Tuesday, October 27, 2009

अपरा भक्ति के माध्यम--भाग - 1

क्या कभी हमारे अन्दर ऎसी सोच उठती है की हम परमात्मा को क्यों चाहते हैं ?
खोज के लिए माध्यम चाहिए चाहे खोज भोग की हो या भगवान् की और हमारे पास माध्यम के लिए
तन, मन एवं बुद्धि हैं । मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो स्व आश्रितों के लिए घर का निर्माण करता है और
प्रभू के लिए भी मन्दिर के रूप में उनका घर बनाता है । ऎसी सूचनाएं जो माध्य से जानी जाती हैं वे सभींअपरा श्रेणी में आती हैं । मन्दिर , मूर्ती , भजन , कीर्तन, ध्यान-विधियां, तप तथा साधना के अन्य माध्यम सब अपरा भक्ति के माध्यम हैं ।
बीसवीं शताब्दी के जानें मानें मनोवैज्ञनिक सी जी ज़ंग कहते हैं---मध्य उम्र के लोगों में शायद ही कोई ऐसा मिले जिसके अन्दर किसी न किसी रूप में परमात्मा की सोच न हो । फ्रेडरिक नित्झे जैसे लोग कहते हैं ----
परमात्मा शब्द भयभीत लोगों की उपज है यदि ऐसी बात है तो बुद्ध-महाबीर को किस का भय था , वे दोनों तो राजा थे , चंन्द्रगुप्त को क्या भय रहा होगा जो अपनें आखिरी वक्त में जैन- भिक्षुक बन गए और
उनके पोते अशोक महान अपनें अंत समय में बुद्ध - भिक्षुक बन कर अपना जीवन गुजारा ।
मनुष्य सही तौर पर परमात्मा से तब जुड़ता है जब वह सुख या दुःख की आखिरी झलक देखता है ।
गीता में परम श्री कृष्ण कहते है ---परमात्मा न सत है न असत और परमात्मा सत भी है और असत भी है , पर अर्जुन कहते हैं ---हे प्रभू! आप सत-अ सत से परे परम ब्रह्म हैं ।
परमात्मा को जो जानना चाहेगा वह चूक जाएगा और परमात्मा में जो अनजानें में जियेगा वह पाजायेगा।
परमात्मा कोई चीज नहीं जिसको खोजना है , परमात्मा से परमात्मा में यह वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड है जिसमें
हम सब हैं फ़िर उसे हम क्यों खोज रहे हैं ।
वह जिसको अपनें घर के एक अबोध बच्चे में श्री कृष्ण नहीं दिखे उसे मथुरा-वृन्दावन में क्या ख़ाक दिखेंगे ?
=====ॐ=========

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