चाहिए , अधिक भोजन करनें वाले एवं अधिक सोनें वाले का ध्यान फलित नही होता ।
2- ध्यान जहाँ करना हो वहाँ की जमींन समतल होनी चाहिए तथा वह स्थान शांत होना चाहिए।
3- ध्यान में बैठनें से पूर्व कोई बिछावन जमींन पर बिछा देना चाहिए ।
4- जिस स्थान का चयन किया गया हो उसके आस- पास चीटियों का निवास नहीं होना चाहिए ।
5- जब किसी आसन में बैठें तब आँखें लगभग बंद हो तो अच्छा होगा ।
6- ध्यान में अपांन वायु एवं प्राण-वायु का अनुपात 1:1 का होना चाहिए ।
7- ध्यान में शरीर के किसी भी भाग में तनाव नही आना चाहिए ।
8- शरीर तथा जमींन के बीच 90 अंश का कोण बनना चाहिए वह भी तनाव रहित स्थिति में ।
कुछ दिनों तक बैठनें का अभ्यास करना चाहिए और शरीर में हो रही घटनाओं को देखते रहना चाहिए ऐसा करने से शरीर सध जाएगा और ध्यान की आगे की यात्रा में आसानी होगी । शरीर साधनें के बाद मन को साधना चाहिए । मन साधना में मन में उठते विचारों को पकड़ कर नीर्विचार होनें का अभ्यास करना ही मन-ध्यान है।
गीता में परम प्रभू इन्द्रिय नियोजन से प्राण छोडनें तक की ध्यान बिधियों को बताया है ।
======ॐ======
Sunday, October 18, 2009
ध्यान ह्रदय के द्वार को खोलता है
गीता श्लोक 13.24 कहता है ---- ध्यान में जब बुद्धि निर्विकार हो जाती है तब ह्रदय का कपाट खुलता है और
परमात्मा की आहट सुनाई पड़नें लगती है क्योंकि आत्मा- परमात्मा का केन्द्र ह्रदय है [ गीता सूत्र - 10.20, 13.17, 13.22, 15.7, 15.11, 15.15, 18.61 ] तथा जब ऐसा होता है तब देह की ऊर्जा लम्बवत ऊपर की ओर
उठनें लगती है एवं मन-बुद्धि संसार में रूचि नहीं रखते ।
विज्ञान एवं दर्शन में बुनियादी अन्तर है ; विज्ञान सोच के केन्द्र के रूप में मष्तिस्क को समझता है जहाँ से
भाव उठते हैं और दर्शन में भावों का केन्द्र ह्रदय है । अमेरिका के ह्रदय विशेषज्ञ कहते हैं ---अंग जब बदले
जाते हैं तब अंग देनें वाले का स्वभाव भी उस अंग के साथ लेनें वाले को मिल जाता है --यह शत प्रतिशत तो
नहीं होता लेकिन ऐसी बात शोध कर्ताओं को देखनें को मिली है , विशेष रूप से ह्रदय - बदलाव की
स्थितिओं में । गीता इस सम्बन्ध में कहता है ---तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण हर इन्शान
में होता है , गुणों से स्वभाव बनता है और स्वभाव से भाव उठते हैं तथा भावानुकूल कर्म होता है ।
गुनरहस्य वैज्ञानिकों को मदत कर सकता है लेकिन वैज्ञानिक गीता को कैसे अपनाए ? गीता की स्पष्टता को
देखिये --गीता कहता है ...गुन कर्म-करता हैं और करता भाव अंहकार का छाया है [गीता-3।27] । क्या आप
इस से अधिक स्पष्ट बात कहीं और पा सकते हैं ? अब आप गीता का एक और सूत्र देखिये [ गीता-6।27] ,
गीता कहता है ...राजस गुन पभु के मार्ग में बहुत बड़ा अवरोध है । गीता के ऊपर बताये दो सूत्रों को जो अपना
लिया वह हो गया साक्षी-द्रष्टा और की खोज स्वतः समात हो जायेगी । गीता - सूत्र 14.19,14.23 कहते हैं - गुणों
को करता समझनें वाला द्रष्टा एवं साक्षी है ।
गीता में उलझिए नहीं गीता के कुछ सूत्रों को अपनाइए जो आप को भोग के बंधनों को स्पष्ट करके आप की दिशा
बदल देंगे और आप संसार के आयाम से प्रभु के आयाम में पहुँच सकते हैं ।
======ॐ=========
परमात्मा की आहट सुनाई पड़नें लगती है क्योंकि आत्मा- परमात्मा का केन्द्र ह्रदय है [ गीता सूत्र - 10.20, 13.17, 13.22, 15.7, 15.11, 15.15, 18.61 ] तथा जब ऐसा होता है तब देह की ऊर्जा लम्बवत ऊपर की ओर
उठनें लगती है एवं मन-बुद्धि संसार में रूचि नहीं रखते ।
विज्ञान एवं दर्शन में बुनियादी अन्तर है ; विज्ञान सोच के केन्द्र के रूप में मष्तिस्क को समझता है जहाँ से
भाव उठते हैं और दर्शन में भावों का केन्द्र ह्रदय है । अमेरिका के ह्रदय विशेषज्ञ कहते हैं ---अंग जब बदले
जाते हैं तब अंग देनें वाले का स्वभाव भी उस अंग के साथ लेनें वाले को मिल जाता है --यह शत प्रतिशत तो
नहीं होता लेकिन ऐसी बात शोध कर्ताओं को देखनें को मिली है , विशेष रूप से ह्रदय - बदलाव की
स्थितिओं में । गीता इस सम्बन्ध में कहता है ---तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण हर इन्शान
में होता है , गुणों से स्वभाव बनता है और स्वभाव से भाव उठते हैं तथा भावानुकूल कर्म होता है ।
गुनरहस्य वैज्ञानिकों को मदत कर सकता है लेकिन वैज्ञानिक गीता को कैसे अपनाए ? गीता की स्पष्टता को
देखिये --गीता कहता है ...गुन कर्म-करता हैं और करता भाव अंहकार का छाया है [गीता-3।27] । क्या आप
इस से अधिक स्पष्ट बात कहीं और पा सकते हैं ? अब आप गीता का एक और सूत्र देखिये [ गीता-6।27] ,
गीता कहता है ...राजस गुन पभु के मार्ग में बहुत बड़ा अवरोध है । गीता के ऊपर बताये दो सूत्रों को जो अपना
लिया वह हो गया साक्षी-द्रष्टा और की खोज स्वतः समात हो जायेगी । गीता - सूत्र 14.19,14.23 कहते हैं - गुणों
को करता समझनें वाला द्रष्टा एवं साक्षी है ।
गीता में उलझिए नहीं गीता के कुछ सूत्रों को अपनाइए जो आप को भोग के बंधनों को स्पष्ट करके आप की दिशा
बदल देंगे और आप संसार के आयाम से प्रभु के आयाम में पहुँच सकते हैं ।
======ॐ=========
सोच रहित सोच का क्या करूँ ?
सोच करना अति सरल है , मनुष्य सोच में पैदा होता है और सोच ही सोच में एक दिन शरीर भी छोड़ देता है।
क्या सोच शरीर के साथ समाप्त होजाती है ? इस सम्बन्ध में आप देखिये गीता सूत्र 8.6, 15.8 जो कहते हैं----
मनुष्य के शरीर को छोड़ कर जब आत्मा यात्रा पर निकलता है तब उसके साथ मन भी होता है । मन में
हमारे जीवन भर की सोचों का संग्रह होता है और यही सोचें आत्मा को विवश कर देती हैं नया शरीर धारण
करनें के लिए ।
सोच का प्रारंभ तो है लेकिन इनका अंत नही , एक सोच अनेक सोचों को पैदा करती है और यह क्रम चलता
रहता है---बुद्ध कहते हैं कामनाएं दुस्पुर होती हैं । कामनाएं कैसे पैदा होती हैं ? इस बात को समझना
जरुरी है । संसार में बिहर रही इन्द्रीओं की सूचनाओं के आधार पर मन- बुद्धि मिल कर सोच पैदा करते हैं ।
जब इन्द्रियाँ संसार से सूचनाएं एकत्रित करती हैं तब तो हम बेहोश रहते हैं और जब मन-बुद्धि सोच का
निर्माण करते हैं तब तक हमें होश नहीं आता पर जब सोच में फस जाते हैं तब कुछ सोच की किरण फूटती है
लेकिन तब तक काफ़ी देर हो गई होती है ।
सोच से बचना असंभव है लेकिन सोच को समझ कर सोच के खिचाव से बचना सरल है । जब इन्द्रियाँ
अपनें - अपनें बिषयों में पहुंचे तब हमें उनको वहीं पकड़ना चाहिए या यदि ऐसा सम्भव नहीं तो मन में
उठते विचारों को पकड़ कर निर्विचार होना सम्भव है । सोच की समझ को गीता समत्व -योग की संज्ञा
देता है ।
अलेक्सजेंडर जब संसार जीतनें के लिए तैयार हुआ तन महाबीर की तरह नंगे बदन वाले एक सन्यासी से मिलनें
गया, वह सन्यासी था दायोग्नीज । सन्यासी दरिया किनारे रेत पर सो कर सुबह की धुप ले रहा था।
अलेक्सजेंडर बोला --मैं भी आप की तरह मस्ती चाहता हूँ । संन्यासी बोला--आजा ! नदी का किनारा
बहुत बड़ा है , कौन रोकता है तुझे ? अलेक्सजेंडर बोला--अभी नही , पहले संसार को जीत लूँ , फ़िर आउंगा।
दायोग्नीज बोला वह दिन कभी नहीं आनेवाला और ऐसा ही हुआ भी ।
जीवन अभी है और सोच आगे ले जाती है । सोच में डूबा ब्यक्ति अपनें वर्तमान से दूर रहनें के कारण
अतृप्त रहता है ।
क्या सोच शरीर के साथ समाप्त होजाती है ? इस सम्बन्ध में आप देखिये गीता सूत्र 8.6, 15.8 जो कहते हैं----
मनुष्य के शरीर को छोड़ कर जब आत्मा यात्रा पर निकलता है तब उसके साथ मन भी होता है । मन में
हमारे जीवन भर की सोचों का संग्रह होता है और यही सोचें आत्मा को विवश कर देती हैं नया शरीर धारण
करनें के लिए ।
सोच का प्रारंभ तो है लेकिन इनका अंत नही , एक सोच अनेक सोचों को पैदा करती है और यह क्रम चलता
रहता है---बुद्ध कहते हैं कामनाएं दुस्पुर होती हैं । कामनाएं कैसे पैदा होती हैं ? इस बात को समझना
जरुरी है । संसार में बिहर रही इन्द्रीओं की सूचनाओं के आधार पर मन- बुद्धि मिल कर सोच पैदा करते हैं ।
जब इन्द्रियाँ संसार से सूचनाएं एकत्रित करती हैं तब तो हम बेहोश रहते हैं और जब मन-बुद्धि सोच का
निर्माण करते हैं तब तक हमें होश नहीं आता पर जब सोच में फस जाते हैं तब कुछ सोच की किरण फूटती है
लेकिन तब तक काफ़ी देर हो गई होती है ।
सोच से बचना असंभव है लेकिन सोच को समझ कर सोच के खिचाव से बचना सरल है । जब इन्द्रियाँ
अपनें - अपनें बिषयों में पहुंचे तब हमें उनको वहीं पकड़ना चाहिए या यदि ऐसा सम्भव नहीं तो मन में
उठते विचारों को पकड़ कर निर्विचार होना सम्भव है । सोच की समझ को गीता समत्व -योग की संज्ञा
देता है ।
अलेक्सजेंडर जब संसार जीतनें के लिए तैयार हुआ तन महाबीर की तरह नंगे बदन वाले एक सन्यासी से मिलनें
गया, वह सन्यासी था दायोग्नीज । सन्यासी दरिया किनारे रेत पर सो कर सुबह की धुप ले रहा था।
अलेक्सजेंडर बोला --मैं भी आप की तरह मस्ती चाहता हूँ । संन्यासी बोला--आजा ! नदी का किनारा
बहुत बड़ा है , कौन रोकता है तुझे ? अलेक्सजेंडर बोला--अभी नही , पहले संसार को जीत लूँ , फ़िर आउंगा।
दायोग्नीज बोला वह दिन कभी नहीं आनेवाला और ऐसा ही हुआ भी ।
जीवन अभी है और सोच आगे ले जाती है । सोच में डूबा ब्यक्ति अपनें वर्तमान से दूर रहनें के कारण
अतृप्त रहता है ।
Saturday, October 17, 2009
वह यह्शाश करा रहा है
आप को सोचना है -- न्यूटन , आइंस्टाइन , मैक्स प्लैंक , रमन और इस श्रेणी के वैज्ञानिक क्या खोज रहे थे और उनको क्या मिला ?
मैक्स प्लैंक अंत में आकर बोले---विज्ञान कभी भी प्रकृत को नही पकड़ सकता ...किस मनोस्थिति में उनको
ऐसा मह्शूश हुआ होगा ?
आप सोचिये की कौन सजीव है और कौन निर्जीव ।
आप सोचिये की परमाणु से गलैक्सी तक सभी गतिशील हैं फ़िर टाइम स्पेस में क्या स्थिर है ?
क्या आप जानते हैं की एक अमीबा जो लाखों की संख्या में एक सूई की नोक पर आ सकते हैं उनमें एक लाख
परमाणु होते , इतनें बारीक़ जीव को किसनें बनाया होगा ?
आकाश से हर पल अनगिनत भार रहित कण नयूत्रिनों जिनको सन्देश बाहक कण कहते हैं हमारे जिस्म में
प्रवेश करते हैं और फ़िर बाहर निकल आते हैं । ये आकाशीय कण किस से सूचनाएं लाते हैं और जिस्म में
किसको देते हैं , क्या हम जानते हैं ?
पृथ्वी की गति 1671 किलो मित्र प्रति घंटा है और हमारा सौर्य मंडल 273,000,000 साल में अपनें केन्द्र का एक चक्कर लगाता है । हम सब जब इतनी गति से चल रहें हैं आख़िर कौन यह सब कर रहा है और क्यों कर रहा है ?
Rig-veda says---One without vibration began to vibrate by its own energy and other han that there was nothing .
एक दिन विज्ञानं कहनें वाला है ------Universe is pulsating ।
कुछ बातें आप को यहाँ बताई गयी हैं , आप इन बातो को देखें , समझें और उसकी ओर नजर डालें जो यह
सब कर रहा है ।
=====ॐ======
मैक्स प्लैंक अंत में आकर बोले---विज्ञान कभी भी प्रकृत को नही पकड़ सकता ...किस मनोस्थिति में उनको
ऐसा मह्शूश हुआ होगा ?
आप सोचिये की कौन सजीव है और कौन निर्जीव ।
आप सोचिये की परमाणु से गलैक्सी तक सभी गतिशील हैं फ़िर टाइम स्पेस में क्या स्थिर है ?
क्या आप जानते हैं की एक अमीबा जो लाखों की संख्या में एक सूई की नोक पर आ सकते हैं उनमें एक लाख
परमाणु होते , इतनें बारीक़ जीव को किसनें बनाया होगा ?
आकाश से हर पल अनगिनत भार रहित कण नयूत्रिनों जिनको सन्देश बाहक कण कहते हैं हमारे जिस्म में
प्रवेश करते हैं और फ़िर बाहर निकल आते हैं । ये आकाशीय कण किस से सूचनाएं लाते हैं और जिस्म में
किसको देते हैं , क्या हम जानते हैं ?
पृथ्वी की गति 1671 किलो मित्र प्रति घंटा है और हमारा सौर्य मंडल 273,000,000 साल में अपनें केन्द्र का एक चक्कर लगाता है । हम सब जब इतनी गति से चल रहें हैं आख़िर कौन यह सब कर रहा है और क्यों कर रहा है ?
Rig-veda says---One without vibration began to vibrate by its own energy and other han that there was nothing .
एक दिन विज्ञानं कहनें वाला है ------Universe is pulsating ।
कुछ बातें आप को यहाँ बताई गयी हैं , आप इन बातो को देखें , समझें और उसकी ओर नजर डालें जो यह
सब कर रहा है ।
=====ॐ======
Thursday, October 15, 2009
परम शून्यता क्या है ?
क्या आप ऐसे ब्यक्ति की कल्पना कर सकते हैं ?
जिस को संसार की कोई बस्तु आकर्षित न करती हो , बुद्धि में कोई संदेह न आता हो , जो कामना क्रोध लोभ भय मोह एवं अंहकार से अप्रभावित रहता हो , जो कभी स्वप्न न देखता हो जिसका मन भूत एवं वर्तमान की स्मृतियों से खाली हो-- तो वह ब्यक्ति कैसा होगा ? महावीर 2500 वर्ष इशा पूर्व में निर्ग्रन्थ होनें की बात कही थी और एक जर्मन विचारक विल्हेम रेक महावीर की बात को 20 वी शताब्दी के मध्य में आकर दुहराया , क्या निर्ग्रन्थ ब्यक्ति ठीक वैसा होता होगा जैसी बात ऊपर बताई गई है ? सन 1950 के आस-पास मनोवैज्ञानिक सी जी ज़ंगकहते हैं ----मध्य उम्र के लोगों में शायद ही कोई ऐसा ब्यक्ति मिले जिसके अंदर परमात्मा की सोच न हो ।
गीता श्लोक 2.55--2.72 , 14.21--14.27 तक में ऐसे ब्यक्ति की बात बताता है जिसकी चर्चा उपर की गयी है ।
यदि आप निर्ग्रन्थ होना चाहते हैं जो ठीक वैसा होता है जैसे ब्यक्ति के बारे में ऊपर बताया गया है तो आप को गीता - शरण में जाना पडेगा और जब आप निर्ग्रन्थ हो जायेंगे तब आप हर पल ॐ धुन में परम आनंदित स्वयं को पाएंगे और ॐ ही परमात्मा है [गीता-9।17,10।25,17।23 ] ।
=======ॐ=====
जिस को संसार की कोई बस्तु आकर्षित न करती हो , बुद्धि में कोई संदेह न आता हो , जो कामना क्रोध लोभ भय मोह एवं अंहकार से अप्रभावित रहता हो , जो कभी स्वप्न न देखता हो जिसका मन भूत एवं वर्तमान की स्मृतियों से खाली हो-- तो वह ब्यक्ति कैसा होगा ? महावीर 2500 वर्ष इशा पूर्व में निर्ग्रन्थ होनें की बात कही थी और एक जर्मन विचारक विल्हेम रेक महावीर की बात को 20 वी शताब्दी के मध्य में आकर दुहराया , क्या निर्ग्रन्थ ब्यक्ति ठीक वैसा होता होगा जैसी बात ऊपर बताई गई है ? सन 1950 के आस-पास मनोवैज्ञानिक सी जी ज़ंगकहते हैं ----मध्य उम्र के लोगों में शायद ही कोई ऐसा ब्यक्ति मिले जिसके अंदर परमात्मा की सोच न हो ।
गीता श्लोक 2.55--2.72 , 14.21--14.27 तक में ऐसे ब्यक्ति की बात बताता है जिसकी चर्चा उपर की गयी है ।
यदि आप निर्ग्रन्थ होना चाहते हैं जो ठीक वैसा होता है जैसे ब्यक्ति के बारे में ऊपर बताया गया है तो आप को गीता - शरण में जाना पडेगा और जब आप निर्ग्रन्थ हो जायेंगे तब आप हर पल ॐ धुन में परम आनंदित स्वयं को पाएंगे और ॐ ही परमात्मा है [गीता-9।17,10।25,17।23 ] ।
=======ॐ=====
Wednesday, October 14, 2009
absolute emptiness is dhyan
Maa sharda- wife of paramhansh ramkrishna says.......
The deeper you go within yourself, the lesser audible will be the outer world till it becomes a void. The silence of this very voidness has its own music which is called soundless sound or Anahadnada. During this period the cosmic body comes at the verse of separation from the physical body. When this happend there a sound comes out which can not be measured on scientific scale and the sound is Anahadnaad.
Rudolf Steiner says-------
Meditation is the way to knowing and beholding the eternal indestructible essencial centre of one,s being.
Ramkrishna paramhans says------
When a seeker merges in the beautitude of samadhi, he does not perceive time-space -the
off spring off Maya.
Jeremy Taylor says---------
Meditation is soul and the language of spirit.
From devine joy we decend, into devinne joy, we ultimetely dessolve. and in between the journey we call life is enveloped in the ecstacy of devine love for the personiified absolute. The realisation of this concept comes during meditation.
SIT IN MEDITATION AND ENJOY THE MUSIC OF ULTIMATE SILENCE
=====om=======
The deeper you go within yourself, the lesser audible will be the outer world till it becomes a void. The silence of this very voidness has its own music which is called soundless sound or Anahadnada. During this period the cosmic body comes at the verse of separation from the physical body. When this happend there a sound comes out which can not be measured on scientific scale and the sound is Anahadnaad.
Rudolf Steiner says-------
Meditation is the way to knowing and beholding the eternal indestructible essencial centre of one,s being.
Ramkrishna paramhans says------
When a seeker merges in the beautitude of samadhi, he does not perceive time-space -the
off spring off Maya.
Jeremy Taylor says---------
Meditation is soul and the language of spirit.
From devine joy we decend, into devinne joy, we ultimetely dessolve. and in between the journey we call life is enveloped in the ecstacy of devine love for the personiified absolute. The realisation of this concept comes during meditation.
SIT IN MEDITATION AND ENJOY THE MUSIC OF ULTIMATE SILENCE
=====om=======
Tuesday, October 13, 2009
स्व की समझ ही ध्यान है
आनंद बुद्ध से पूछते हैं-----भंते! निर्वाण में आप को क्या मिला ? बुद्ध कहते हैं ---मिला वह जो पहले से था लेकिन छूट गया वह सब जिसको मैं पकड़ कर बैठा था । बुद्ध का इशारा जो समझ गया , वह ध्यान में उतर गया। रमन महर्षी कहते थे ---witnessing the source of thaughts is meditation. क्या हमें रमन महर्षि की बातसे यह समझना चाहिए कि मन-साधना का दूसरा नाम ध्यान है ? मन-साधना का प्रारंभ बिषयों से होता है , बिषयों को समझ कर इन्द्रियों को समझना होता है और जब इन्द्रियों कि समझ हो जाती है तब मन - ध्यान प्रारंभ होता है । मन दो प्रकार कि सूचनाओं को अपनें में रखता है ; वर्तमान की सूचनाएं जो हर पल बदलती रहती हैं और भूत-काल कि सूचनाएं जो कोडेड रूप में पहले से पड़ी होती हैं । बिषय-इन्द्रिय को समझनें से वर्तमान की पकडों से तो बचा जा सकता है लेकिन भूत काल की सघन पकडों से कैसे बचा जा सकता है क्योंकि मन जब वर्तमान में बिषयों से अलग हो जाता है तब भूत काल की सूचनाओं पर मनन करनें लगता है अतः रमन महर्षी की बात को ध्यान में रख कर बिचारों का पीछा करते रहनें से निर्विचार की स्थिति मिल सकती है। मन जब निर्विचार हो जाता है तब ऊर्जा ऊपर की ओर उठनें लगती है ।
समुद्र की लहरों को आप देखे होंगे , उनको देखनें से ऐसा नही दिखता की समुद्र में कोई स्थिर स्थान भी होगा।
समुद्र की लहरों को पकड़ कर यदि नीचे की यात्रा की जाए तो वह तह मिल जायेगी जो स्थिर होती है और जिससे लहरें ऊपर उठती हैं । मन भी कुछ इस तरह ही है , मन की तरंगें जहाँ से उठती हैं वह तरंग रहित होता है तथा निर्विचार होता है । मन साधना में उस स्थान को पकड़ना पड़ता है । जैसे पूनम के चाँद के प्रतिबिम्ब को शांत झील में देख कर उसके बिपरीत दिशा में चलनें से मूल चाँद मील सकता है वैसे शांत चित पर प्रभु का प्रतिबिम्ब देख कर परा - ध्यान में पहुँच कर समाधि में प्रवेश किया जा सकता है ।
विचारों का सम्बन्ध औरों से होता है और औरों पर अपनीं ऊर्जा को लगानें से अपनें को क्या मिलनें वाला है ।
अपनीं ऊर्जा को मैं कौन हूँ की सोच पर लगानें से ध्यान में प्रवेश मिलता है । परिधि से केन्द्र की यात्रा का नाम ध्यान है ; परीधि है भोग से परिपूर्ण यह संसार और केन्द्र है परमात्मा ।
====ॐ======
समुद्र की लहरों को आप देखे होंगे , उनको देखनें से ऐसा नही दिखता की समुद्र में कोई स्थिर स्थान भी होगा।
समुद्र की लहरों को पकड़ कर यदि नीचे की यात्रा की जाए तो वह तह मिल जायेगी जो स्थिर होती है और जिससे लहरें ऊपर उठती हैं । मन भी कुछ इस तरह ही है , मन की तरंगें जहाँ से उठती हैं वह तरंग रहित होता है तथा निर्विचार होता है । मन साधना में उस स्थान को पकड़ना पड़ता है । जैसे पूनम के चाँद के प्रतिबिम्ब को शांत झील में देख कर उसके बिपरीत दिशा में चलनें से मूल चाँद मील सकता है वैसे शांत चित पर प्रभु का प्रतिबिम्ब देख कर परा - ध्यान में पहुँच कर समाधि में प्रवेश किया जा सकता है ।
विचारों का सम्बन्ध औरों से होता है और औरों पर अपनीं ऊर्जा को लगानें से अपनें को क्या मिलनें वाला है ।
अपनीं ऊर्जा को मैं कौन हूँ की सोच पर लगानें से ध्यान में प्रवेश मिलता है । परिधि से केन्द्र की यात्रा का नाम ध्यान है ; परीधि है भोग से परिपूर्ण यह संसार और केन्द्र है परमात्मा ।
====ॐ======
Sunday, October 11, 2009
ध्यान में परम प्रकाश दिखता है
गीता में परम की अनुभूति के लिए परम प्रकाश शब्द को प्रयोग किया गया है, आख़िर परम प्रकाश है क्या?
जर्मनी के महान कवि गेटे अपनें आखी समय में आँखें खोली और बोले----बंद करदो सभीं दीपकों को , अब मैं
परम प्रकाश को देख रहा हूँ । आइये! अब हम गीता में परम प्रकाश को समझनें का असफल प्रयाश करते हैं।
गीता श्लोक 13.33 15.6 जब आप एक साथ देखेंगे तो जो आप को मिलेगा वह इस प्रकार होगा ..........
जैसे सभीं लोक [ गीता तीन लोकों की बात करता है , यहाँ आप देखें श्लोक 3.22,7.14 ] सूर्य से प्रकाशित हैं वैसे
यह देह जीवात्मा से प्रकाशित है लेकिन परम धाम स्वप्रकाषित है। गीता श्लोक 7.8,7.9,9.19,15.12 में परम
श्री कृष्ण कहते हैं ---सूर्य-चन्द्रमा का प्रकाश एवं सूर्य के प्रकाश का तेज तथा अग्नि का तेज , मैं हूँ । प्रकाश में
उष्मा की बात गीता हजारों साल पहले किया है लेकीन इसका विज्ञान २०वी सताब्दी में मैक्स प्लैंक , आइंस्टाइन ,सी वी रमन जैसे कुछ वैज्ञानिकों नें बनाया। वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकाश को हम अगले अंक में देखेंगे ।
=======ॐ=======
जर्मनी के महान कवि गेटे अपनें आखी समय में आँखें खोली और बोले----बंद करदो सभीं दीपकों को , अब मैं
परम प्रकाश को देख रहा हूँ । आइये! अब हम गीता में परम प्रकाश को समझनें का असफल प्रयाश करते हैं।
गीता श्लोक 13.33 15.6 जब आप एक साथ देखेंगे तो जो आप को मिलेगा वह इस प्रकार होगा ..........
जैसे सभीं लोक [ गीता तीन लोकों की बात करता है , यहाँ आप देखें श्लोक 3.22,7.14 ] सूर्य से प्रकाशित हैं वैसे
यह देह जीवात्मा से प्रकाशित है लेकिन परम धाम स्वप्रकाषित है। गीता श्लोक 7.8,7.9,9.19,15.12 में परम
श्री कृष्ण कहते हैं ---सूर्य-चन्द्रमा का प्रकाश एवं सूर्य के प्रकाश का तेज तथा अग्नि का तेज , मैं हूँ । प्रकाश में
उष्मा की बात गीता हजारों साल पहले किया है लेकीन इसका विज्ञान २०वी सताब्दी में मैक्स प्लैंक , आइंस्टाइन ,सी वी रमन जैसे कुछ वैज्ञानिकों नें बनाया। वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकाश को हम अगले अंक में देखेंगे ।
=======ॐ=======
Friday, October 9, 2009
ध्यान में क्या घटित होता है ?
आग में तपनें के बाद सोना अपनी चमक बिखेरता है और मनुष्य ध्यान से बुद्ध बनकर लोगों को आकर्षित करता है।
ध्यान के रहस्य में डूबने के पहले हम गीता के 11 श्लोकों को देखते हैं जिनके आधार पर ध्यान - रहस्य को जानना
कुछ आसान सा हो सकता है ।
1- shlok ...18.49 आसक्ति रहित कर्म से सिद्धि मिलती है ।
2- श्लोक...18.50 कर्म-सिद्धि ज्ञान-योग की परा निष्ठा है ।
3- श्लोक...18.54 परमात्मा में डूबा परा-भक्त होता है ।
4- श्लोक...18.55 परा भक्त परमात्मा मय होता है ।
5- श्लोक...6.29,6.30,9.29 परा भक्त के लिए परमात्मा निराकार नहीं रहता ।
6- श्लोक...7.3,7.19,12.5,14.20 परा भक्त दुर्लभ होते हैं।
कर्म,भक्ति एवं परमात्मा के सम्बन्ध में गीता के कुछ चुनें गए श्लोकों को आप अभी देखे अब इन पर सोचनें
का काम आप का है और यही सोच आप को बुद्धि-योग में प्रवेश करा सकती है ।
माध्यमों से होनें वाली भक्ति अपरा-भक्ति होती है , अपरा भक्ति का फल है , परा भक्ति जो अनुभूति अब्याक्तातीत
है उसे प्रदान करती है और परा-भक्त बुद्ध होता है । परा-भक्ति तन,मन एवं बुद्धि से होती है जिसको देखा तथा
समझा जा सकता है लेकिन जब वही भक्त परा में प्रवेश कर जाता है तब उसका तन,मन एवं बुद्धि अपरा के
द्वार पर रह जाते हैं , उसके पास न तन होता है, न मन होता है और न वह बुद्धि होती है , उसकी चेतना का
फैलाव इतना अधिक हो जाता है की चेतना ब्रह्म से मिल जाती है । चेतना का आंशिक मिलन के समय वह
योगी समाधि में होता है और जब समाधि टूटती है तब वह कस्तूरी मृग की तरह बेचैन हो कर उस समाधि के
अनुभव को पुनः पानें के लिए भागनें लगता है ।
====ॐ========
ध्यान के रहस्य में डूबने के पहले हम गीता के 11 श्लोकों को देखते हैं जिनके आधार पर ध्यान - रहस्य को जानना
कुछ आसान सा हो सकता है ।
1- shlok ...18.49 आसक्ति रहित कर्म से सिद्धि मिलती है ।
2- श्लोक...18.50 कर्म-सिद्धि ज्ञान-योग की परा निष्ठा है ।
3- श्लोक...18.54 परमात्मा में डूबा परा-भक्त होता है ।
4- श्लोक...18.55 परा भक्त परमात्मा मय होता है ।
5- श्लोक...6.29,6.30,9.29 परा भक्त के लिए परमात्मा निराकार नहीं रहता ।
6- श्लोक...7.3,7.19,12.5,14.20 परा भक्त दुर्लभ होते हैं।
कर्म,भक्ति एवं परमात्मा के सम्बन्ध में गीता के कुछ चुनें गए श्लोकों को आप अभी देखे अब इन पर सोचनें
का काम आप का है और यही सोच आप को बुद्धि-योग में प्रवेश करा सकती है ।
माध्यमों से होनें वाली भक्ति अपरा-भक्ति होती है , अपरा भक्ति का फल है , परा भक्ति जो अनुभूति अब्याक्तातीत
है उसे प्रदान करती है और परा-भक्त बुद्ध होता है । परा-भक्ति तन,मन एवं बुद्धि से होती है जिसको देखा तथा
समझा जा सकता है लेकिन जब वही भक्त परा में प्रवेश कर जाता है तब उसका तन,मन एवं बुद्धि अपरा के
द्वार पर रह जाते हैं , उसके पास न तन होता है, न मन होता है और न वह बुद्धि होती है , उसकी चेतना का
फैलाव इतना अधिक हो जाता है की चेतना ब्रह्म से मिल जाती है । चेतना का आंशिक मिलन के समय वह
योगी समाधि में होता है और जब समाधि टूटती है तब वह कस्तूरी मृग की तरह बेचैन हो कर उस समाधि के
अनुभव को पुनः पानें के लिए भागनें लगता है ।
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Tuesday, October 6, 2009
ध्यान में क्या घटित होता है --भाग १
ध्यान मन-बुद्धि से परे की उड़ान है जहाँ चेतना का पूर्ण फैलाव होता है और देह में इन्द्रियाँ,मन, बुद्धि तथा अन्य तत्व नीर्विकार स्थिति में आ जाते हैं ।
मनुष्य मात्र एक ऐसा प्राणी है जिसका जीवन मार्ग एक अंडाकार है जिसमें दो केन्द्र हैं--भोग एवं भगवान्।
मनुष्य दो मार्गी होनें के कारण हमेशा तनाव में रहता है। मनुष्य जब भोग में पहुंचता है तब परमात्मा की स्मृति उसे वहाँ रूकनें नहीं देती और जब भगवान् में रमना चाहता है तब भोग का आकर्षण उसे अपनी ओर खीचता है ।
मनुष्य एक रेडीओ सेट की तरह से है जो भोग की संबेदनाओं को तो पकड़ता ही है लेकिन परमात्मा की भी संबेदनाओं को पकड़ सकता है ।
वैज्ञानिकों की खोज बताती है ----ध्यान में डूबे ब्यक्ति के अंदर ऊर्जा की आब्रिती [frequency] दो लाख प्रति सेकंड हो जाती है जबकि एक सामान्य ब्यक्ति में यह तीन सौ पचास होती है। जब आब्रिती दो लाख से उपर जानें लगाती है तब वह ध्यानी अपनें को शरीर से बाहर होनें जैसा अनुभव करनें लगता है।
ध्यान जैसे -जैसे आगे बढता है अन्तः करन में शून्यता भरनें लगती है । शून्यता जब अपनें शिखर पर पहुंचती है तब आत्मा शरीर में गुणों से मुक्त हो जाता है । तंत्र शास्त्र में इस स्थिति को चक्रों की पकड़ से आत्मा का आजाद होना कहा जाता है ।
जब परम शून्यता आती है तब शरीर के कण-कण से आत्मा आजाद होता है और इसमें जो ध्वनी निकलती है उसे झेन परम्परा में ध्वनि रहित ध्वनि [soundless sound] कहते हैं।
ध्यान में पभु की छाया पानें के लिए समाधि से गुजरना पड़ता है और गीता कहता है की ऐसे ब्यक्ति
दुर्लभ होते हैं ।
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मनुष्य मात्र एक ऐसा प्राणी है जिसका जीवन मार्ग एक अंडाकार है जिसमें दो केन्द्र हैं--भोग एवं भगवान्।
मनुष्य दो मार्गी होनें के कारण हमेशा तनाव में रहता है। मनुष्य जब भोग में पहुंचता है तब परमात्मा की स्मृति उसे वहाँ रूकनें नहीं देती और जब भगवान् में रमना चाहता है तब भोग का आकर्षण उसे अपनी ओर खीचता है ।
मनुष्य एक रेडीओ सेट की तरह से है जो भोग की संबेदनाओं को तो पकड़ता ही है लेकिन परमात्मा की भी संबेदनाओं को पकड़ सकता है ।
वैज्ञानिकों की खोज बताती है ----ध्यान में डूबे ब्यक्ति के अंदर ऊर्जा की आब्रिती [frequency] दो लाख प्रति सेकंड हो जाती है जबकि एक सामान्य ब्यक्ति में यह तीन सौ पचास होती है। जब आब्रिती दो लाख से उपर जानें लगाती है तब वह ध्यानी अपनें को शरीर से बाहर होनें जैसा अनुभव करनें लगता है।
ध्यान जैसे -जैसे आगे बढता है अन्तः करन में शून्यता भरनें लगती है । शून्यता जब अपनें शिखर पर पहुंचती है तब आत्मा शरीर में गुणों से मुक्त हो जाता है । तंत्र शास्त्र में इस स्थिति को चक्रों की पकड़ से आत्मा का आजाद होना कहा जाता है ।
जब परम शून्यता आती है तब शरीर के कण-कण से आत्मा आजाद होता है और इसमें जो ध्वनी निकलती है उसे झेन परम्परा में ध्वनि रहित ध्वनि [soundless sound] कहते हैं।
ध्यान में पभु की छाया पानें के लिए समाधि से गुजरना पड़ता है और गीता कहता है की ऐसे ब्यक्ति
दुर्लभ होते हैं ।
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